Friday, November 6, 2009

मृत्यु तो रूपांतरण है, दुख क्यों?

विनय बिहारी सिंह

बचपन में अपने गांव में शव यात्रा में बैंड बजते देख कर मैंने एक बुजुर्ग से पूछा था- मृत्यु पर खुशी का संगीत क्यों? बुजुर्ग ने कहा था- जब कोई बूढ़ा व्यक्ति मरता है तो माना जाता है कि उसने भरी- पूरी जिंदगी जी और आराम से चला गया। इसी की खुशी में बैंड बजाया जाता है। बड़ा हुआ तो गीता ने इसे और स्पष्ट कर दिया। मृत्यु के बाद जन्म और जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। परमहंस योगानंद कहते थे- योगी इस संसार को एक स्कूल के रूप में देखे। लगातार आत्मविश्लेषण करे कि वह लगातार बेहतर हुआ है या नहीं। उसके जीवन में प्रेम, भक्ति और सेवा की कितनी जगह है। आत्ममंथन जरूरी है। हमसे किसी को कष्ट न हो, इसका ख्याल रहे। सबसे प्रेम से मिलना चाहिए। किसी को नीचा देखना, ईश्वर की कृति का अपमान करना है। खुद को सुधारते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए- भगवान, अब और इस संसार में न आना पड़े। इसके लिए चाहे जो परीक्षा लेनी हो, ले लीजिए लेकिन मुझे आवागमन से मुक्त कीजिए। जैसे कोई किसी कक्षा में फेल हो गया तो उसे फिर उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है, ठीक वैसे ही अगर हमने खुद को ईश्वर के लायक नहीं बनाया औऱ अपनी इच्छाओं के वश में रहे तो इस संसार में बार- बार आना पड़ेगा। इच्छाएं हमें नचाती हैं। इन इच्छाओं को जब हम वश में कर लेंगे तो फिर हमारी बेचैनी, हमारा तनाव हमारी चंचलता सब खत्म हो जायेंगे। लेकिन मृत्यु से पहले अगर हमने अपने जीवन को भीतर से बेहतर नहीं बनाया। ईश्वरोन्मुखी नहीं बनाया तो मृत्यु के बाद भी हमारी गति वैसी ही रहेगी। हमें फिर से जन्म लेकर उसी प्रपंच में पड़ना पड़ेगा। इसलिए जिसने खुद को ईश्वर के रास्ते पर प्रस्तुत कर दिया है और फिर संसार में नौकरी- चाकरी या व्यापार कर रहा है, उसकी बिगड़ी बन जाएगी। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- जैसे कटहल काटने के पहले लोग हाथ में तेल लगा लेते हैं ताकि कटहल से निकला चिपचिपा पदार्थ हाथ में न चिपके, उसी तरह संसार का प्रपंच हमारे मन को प्रभावित न करे, इसके लिए ईश्वर की भक्ति रूपी तेल जरूरी है।