Friday, May 29, 2009

साइंस का चमत्कार, सिर्फ सोचिए और आपका काम हो जाएगा

विनय बिहारी सिंह

आस्ट्रियन मेडिकल इंजीनियरिंग कंपनी जी.टेक ने - ब्रेन कंप्यूटर इंटरफेस (बीसीआई) टेक्नालाजी विकसित कर ली है। आप पूछेंगे यह होता क्या है? आइए जानें- वह कंप्यूटर जो आपके सोचने भर से ही आपके घर की बत्ती जला देगा, टीवी आन कर देगा, नल खोल देगा और इसी तरह के हजार काम कर देगा। यह कैसे संभव है? दरअसल शुरू में आपकी खोपड़ी से सटा कर एक इलेक्ट्रोड फिट कर दिया जाता है। उसे इस कंप्यूटर से जोड़ दिया जाता है। जब यह इलेक्ट्रोड आपकी चिंतन पद्धति को समझ लेगा और इसे कंप्यूटर में फीड कर देगा तो उसका काम खत्म हो जाएगा। आपकी खोपड़ी से वह इलेक्ट्रोड हटा दिया जाएगा। बिना उसके भी आपका कंप्यूटर अब आपकी सोच पकड़ लेगा। मान लीजिए आपने सोचा कि आपके कमरे की बत्ती जले। बस, सोचते ही बत्ती जल जाएगी। इस कंप्यूटर में इलेक्ट्रोइंसेफेलोग्राम (ईईजी) उपकरण फिट होता है। वही आपकी सोच पकड़ कर कार्यान्वित करता है। यह उपकरण शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के काम आएगा और वे अब अक्षम होने के दुख से उबर जाएंगे। उनका किसी पर निर्भरता खत्म हो जाएगी। इस तकनीक का प्रदर्शन, जी.टेक ने मार्च में ही हनोवर में कर दिया था। और सिर्फ विकलांगों के ही नहीं, अत्यंत बूढ़े लोगों के भी काम आएगा यह उपकरण। हमारे ऋषि- मुनियों ने पहले ही यह काम कर दिया था। आखिर ऋषि वशिष्ठ ने ही लव की शक्ल वाले कुश को बना ही दिया था। वह भी सोच कर ही। ऋषियों के ऐसे चमत्कारों से हमारे धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं। हनुमान जी ने सूर्य को फल समझ कर लील लिया। लेकिन इसके पहले उन्होंने सूर्य को खाने की सोचा और उनका काम हो गया। हालांकि जब वे बड़े हुए तो अष्ट सिद्धि और नौ निधियों के स्वामी हो गए। क्योंकि उन्हें जानकी माता यानी मां सीता ने वरदान दिया था।

Thursday, May 28, 2009

अपने मन की गतिविधियां देखना दिलचस्प

विनय बिहारी सिंह

हमारा मन दिन भर में न जाने कहां- कहां भटकता है। क्या कभी आपने अपने मन के व्यवहार को गहराई से परखा है? सचमुच मन को देखना दिलचस्प है। मन अनावश्यक चीजों पर भी जाता है। इसीलिए ऋषियों ने कहा है कि मन को नियंत्रित न किया जाए तो वह पागल, बिच्छू काटे और अफीम खाए बंदर की तरह व्यवहार करेगा। जैसे गेंद उछलती है, ठीक उसी तरह उछलेगा। कभी इस बात की तरफ तो कभी उस बात की तरफ। आइए हम देखें कि हमारा मन हमेशा सकारात्मक, रचनात्मक विचारों से क्यों नहीं ओतप्रोत रहता। संतों ने कहा है कि जन्म जन्मातर से हमने मन को उसकी मर्जी पर छोड़ दिया है। मन हमारा गुलाम नहीं, बल्कि हम्हीं मन के गुलाम हो गए हैं। यानी हम नौकर के गुलाम हो गए हैं। वह जैसा चाहे, हमें नचा रहा है। लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। स्थिति पलट सकती है। मन हमारा कहा मान सकता है। बस, सिर्फ अभ्यास की जरूरत है। गीता में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा है कि मन तो बड़ा चंचल और मथ देने वाला है, उसे वश में करना, वायु को वश में करने जैसा है। तो भगवान कृष्ण ने कहा- हां, मन सचमुच बड़ा चंचल है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे नियंत्रण में किया जा सकता है। आप कहेंगे- हर कोई तो अर्जुन नहीं हो सकता। लेकिन गीता में अर्जुन के बहाने हम सबको यह संदेश दिया जा रहा है कि मन को उसकी मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता। उस पर नजर रखने की जरूरत है, नहीं तो वह आपका ही अपहरण कर लेगा और जो सोचना चाहेगा, सोचेगा। आप बेबस होकर उसी का कहा मानेंगे। अगर आप ईश्वर का चिंतन करना चाहते हैं तो मन कहीं और भागेगा। स्थिर रहना तो उसकी आदत में है नहीं। लेकिन उसे स्थिर किया जा सकता है। ईश्वर का चिंतन करते हुए मन जितनी बार भी भागे, उसे बार- बार खींच कर ईश्वर पर लगाने से धीरे- धीरे मन वश में होने लगेगा। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। लेकिन भले ही यह प्रारंभ में कठिन लगे, है बहुत फायदेमंद। मन को काबू में करने के लिए उसे ईश्वर पर लगा देना ही कल्याणकारी है। सबसे पहले आप मन को देखिए, उसकी गतिविधियों पर गौर कीजिए। फिर उसे आराम से ईश्वर के पास बैठा दीजिए। आप पाएंगे कि थोड़ी ही देर बाद वह वहां से भाग खड़ा होगा और अल्लम- गल्लम सोचने लगेगा, जो कूड़े जैसा है। बैठे हैं आप ईश्वर का ध्यान करने, तो उसे दूसरी जगहों पर जाना ही क्यों चाहिए? लेकिन वह जाता है। बस धीरे- धीरे उसे नियंत्रण में लाना है। आप इसे कर लेंगे। बहुतों ने किया है।

Tuesday, May 26, 2009

मन से परे बुद्धि और बु्द्धि से परे आत्मा

विनय बिहारी सिंह

इन दिनों नैनो टेक्नालाजी की बात बहुत हो रही है। नैनो टेक्नालाजी वाले कहते हैं कि मनुष्य के एक बाल के हजारवें हिस्से को नैनो कहते हैं। इतनी सूक्ष्म टेक्नालाजी हो गई है। हमारे धर्मग्रंथों में मन, बुद्धि और आत्मा को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर कहा गया है। परमहंस योगानंद ने कहा है- यह समूचा ब्रह्मांड ईश्वर के चिंतन मात्र से ही निर्मित हुआ है। गीता में उल्लेख है कि इंद्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे आत्मा है। यह आत्मा ही ईश्वर स्वरूप है। वह चिन्मय है और इसका संसार के किसी भी प्रपंच से कोई लेना- देना नहीं है। मन अत्यंत सूक्ष्म है, लेकिन बुद्धि उससे भी ज्यादा सूक्ष्म है। और आत्मा तो उससे भी अधिक सूक्ष्म है। हमारे ऋषियों ने कहा है कि आपका चिंतन जैसा होगा, आप भी वैसे ही हो जाएंगे। अगर आप भय, चिंता और तनाव में लंबे समय तक रहेंगे तो यह आपकी प्रवृत्ति बन जाएगी। तब बिना किसी वजह के भी आप तनाव मे रहने लगेंगे। यानी तनाव में रहना आपका स्वभाव बन जाएगा। इसके ठीक उलट, यदि आप अच्छी बातें सोचेंगे, शुभ बातें सोचते हैं और हमेशा प्रसन्न रहते हैं, डर, चिंता या तनाव कभी कभी ही आपको तंग करते हैं तो आपका जीवन सुखी रहेगा। वे लोग कितने भाग्यशाली हैं जो यह मान कर चलते हैं कि भगवान उनकी रक्षा कर रहे हैं, फिर किस बात की चिंता। बस किसी का बुरा नहीं करना है। बुरा नहीं सोचना है। आप पाएंगे कि ईश्वर का आशीर्वाद आपके ऊपर बरस रहा है।

Saturday, May 23, 2009

ऋषि वाल्मीकि का रूपांतरण

विनय बिहारी सिंह

आइए आज वाल्मीकि का स्मरण करें क्योंकि उनकी कथा विलक्षण और रोचक है। ऋषि वाल्मीकि एक जमाने में खूंखार डकैत थे। एक दिन उन्हें कोई लूटने को नहीं मिला तो उन्होंने एक ऋषि को ही पकड़ लिया। ऋषि ने पूछा कि जो कुछ मेरे पास है, तुम ले लो लेकिन तुम्हें एक प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा- तुम जो पाप कर रहे हो, उसमें क्या तुम्हारे परिवार वाले भी शामिल होंगे? वाल्मीकि ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम। तो ऋषि ने कहा कि मुझे तुम एक पेड़ में बांध दो और जाओ परिवार वालों से पूछ आओ। वाल्मीकि घर गए औऱ पहले उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा- मैं जो पाप कर रहा हूं क्या तुम उसमें हिस्सेदार हो? पत्नी ने कहा- मैं क्यों हिस्सेदार होऊंगी? मैं आपकी पत्नी हूं। आपका धर्म है कि मेरी सुरक्षा और पोषण करें। लेकिन इसके लिए आप क्या करते हैं, इससे मेरा क्या लेना- देना। वाल्मीकि ने अपने मां- बाप, बेटे- बेटी सबसे पूछा। सबने कहा- आपके पाप में हम क्यों भागीदार होंगे? आपका पाप आप उसका फल भोगेंगे। हम सब अलग- अलग इस दुनिया में आए हैं, अलग- अलग समयों पर भी इस पृथ्वी से जाएंगे। पाप और पुण्य में तो किसी के साथ कोई भागीदारी नहीं करता। सब अकेले हैं इस मामले में। वाल्मीकि तो चकित हो गए। उन्हें लगा कि जब उनके पाप में कोई भागीदार नही है तो फिर वे डकैती जैसा पाप कर्म क्यों करें। उनके मन में तीव्र वैराग्य पैदा हुआ। वे उन ऋषि के चरणों में गिर गए जिन्हें उन्होंने पेड़ से बांध रखा था। और फिर उनसे कहा- प्रभु, कृपया मुझे अपना शिष्य बना लें। ऋषि ने उन्हें कहा- आप राम- राम कहिए। वाल्मीकि ने कोशिश की लेकिन वे राम जैसा साधारण नाम भी नहीं उच्चारण कर पा रहे थे। तब ऋषि ने कहा कि ठीक है- आप मरा- मरा कहिए। फिर मैं लौट कर आऊंगा तो आगे की साधना बताऊंगा। वाल्मीकि ने यह नहीं पूछा कि आप कब आएंगे? उन्हें तो गुरु मंत्र मिल गया। वे मरा- मरा ही कहने लगे। मरा- मरा कहते हुए उनके मुंह से राम- राम निकलने लगा। यह पवित्र नाम लेते हुए धीरे- धीरे उनका रूपांतरण हो गया। उन्हें ईश्वर प्राप्ति हो गई और वे स्वयं ऋषि हो गए।

Friday, May 22, 2009

अपनी किडनी का ख्याल रखें

विनय बिहारी सिंह

शोधकर्ताओं ने पाया है कि हर आदमी को उसके वजन के हिसाब से प्रोटीन लेनी चाहिए। अगर ज्यादा प्रोटीन हो गई तो वह हमारी किडनी के लिए नुकसानदेह है। इसका हिसाब कैसे रखें? उन्होंने बताया है कि प्रति किलोग्राम वजन पर एक ग्राम प्रोटीन जरूरी है। जैसे- अगर आपका वजन ६० किलो है तो आपको ६ ग्राम प्रोटीन की जरूरत है। इससे ज्यादा प्रोटीन नहीं लेना चाहिए। मान लीजिए कि किसी का वजह ५० किलो ही है तो उसे ५ ग्राम प्रोटीन की जरूरत है। यह अंदाजा बहुत सरल है। बस इसी के हिसाब से प्रोटीन पदार्थ लेने चाहिए। शोध में यह भी पाया गया है कि किडनी के नष्ट होने की प्रक्रिया का शुरू में पता ही नहीं चल पाता। जब ५० प्रतिशत किडनी खराब हो चुकी होती है, तब जाकर रोगी को पता चलता है। ऐसे में किडनी को दुबारा स्वस्थ करना संभव नहीं होता। तब डाक्टर ऐसा उपाय करते हैं कि उस किडनी को भविष्य में कोई क्षति न हो। जितना नुकसान होना था वह तो हो चुका। इसके आगे न हो। लेकिन अब इस बात की कोशिश की जा रही है कि शुरू में ही किडनी की बीमार हालत का पता चल जाए और उसका तुरंत इलाज हो सके। इसके लिए कुछ प्रयोग हो चुके हैं। लेकिन एक शोध यह भी बताता है कि अगर हम साफ पानी नहीं पीते तो भी हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। मुश्किल यह है कि पीने के पानी के मामले में हमारा देश अभी भी पूरी तरह पिछड़ा हुआ है। जिनके पास क्षमता है वे तो अपने घर में पानी का श्रेष्ठतम फिल्टर लगा लेते हैं और साफ पानी पीते हैं, लेकिन वे लोग जो सक्षम नहीं हैं, जो पानी मिल जाता है, वही पी लेते हैं। हमारे देश में केंद्र और राज्य सरकारें करोड़ो रुपए जनहित में खर्च करने का दावा करती हैं, लेकिन पीने का साफ पानी आज तक किसी सरकार ने नहीं दिया। लोग जो पानी उपलब्ध है, वही पी रहे हैं। कोई जांच करने वाला नहीं है कि वह पानी कैसा है। उसे फिल्टर करना जरूरी है या नहीं।

Thursday, May 21, 2009

उम्र यूं ही तमाम होती है

विनय बिहारी सिंह

एक चिंतक ने कहा है- रोज सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यूं ही तमाम होती है। इसका निहितार्थ बहुत व्यापक है। यानी हम रोज ब रोज हमारी उम्र कम होती जा रही है। हम दिन औऱ रात का खाना खाते हैं, चाय पीते हैं और दिन भर का काम निबटा कर सो जाते हैं। फिर सुबह होती है और दुबारा हम उसी चर्या को पूरा करते हैं। इसी बीच हम ऊबते भी हैं। फिर सांसारिक आकर्षण में थोड़ी सी शांति पाने के लिए यहां वहां दौड़ते हैं। लेकिन कहीं शांति नहीं मिलती। हर बार लगता है कि कहीं कुछ छूट गया। क्या करें कि मन एकदम तृप्त हो जाए। वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्होंने ईश्वर से नाता जो़ड़ लिया है। उन्हें पूर्ण तृप्ति मिलती है। सभी संतों ने बताया है कि ईश्वर के यहां नियम यह है कि उससे जुड़ते ही मनुष्य सुरक्षा कवच से घिर जाता है औऱ उसे शांति का स्वाद मिलने लगता है। सारा तनाव धीरे- धीरे गायब होने लगता है। ध्यान करने वालों का कहना है कि इससे जीवन पूरी तरह रूपांतरित हो जाता है। हालत यह हो जाती है कि बिना सुबह- शाम ध्यान किए मन नहीं लगता। जब तक ध्यान नहीं करते, लगता है कि कुछ खो गया है। ईश्वर से जुड़ने का सुख ही यही है। तो क्या ध्यान ईश्वर से जुड़ने का माध्यम है? इसका उत्तर है- हां। आप जितना अधिक ध्यान करेंगे, आप उतनी ही गहराई से ईश्वर से जुड़ जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- ध्यान कैसा होना चाहिए- जैसे तेल की धार। लगातार बिना टूटे ईश्वर में ध्यान है। आप ध्यान करते समय मन ही मन प्रार्थना भी कर सकते हैं। कई लोग प्रश्न करते हैं कि हमारी प्रार्थना क्या ईश्वर सुनते हैं? सभी संत कहते हैं कि आप ज्योंही प्रार्थना करते हैं, ईश्वर का ध्यान उसकी ओर तुरंत जाता है। आप जितना अधिक ईश्वर से प्यार करेंगे, वे आपके करीब उतना ही ज्यादा आते जाएंगे। ऐसे में आपकी ग्रह दशा चाहे जो हो, ईश्वर उसमें परिवर्तन कर देते हैं। ईश्वर की कृपा के सामने सभी ग्रह- नक्षत्र अप्रभावी हो जाते हैं। बस एक ही उपाय है- ईश्वर से जुड़ जाना है।

Wednesday, May 20, 2009

आखिर दिमाग है क्या चीज?



विनय बिहारी सिंह


यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि आखिर मनुष्य का दिमाग है क्या चीज? आप जो नहीं चाहते वह भी करवा देता है और बाद में आपको अफसोस होता है। आप सुबह सोच कर उठे हैं कि आज क्रोध नहीं करना है और दोपहर तक भूल जाते हैं और किसी को कटु बोल देते हैं या किसी के साथ रूखा व्यवहार कर देते हैं। कई बार आप सोचते हैं कि आज दो ही कप चाय पीना है और किसी ने यह कह कर आपको चाय दी कि यह बहुत ही उम्दा चाय है तो आप झट से पी लेते हैं और आपका प्रण टूट जाता है। या फिर आप चाय बिल्कुल छोड़ देने का संकल्प लेते हैं और चाय है कि छूटती नहीं। चाय के बिना आपको सिरदर्द होने लगता है। चाय ही क्यों कई लोगों को तो सिगरेट और शराब तक की लत नहीं छूटती। वे कहते हैं कि क्या करें कई बार कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाता। मनोचिकित्सक कहते हैं कि यह विल पावर या आत्मबल की कमी है। जैसे ही आपका आत्मबल ताकतवर हो जाएगा, आप कोई भी लत छोड़ सकते हैं और खुद को आनंद से भरा महसूस कर सकते हैं। लत क्या है आपका बंधन ही तो है। कभी गहरे किसी लत के नुकसान के बारे में सोचिए और एक बार दृढ़ संकल्प लीजिए कि आज से यह आदत खत्म। बस खत्म तो खत्म। फिर दुबारा उसे पकड़ना नहीं है। लेकिन कई लोगों को देखा जाता है कि सिगरेट छोड़ी और खूब प्रचार किया कि मैंने सिगरेट छोड़ दी। लेकिन महीने भर बाद आप पाते हैं कि जनाब खूब सिगरेट पी रहे हैं। लत छोड़नी है तो प्रचार मत कीजिए। बस चुपचाप वह लत छोड़िए औऱ अपने मन को लगातार मजबूत करते जाइए। तो शुरू में प्रश्न था कि यह दिमाग है क्या चीज? यह दिमाग एक खास तरह की चिंतन शैली का अड्डा है जिसमें वह सब कांशस, कांशस और सुपरकांशस स्तर पर काम करता रहता है। दिमाग की भी कुछ आदतें हैं जिन्हें बदला जा सकता है। अगर किसी के मन में नकारात्मक विचारों का बाहुल्य है तो उसे धीरे- धीरे सकारात्मक विचारों को मजबूत करके दिमाग से नकारात्मक विचार निकाल देने होंगे। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए आपको अपने दिमाग मे सकारात्मक विचार रोपने औऱ पल्लवित- पुष्पित करने होंगे। कैसे? बार- बार आपके दिमाग में नकारात्मक या निगेटिव विचार आएंगे और बार- बार उन्हें खारिज करके आपको अच्छे और स्वस्थ विचार लाने और पुष्ट करने होंगे। शुरू में आपको यह मुश्किल लग सकता है। लेकिन धीरे- धीरे यह आपकी आदत में शामिल हो जाएगा और आप आनंद में रहने लगेंगे। आपका आधा तनाव और आपकी आधी परेशानी तुरंत खत्म हो जाएगी।

Tuesday, May 19, 2009

रोमांचक अमरनाथ यात्रा


बर्फीले रास्तों, ऊंची पहाड़ियों, दुर्गम रास्तों से होकर हिंदुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल अमरनाथ की यात्रा देश में सबसे कठिन यात्राओं में से एक है। जम्मू-कश्मीर में स्थित पवित्र बाबा बर्फानी (शिव जी) की गुफा दुर्गम रास्तों और प्राकृतिक कठिनाईंयों के साथ ही आतंकी खतरे के कारण भी थोड़ी मुश्किल मानी जाती है।
अमरनाथ तीर्थ 5000 साल से भी पुराना है और हिंदू संस्कृति में काफी महत्व रखता है। इस यात्रा का मुख्य केंद्र पवित्र गुफा है जहां बर्फ के शिवलिंग को यात्रा का केंद्र माना जाता है। गर्मियों के मौसम में मई से अगस्त के बीच होने वाली इस यात्रा का समापन श्रावणी पूर्णिमा को रक्षाबंधन के दिन होता है।
यह गुफा वही जगह है जहां शिव ने पार्वती को जिंदगी के गूढ़ रहस्य समझाए थे। पवित्र गुफा में खुद बननेवाले शिवलिंग के साथ ही दो और बर्फ की ऑकृतियां बनती है जो पार्वती और गणपति का प्रतीक मानी जाती हैं। हर साल होनेवाली इस यात्रा के लिए केंद्रीय पुलिस बल, सेना और अन्य बल सुरक्षा मुहैया करवाते हैं। इस धार्मिक यात्रा के प्रारंभ करने से पहले गृहमंत्रालय से विशेष अनुमति लेनी होती है।
बाबा अमरनाथ गुफा तक की चढ़ाई 14500 फीट की है जो काफी रोमांचक है।
पवित्र गुफा 3888 मीटर की उंचाई पर स्थित है, जिसका रास्ता श्रीनगर से 145 किलोमीटर है।
दर्शन का समय - जून से अगस्त
अमरनाथ यात्रा का संपूर्ण मार्ग सितंबर से जून तक बर्फ से ढंका रहता है और गुफा केवल जून से अगस्त के बीच खुलती है। यह बारिश का मौसम होता है इसलिए तीर्थयात्रियों को बारिश का मुकाबला भी करना होता है। यात्रा पैदल या फिर खच्चर और पालकी पर बैठाकर भी पूरी की जा सकती है। हर साल हजारों लोग इस यात्रा पर आते हैं। श्रीनगर में छड़ी मुबारक के साथ इस यात्रा की अगुवाई होती है।
कैसे जाएं
हवाई मार्ग से श्रीनगर नजदीकी एयरपोर्ट है, श्रीनगर से देश के सभी प्रमुख शहरों के लिए फ्लाइट मिलती हैं। श्रीनगर से अमरनाथ गुफा तक हेलिकॉप्टर द्वारा जाया जा सकता है। पैदल यात्रा करनेवाले तीर्थयात्रियों के लिए बस या फिर निजी वाहन से पहलगाम या बालटाल तक पहुंचा जा सकता है।
पहलगाम और बालटाल से पैदल यात्रा मार्ग शुरू होता है, यहीं से घोड़े खच्चर या पालकी द्वारा जाया जा सकता है। रेल मार्ग से नजदीकी रेलवे स्टेशन जम्मू है, जहां से आगे का रास्ता बस या निजी वाहन से तय किया जा सकता है।
(यह लेख मेरे सहकर्मी प्रमोद कुमार ने मेरे e- मेल par पोस्ट किया है)

Monday, May 18, 2009

प्रणव ध्वनि के साथ एकरसता

विनय बिहारी सिंह

हमारे संतों ने प्रणव ध्वनि को ईश्वर कहा है। प्रणव या ऊं को क्यों ईश्वर कहते हैं? क्योंकि यह अनहद नाद है। इसे किसी ने पैदा नहीं किया। यह शास्वत और दिव्य है। ऋषि तो बादलों की गड़गड़ाहट में, प्रकृति की झंकारों में और यहां तक कि समुद्र के गर्जन में भी ऊं ध्वनि सुनते थे। हमारे वेदों में ही नहीं, बाइबिल में भी ऊं की महिमा को बताया गया है- शब्द ही ईश्वर है। कौन सा शब्द? ऊं। संतों ने कहा है- अगर आपने ऊं के साथ तारतम्य बिठा लिया तो आपने सीधे ईश्वर के साथ तारतम्य बिठा लिया। आखिर कैसे तारतम्य बिठाएंगे? ऊं के मौन जाप से। शुरू में आप मुंह से ऊं का उच्चारण कीजिए। फिर धीमे स्वर में, फिर और धीमें स्वर में। इस तरह धीरे- धीरे उच्चारण करते हुए मौन हो जाइए। फिर मन ही मन ऊं का जाप करते रहिए। मानों आप ऊं में घुल- मिल गए। इस तरह आप खुद को शांत और तनाव रहित पाएंगे। संतों ने तो कहा ही है- ऊं में तीन शब्द हैं- अ, ऊ और म। अ- उत्पत्ति का प्रतीक है, ऊ- पोषण और म- अंत का। यानी ऊं में तीनों देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश मौजूद हैं। आखिर ये तीनों देवता- ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तो ईश्वर का ही काम कर रहे हैं। इसीलिए संतों ने कहा है- ऊं ही ईश्वर है। एक बार रामकृष्ण परमहंस से किसी ने पूछा- मैं इतना भजन करता हूं, फिर मेरा कल्याण क्यों नहीं होता? रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया- जब आप भजन करते हैं तो आपका मन कहां रहता है? उस व्यक्ति ने कहा- थोड़ी देर तो ठीक ईश्वर पर रहता है। लेकिन बाद में इधर- उधर भी चला जाता है। संत ने कहा- पूजा, ध्यान या प्रार्थना मन से किया जाता है। मन ही अगर भटक गया तो जीभ औऱ कंठ के भजन करने से क्या होगा। मानस पूजा सबसे बड़ी पूजा है।

Saturday, May 16, 2009

व्यस्तता में ईश्वर को याद कैसे रखें?



विनय बिहारी सिंह


मान लीजिए आप सुबह से भारी व्यस्त हैं। दम मारने की फुरसत नहीं है। तब आप कहेंगे कि आखिर पूजा- पाठ या ध्यान वगैरह के लिए समय कहां है? पांच मिनट भी समय मिले तब तो ईश्वर को याद करें? लेकिन इसमें भी हम ईश्वर को याद कर सकते हैं। कैसे? आप यह मान कर चलिए कि जीवन का सारा काम ईश्वर के लिए किया जा रहा है। बस आफिस, फैक्ट्री, स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी या कहीं भी आप काम कर रहे हों, उसे ईश्वर को समर्पित कर दीजिए- हे भगवान, यह काम आपको समर्पित करता हूं। यह काम आपके लिए कर रहा हूं। बस, आपकी चिंतनधारा में ईश्वर आ जाएंगे। फिर चाहे आपको अलग से ध्यान या पूजा का समय न भी मिले, आप ईश्वर से दूर नहीं रहेंगे। कई लोगों की शिकायत रहती है कि क्या करें, भोजन करने की तो फुरसत नहीं मिलती, चैन से बैठें तब तो पूजा- पाठ या ध्यान करें। लेकिन यह उपाय अपनाते ही यह समस्या हल हो जाती है। एक बार यह करके देखिए। आप ईश्वर के संपर्क में आ जाएंगे। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर को मां के रूप में पुकारने से वे जल्दी आ जाते हैं। मां को किस रूप में पुकारें? आप चाहे जिस रूप में पसंद करें- काली मां, दुर्गा मां या सरस्वती मां या फिर पार्वती मां। जैसे आप मां को पुकारते हैं ठीक उसी गहराई से, उसी तन्मयता से। इसके लिए जरूरी नहीं कि चिल्लाया ही जाए। मन ही मन जगन्माता का स्मरण बहुत कारगर साबित होता है। एक मिनट का भी खाली समय मिले तो आंख बंद कीजिए और दिल से मन ही मन पुकारिए- मां, कहां हो तुम। मुझे तुम्हारा पद, धन और ख्याति जैसे खिलौना नहीं चाहिए। मुझे तो सिर्फ तुम्हारा दर्शन चाहिए। आओ मां, दर्शन दो। कृपा करो। बस आपका काम बन जाएगा।

Friday, May 15, 2009

आखिर साइंस ने फिर मानी ध्यान से कई लाभों की बात

विनय बिहारी सिंह

यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया लास एंजिलिस (यूसीएलए) के शोधकर्ताओं के एक दल ने यह पाया है कि ध्यान करने से आपका दिमाग अत्यंत विकसित हो जाता है और व्यक्ति पाजीटिव यानी सकारात्मक सोच वाला हो जाता है। यही नहीं व्यक्ति का व्यवहार काफी संतुलित हो जाता है। वह परेशानियों में घबराता नहीं है और तनाव से तुरंत मुक्ति पा लेता है। इस शोध के लिए उन्होंने उच्च कोटि की मैग्नेटिक रिजोनेंस इमैजिंग (एमआरआई) मशीन का इस्तेमाल किया जिससे दिमाग का बारीकी से स्कैन हो सके। इस शोध दल की इलीन लूडर्स का कहना है कि ध्यान करने वालों में गजब की धैर्य शक्ति का विकास हो जाता है। ऐसे लोगों की ईश्वर में इतनी गहरी आस्था है कि वे कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विजेता बन कर उभरते हैं। उनमें प्रचंड जीवट, साहस और धैर्य है। यह शोध उन लोगों पर किया गया जो रोज १० मिनट से लेकर ९० मिनट तक ध्यान करते हैं। ऐसे लोग पिछले २४ सालों से ध्यान करते आ रहे हैं। भले ही १० या २० मिनट के लिए ही क्यों न हो। हां ध्यान में नियमितता होनी चाहिए। यह नहीं कि आज ध्यान किया और फिर दो दिन छोड़ दिया। ऐसा गैप आपकी प्रगति को धीमा कर देता है। लेकिन अगर आप रोज ध्यान करते हैं तो आपके शरीर औऱ मन पर बेहद अच्छा प्रभाव पड़ता है। लेकिन ठहरें। अगर आपका ध्यान गहरा नहीं होता तो फिर ध्यान का फायदा नहीं मिल पाता। यह एक दिन में नहीं होगा। इसके लिए लगातार अभ्यास करना पड़ेगा। धीरे- धीरे एक दिन ऐसा आएगा कि आपको ध्यान में मजा आने लगेगा। तब आप ध्यान किए बिना रह ही नहीं सकते। इसी तरह आप अभ्यास करते हुए गहरे ध्यान में उतरने लगेंगे। फिर तो आपके जीवन में आनंद ही आनंद है। आप दिनों दिन मन से मजबूत होते जाएंगे। शास्त्रों ने तो कहा ही है- मन एव मनुष्याणां, कारणं बंध मोक्षयो।। यानी मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।

Thursday, May 14, 2009

अपने केंद्र से जुड़े रहें, आनंद ही आनंद है



विनय बिहारी सिंह


एक बार रामकृष्ण परमहंस से किसी ने पूछा कि ध्यान कहां किया जाना चाहिए? तो उन्होंने उत्तर दिया- प्रसिद्ध स्थान तो हृदय है। और एक स्थान है- हमारी दोनों भौंहों के बीच का स्थान। जहां हम टीका लगाते हैं। यहां भी ध्यान कर सकते हैं। तो समाधि क्या है? अपनी चेतना का ईश्वर में लय को समाधि कहते हैं। यानी जब आप खुद को भूल कर ईश्वर में लय कर दें तो वह अवस्था समाधि हो जाती है। आपको अपना होश नहीं है। क्योंकि आप तो ईश्वर में घुल गए हैं। आप रहे कहां? जब यह समाधि टूटती है तब आप अपनी चेतना में लौटते हैं। तब ईश्वर की चेतना से आपका संपर्क टूट जाता है। लेकिन इसका असर भी देर तक रहता है। संतों ने कहा है कि अपने केंद्र से जु़ड़े रहें, वहां आपको आनंद ही आनंद मिलेगा। तो यह केंद्र कहां है? यह केंद्र है आपका हृदय। या दोनों भौहों के बीच का स्थान। तो हृदय या भौहों के बीच का स्थान हमारा अंग ही है, फिर इससे जुड़ने का सवाल कहां पैदा होता है? आप कहेंगे- यह तो अजीब बात है। जो चीज हमारा अंग है, उससे अब और किस तरह जुडेंगे? उससे तो प्राकृतिक तौर पर हम जुडे हैं। हां, यही तो बात है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- मैं सभी के हृदय में मौजूद हूं। तो क्या हम उस ईश्वर से जुड़े हुए हैं जो हमारे हृदय चक्र में मौजूद है। क्या हमारा हृदय शुद्ध रहता है? यही सोचने की जरूरत है। उसी ईश्वर रूपी केंद्र से जुड़ने के बाद हम आनंद में डूब जाते हैं। सचमुच वहां आनंद ही आनंद है। एक बार एक भक्त ने अपने गुरु से पूछा- गुरु जी, मुझे ईश्वर के दर्शन क्यों नहीं होते, मैं तो उनका भजन, कीर्तन और ध्यान वगैरह करता रहता हूं। गुरु ने उत्तर दिया- ध्यान या पूजा करने से ईश्वर नहीं मिलते। जब ध्यान अपने आप होने लगे तब ईश्वर मिलते हैं। करने और होने में फर्क है। आपका जीवन जब ध्यान का पर्याय हो जाए, पूजा का पर्याय हो जाए तो ईश्वर आपसे दूर नहीं है। ऋषि- मुनियों ने यह बार- बार कहा है।

Wednesday, May 13, 2009

फिर भी समझ में नहीं आता कि - ईश्वर ही सत्य है

विनय बिहारी सिंह

आए दिन हम लोगों का मरना देखते हैं। इनमें मित्र, परिजन और रिश्तेदार भी हो सकते हैं। लेकिन सिर्फ श्मशान में ही वैराग्य का अनुभव होता है और लगता है कि यह दुनिया तो नश्वर है। मृतक की लाश उठा कर ले जाते हुए लोग सामूहिक रूप से कहते हैं- राम- नाम, सत्य है। राम- नाम सत्य है। बंगाल में कहते हैं- हरि बोल, हरि बोल। लेकिन जैसे ही दुबारा सांसारिक आकर्षण में हम मोहित हो जाते हैं, वह वैराग्य खत्म हो जाता है। इसे कहते हैं श्मशानी वैराग्य। यानी जब मनुष्य अपनी नश्वरता का नजारा अपनी आंखों से देखता है तो उसका दिलोदिमाग कुछ देर के लिए ईश्वर की तरफ मुड़ जाता है। उसे महसूस होता है कि आदमी तो एक खास समय के लिए पृथ्वी पर आता है और अपनी भूमिका निभा कर चला जाता है। साथ में लेता जाता है अपनी अधूरी कामनाएं- वासनाएं। यही कामनाएं- वासनाएं फिर से जन्म लेने को बाध्य करती हैं औऱ फिर संसार की चक्की में पिसना पड़ता है। इसी को आदि शंकराचार्य ने कहा था- पुनरपि जन्मम, पुनरपि मरणम, जननी जठरे, पुनरपि शयनम।। हम रोज ही देखते हैं कि सूर्योदय हो रहा है, रात हो रही है। दिन बीत रहा है। हमारे जीवन की अवधि निरंतर कम होती जा रही है। लेकिन फिर भी कई लोगों का ध्यान ईश्वर की ओर नहीं जाता। कई लोग तो यह सोचते हैं कि बुढ़ापे में ईश्वर का भजन करेंगे। अभी तो मौज कर लेते हैं। लेकिन संतों ने कहा है- हम भोगों को नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं। एक उम्र के बाद हमारा शरीर सूक्ष्म तरीके से क्षीण होने लग जाता है। तब कई लोग कहते हैं कि- भाई यह शरीर तो नश्वर है। इस पर भरोसा क्या करना है। बाल तो पकेंगे ही, शरीर पर झुर्रियां तो पडे़गी ही। लेकिन फिर भी ईश्वर की तरफ कई लोगों का मन नहीं जाता। जहां पूजा- पाठ या ध्यान की बात आती है तो उनका मन ऊबने लगता है। वे तुरंत पूजा- पाठ की बात को टाल जाते हैं और कुछ अन्य बातों, जो उनके लिए मनोरंजक होती हैं, में रुचि लेने लगते हैं। लेकिन हर उम्र के ऐसे भी लोग हैं जो ईश्वर की पूजा और ध्यान और भजन वगैरह को सबसे ज्यादा मनोरंजक मानते हैं। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो अगर पूजा- पाठ न करें, या हनुमान चालीसा का पाठ न करे या ध्यान न करें तो उन्हें लगता है कि कुछ खो गया। उन्हें पूरा दिन नीरस लगता है। ऐसे लोग भाग्यशाली होते हैं। जिनका ईश्वर से अनुराग हो गया, भगवान से प्रेम हो गया, उनसे बढ़ कर भाग्यशाली और कौन है? तुलसीदास ने तो यहां तक कह दिया है-जाके प्रिय न राम वैदेहीतजिए ताहि कोटि वैरी समयद्यपि परम सनेही।।

Tuesday, May 12, 2009

हमारी दो आँखों के बीच कोई ढाई इंच की दूरी



ममता गुप्ता और महबूब ख़ानबीबीसी संवाददाता, लंदन

ज़रा सोचकर देखिए कि अगर हम दोनों आँखों से दो अलग-अलग चीज़ें देखते तो कितनी मुश्किल होती है. ये तो आप जानते ही हैं कि हमारी दो आँखों के बीच कोई ढाई इंच की दूरी है. ये दोनों आँखें, किसी भी वस्तु को ज़रा से अलग कोण से देखती हैं. आज़माइश के लिए एक फूल को अपने सामने रखकर पहले एक आँख से देखिए और फिर दूसरी से. दाहिनी आँख, फूल के दाहिने हिस्से को अधिक देखती है जबकि बाईं आँख फूल के बाएँ हिस्से को. अगर दोनों छवियों को एक के ऊपर एक रखा जाए तो वह धुंधली दिखाई देगी. लेकिन जब हमारे मस्तिष्क में ये अलग-अलग छवियाँ जाती हैं तो वह एक त्रिआयामी छवि तैयार करती हैं. यानी दो आँखों की वजह से हमें वस्तु की गहराई दिखाई देती है. इसलिए दो आँखो से हमें बेहतर दिखाई देता है.
पद्मासन में बैठ कर साधना करने से क्या लाभ होता है. यह सवाल किया है नयाटोला कटिहार बिहार से कुलदीप कुमार साहा ने.
योग साधना का उद्देश्य है ध्यान और आप ध्यान तभी कर पाएंगे जब आप मानसिक और शारीरिक रूप से स्थिरता प्राप्त कर लें. महर्षि पतंजलि ने आसन की परिभाषा देते हुए कहा है स्थिरं सुखम आसनम. अर्थात आसन ऐसा होना चाहिए जिसमें स्थिरता हो और सुख का अनुभव किया जा सके. पद्मासन एक श्रेष्ठ और ध्यानात्मक आसन है. इसमें दोनों पैरों के तलवे को जंघा के ऊपर रखते हैं, रीढ़ को सीधा रखते हैं और दोनों हथेलियों को घुटनों पर रखा जाता है. साधना की दृष्टि से आंखे बंद रखना चाहिए और अपना ध्यान भ्रू मध्य में लगाकर रखना चाहिए. पूर्ण अभ्यास हो जाने पर स्थिरता, शांति और आनन्द का अनुभव होगा और ध्यान केन्द्रित होता चला जाएगा. लेकिन पद्मासन पर विजय पाना कोई एक दिन का खेल नहीं है. साधना की दृष्टि से इसका नियमित अभ्यास करें तो साल भर में सक्षम हो सकते हैं. हां योग गुरु की आज्ञा के बिना कोई भी आसन न करें. पद्मासन से हमारे अतिसूक्ष्म प्राण ऊर्द्धगामी हो जाते हैं यानि प्राण मूलाधार चक्र जो रीढ़ के मूल में है से लेकर हमारे सिर तक प्रवाहित होते हैं और हम ध्यान की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं. जिन्हें साइटिका या कमर दर्द है तो इसका अभ्यास न करें और अगर घुटने कमज़ोर हैं या जोड़ों में दर्द रहता है तो दूसरे योगाभ्यास करके उन्हे पहले सक्षम बना लें. (बीबीसी से साभार)

केदारनाथ के दर्शन

किस्मत वालों को ही श्री केदारनाथ के दर्शन हो पाते हैं। जिस किसी ने भी बैल की पीठ के स्वरूप में विराजमान महादेव का दर्शन कर लिया, वह धन्य हो गया! श्रीकेदारनाथका मंदिर 3593फीट की ऊंचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर इस मंदिर को कैसे बनाया गया, इसकी कल्पना आज भी नहीं की जा सकती है! यह मंदिर एक छह फीट ऊंचे चौकोरप्लेटफार्म पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हां ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने की। मंदिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगोंमें से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिंड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं। पंचकेदारकी कथा ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के शाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत:भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का हिस्सा पकड लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढसंकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजेजाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतध्र्यान हुए, तो उनके धड से ऊपर का हिस्सा काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथका मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथमें, नाभि मदमदेश्वरमें और जटा कल्पेश्वरमें प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदारकहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं। यात्रा का संदेशदृढसंकल्प, आत्मविश्वास और परिश्रम के अभाव में श्री केदारनाथ की दुर्गम पथरीलीराह पर चढाई संभव नहीं है। वास्तव में, यह यात्रा स्वर्गीय आनंद का स्त्रोत है। यहां न केवल मनोहर दृश्यावलियोंको सतत निहारने का आनंद मिलता है, बल्कि यह संदेश भी मिलता है कि संकट के रास्तों पर चले बिना सफलता के पुष्प नहीं खिल सकते हैं। भगवान शंकर भले ही भोलेनाथहों, लेकिन उन्होंने भ्रातृहत्या के लिए पांडवों को सहज ही क्षमा नहीं कर दिया। भक्तों की निर्मल भक्ति के आगे भले ही भगवान झुके हों, लेकिन उन्होंने बार-बार अंतध्र्यान हो कर, यह संदेश दे दिया कि वे व्यर्थ की हिंसा को पसंद नहीं करते। पांडव भगवान शंकर से क्षमा प्राप्त कर बदरीधामकी ओर गए, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग प्रशस्त हुआ। अत:हम कह सकते हैं कि हिमालय का क्षेत्र देवलोक के समान है, जहां से स्वर्गारोहण का मार्ग खुलता है। इसलिए श्री केदारनाथ की यात्रा तप और साधना के समान है, जो हमें ईश्वर की गरिमा-महिमा का दर्शन कराकर आनंद से भर देती है। -[सत्यनारायण भटनागर]

Monday, May 11, 2009

मन को कैसे चमकाएं



विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- जैसे लोटे को रोज मांजना पड़ता है, चमकाना पड़ता है, उसी तरह अपने मन को भी साफ- सुथरा करना पड़ता है, वरना उस पर गंदा पड़ता जाएगा और उसका आकर्षण खत्म हो जाएगा। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि जैसे साफ कपड़े पहन कर हम बेहतर अनुभव करते हैं। अच्छा खाना खा कर हमारा मन आनंदित हो जाता है, ठीक वैसे ही मन की अच्छी सफाई हो तो मनुष्य भीतर से प्रफुल्लित हो जाता है। उसे गहरी शांति मिलती है। किसी ने उनसे पूछा कि मन की सफाई कैसे हो? तो उन्होंने कहा- थोड़ी देर एकांत में चुपचाप बैठिए और मान लीजिए की इस दुनिया- जहान और झंझटों से आपको कोई मतलब नहीं है। आप तो बस ईश्वर के बेटे हैं। आप ईश्वरीय आनंद में डूबे रहिए। पांच मिनट, दस मिनट या तीन मिनट भी अगर आप इसे करते हैं तो आपको भारी राहत मिलेगी। सबसे बड़ी चीज है ईश्वर से प्रेम। घृणा का जवाब घृणा से मिलता है और प्रेम का जवाब प्रेम से मिलता है। इसीलिए तो कबीर दास ने कहा है-प्रेम न खेतो नीपजेप्रेम न हाट बिकाय प्रेम न खेत में पैदा होता है और न बाजार में बिकता है। प्रेम तो आपके भीतर पैदा होता है। वह जबर्दस्ती तो पैदा ही नहीं किया जा सकता। वह अपने आप ही पैदा हो जाता है। तो ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे हो? उसे तो आपने देखा नहीं है? इसका जवाब है- पैदा होने के पहले आप कहां थे? और मरने के बाद आप कहां जाएंगे? यह जो बीच के समय में इस पृथ्वी पर रह रहे हैं, यहां भी आपकी सांसें निश्चित हैं। एक निश्चित संख्या में आपने सांस पूरी कर ली, बस आपका बुलावा किसी दूसरे लोक के लिए हो जाएगा। यह चमत्कार किसका है?? निश्चित रूप से ईश्वर का ही है। इसलिए ईश्वर हमसे प्रेम करता ही है। हमारे पैदा होने पर माता की देह में दूध पैदा कर देता है। हम वह पीकर बड़े होते हैं और बड़ा- बड़ा ग्यान बघारते हैं। फिर अंत में हमारी सांस खत्म हो जाती है और हमारा शरीर मुर्दा हो जाता है। तब हमारी सारी हेकड़ी कहां चली जाती है? ईश्वर हमें प्रेम करता है मां- बाप के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, मित्र के रूप में, एक रोगी को सहानुभूति और दवा के रूप में। भूखे के पास वह भोजन के रूप में आता है। करने वाला वही है। हम नाहक घमंड कर बैठते हैं कि हमने यह किया, वह किया।

Saturday, May 9, 2009

शुद्ध हृदय हो तो ईश्वर का पल- पल अहसास

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि शुद्ध हृदय हो तो ईश्वर के होने का पल- पल अहसास होता है। लेकिन अगर हृदय अशुद्ध है तो यकीन ही नहीं होता कि ईश्वर है। एक बार एक संत कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर निकले थे। उन दिनों वहां जाने के लिए वीसा या स्वास्थ्य प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी। रास्ते में एक व्यक्ति ने पूछा- महाराज, ईश्वर तो आपके दिल में रहता है। फिर आप कैलाश मानसरोवर क्यों जा रहे हैं? तब संत ने जवाब दिया- हवा तो हर जगह है, फिर लोग पंखा क्यों झलते हैं? वह आदमी समझ गया। कुछ खास जगहों पर ईश्वर का स्पंदन बहुत ज्यादा होता है। अगर कोई ग्रहणशील व्यक्ति हो तो वह ईश्वर की गहरी अनुभूति कर सकता है।

हम जीते किस लिए हैं?

विनय बिहारी सिंह

कई बार जब दिमाग शांत होता है तो क्या यह सवाल नहीं उठता कि हम जीते किस लिए हैं? जी हां। आखिर इस दुनिया में हम क्यों आए? क्या खाने, सोने और मनोरंजन करने के लिए? या फिर हाय, हाय करके धन कमाने के लिए? मकसद क्या है हमारे जीवन का? आप कहेंगे- सुख पाना। लेकिन अगर आपके पास सौ करोड़ रुपए हो जाएं, सुख के सारे साधन उपलब्ध हो जाएं तो आप सुखी हो जाएंगे? आप कहेंगे- पहले देकर तो देखिए। मुझे लगता है कि कुछ दिन के लिए भले ही हम सारे सुख पाकर आनंद में आ जाएं लेकिन यह स्थाई सुख नहीं होगा। संतों ने ठीक ही कहा है कि इंद्रियों का सुख क्षणिक होता है। एक बेहद आरामदेह सोफे पर आप बैठ कर बहुत सुख अनुभव करते हैं लेकिन जब दिन रात उसी सोफे पर बैठना हो तो वह सुख कम होता जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि आपको वह सोफा सामान्य सुख वाला लगने लगता है। ऐसा क्यों? क्योंकि इंद्रियों का सुख हमेशा अस्थाई होता है। संतों ने ठीक ही कहा है कि बचपन से हमें इंद्रिय सुख ही सिखाया जाता है। कुछ लोगों को तो जीवन भर यह पता नहीं चल पाता कि इंद्रिय सुख के अलावा भी कोई सुख है जो कभी कम नहीं होता। कभी घटता नहीं है। हमेशा बढ़ता जाता है। आखिर वह कौन सा सुख है? वह सुख है- ईश्वर का सुख। जी हां, ईश्वर से प्रेम करके देखिए- आपको नित नवीन आनंद मिलेगा। यह आनंद अनंत मात्रा का और अनंत समय के लिए होगा। तो ईश्वर के साथ कैसे प्रेम करें? बस हमेशा यही याद रखना है कि ईश्वर ने हमें जन्म दिया है और वही हमारा जीवन चला रहा है। औऱ जब हमारा अंत होगा तो हम ईश्वर में ही मिल जाएंगे। जब हर स्थिति में हम ईश्वर के ही अधीन हैं तो क्यों न हम ईश्वर की ही शरण में जाएं। हमेशा यह याद रखें कि ईश्वर हमारे साथ है। हमारी रक्षा कर रहा है। एक बार ईश्वर पर भरोसा करके तो देखिए। कितना सुरक्षित हो जाते हैं आप। लेकिन हम तो मनुष्य में विश्वास करते हैं, किसी यंत्र पर भरोसा करते हैं लेकिन ईश्वर पर नहीं करते। दरअसल हमारा दिमाग इतना कंडीशंड हो गया है कि हम घूम- फिर कर वहां विश्वास करते हैं जहां से हमें कोई सुरक्षा नहीं मिलती। यह हमारा भ्रम है। एकमात्र हमारी रक्षा भगवान ही कर सकते हैं क्योंकि हम उन्हीं की गोद में बैठे हैं। तो प्रश्न था कि हम जीते क्यों हैं? तो जवाब है- ईश्वर से प्रेम करने के लिए। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हमारा जन्म होता है और इसीलिए हम जीते हैं। आपका प्रेम ईश्वर से जैसे- जैसे बढ़ता जाएगा, आपके जीवन की मुश्किलें उसी अनुपात में घटती जाएंगी या खत्म होती जाएंगी। तो इसलिए जीते हैं कि ईश्वर से करीब होते जाएं। अगर हम इस मकसद से भटक गए हैं और किसी और चीज के लिए जी रहे हैं तो हमारी क्षुधा कभी शांत नहीं होने वाली। हमारे मन का असंतोष कभी खत्म नहीं होगा। हमारा दुख जस का तस रहेगा। लेकिन जैसे ही हम ईश्वर से प्रेम करने लगेंगे, बस सारे दुखों और परेशानियों का अंत हो जाएगा। आप हमेशा आनंद के सागर में हिलोरें लगाएंगे। एक बार ईश्वर से प्रेम करके तो देखिए।

Friday, May 8, 2009

वल्लभाचार्य


भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्रीवल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें वैश्वानरावतार [अग्नि का अवतार] कहा गया है। वे वेदशास्त्र में पारंगत थे।
श्री रूद्रसंप्रदाय के श्रीविल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमन्त्र की दीक्षा दी गई। त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेवभट्टजीकी कन्या- महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथ व श्रीविट्ठलनाथ। भगवत्प्रेरणा वश व्रज में गोकुल पहुंचे, और उसके बाद व्रजक्षेत्र स्थित गोव‌र्द्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से संवत् 1576 में श्रीनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण कराया। वहां विशिष्ट सेवा-पद्धति के साथ लीला-गान के अंतर्गत श्रीराधाकृष्ण की मधुर लीलाओं से संबंधित रसमय पदों की स्वर-लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते।
श्रीवल्लभाचार्यजी के मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्त्‍‌व हैं- ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं-आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनंत दिव्य गुणों से युक्त पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनंद के आविर्भाव का स्त्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म की लीला का विलास है। संपूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्म-कृति है।
जीवों के तीन प्रकार हैं- पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं), मर्यादा जीव [जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते हैं] और प्रवाह जीव [जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखोंकी प्राप्ति हेतु सतत् चेष्टारतरहते हैं]।
भगवान् श्रीकृष्ण भक्तों के निमित्त व्यापी वैकुण्ठ में [जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थित है] नित्य क्रीडाएं करते हैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है- गोलोक, जिसमें यमुना, वृन्दावन, निकुंज व गोपियां सभी नित्य विद्यमान हैं। भगवद्सेवा के माध्यम से वहां भगवान की नित्य लीला-सृष्टि में प्रवेश ही जीव की सर्वोत्तम गति है।
प्रेमलक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवान की कृपा से ही संभव है। महाप्रभु वल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग [अनुग्रह मार्ग] का यही आधारभूत सिद्धांत है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं-प्रेम, आसक्ति और व्यसन। मर्यादा-भक्ति में भगवद्प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किंतु पुष्टि-भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद्कृपाका आश्रय होता है। मर्यादा-भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि-भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। पुष्टिमार्गीय जीव की सृष्टि भगवत्सेवार्थ ही है- भगवद्रूप सेवार्थ तत्सृष्टिर्नान्यथाभवेत्। प्रेमपूर्वक भगवत्सेवाभक्ति का यथार्थ स्वरूप है- भक्ति व प्रेम पूर्वक सेवा। भागवतीय आधार (कृष्णस्तु भगवान् स्वयं) पर भगवान कृष्ण ही सदा सर्वदा सेव्य, स्मरणीय तथा कीर्तनीय हैं- सर्वदा सर्वभावेनभजनीयोब्रजाधिप:।..तस्मात्सर्वात्मना नित्यंश्रीकृष्ण: शरणंमम।
ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का संबंध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश [सद् अंश] है, जगत् भी ब्रह्म का अंश है। अंश एवं अंशी में भेद न होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अंतर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनंदांश आवृत्त रहता है, जबकि जड जगत में इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत्त रहते हैं।
श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्रीवल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया [जिसके मूल प्रवर्तकाचार्यश्री विष्णुस्वामीजीहैं]।
वल्लभाचार्यजी के चौरासी शिष्यों में अष्टछापक विगण- भक्त सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदासव परमानन्द दास प्रमुख थे। श्री अवधूतदास नामक परमहंस शिष्य भी थे। सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजी के मन्दिर की की‌र्त्तन-सेवासौंपी। तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया- श्रीवल्लभगुरू तत्त्‍‌व सुनायोलीला-भेद बतायो [सूरसारावली]। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है- भरोसो दृढ इन चरननकेरो। श्रीवल्लभ-नख-चन्द-छटा बिनुसब जग मांझअधेरो॥श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्तकुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पडे रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म -निवेदन -मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया। उनका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ है- अणुभाष्य [ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा]।अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं- पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवत के दशम स्कन्ध पर सुबोधिनी टीका, तत्त्‍‌वदीप निबन्ध एवं पुष्टि -प्रवाह- मर्यादा। संवत् 1587,आषाढ शुक्ल तृतीया को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया। वैष्णव समुदाय उनका चिरऋणी है। [डा. मुमुक्षु दीक्षित]

मन चंगा तो कठौती में गंगा

मन चंगा तो कठौती में गंगा

यह वाक्य रविदास ने कहा था । हिंदू धर्म कहता है कि आप जात-पाँत से बड़े या छोटे नहीं होते। मन, वचन और कर्म से बड़े या छोटे होते हैं। संत शिरोमणि रविदास जात से मोची थे, लेकिन मन, कर्म और वचन से ब्राह्मण। जो ब्रह्म को जानने में उत्सुक है वही ब्राह्मण। कार्य ही ध्यान है: संत कवि रविदास कबीर के गुरु भाई थे। गुरु भाई अर्थात दोनों के गुरु स्वामी रामानंद थे। लगभग छह सौ साल पूर्व काशी में उनका जन्म हुआ था। चर्मकार कुल में जन्म लेने के कारण जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था। इस व्यवसाय को ही उन्होंने ध्यान विधि बना डाला। कार्य कैसा भी हो यदि आप उसे ही परमात्मा का ध्यान बना लें तो मोक्ष आसान हो जाता है। रविदासजी अपना काम पूरी लगन और ध्यान से करते थे। इस काम में उन्हें इतना आनंद मिलता था कि वे बिना मूल्य लिए ही जूते भेंट कर देते थे। मानो किसी परमात्मा के लिए जूते बनाए हैं तो फिर मूल्य क्या। मूल्य मोक्ष से कम नहीं।मन चंगा तो कठौती में गंगा :उनसे एक बार किसी ने गंगा स्नान करने के लिए चलने को कहा तो उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे आज ही किसी को जूते बनाकर देना है। यदि नहीं दे पाया तो वचन भंग हो जाएगा। रविदास के इस तरह के उच्च आदर्श और उनकी वाणी, भक्ति एवं अलौकिक शक्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानियों, साधुओं तथा विद्वज्जनों ने उनको सम्मान दिया है।उनकी इस साधुता को देखकर संत कबीर ने कहा था कि साधु में रविदास संत हैं, सुपात्र ऋषि सो मानियाँ।रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई धुनों में भजन बने हैं। जैसे- प्रभुजी तुम चंदन हम पानी- इस प्रसिद्ध भजन को सभी जानते हैं।

Thursday, May 7, 2009

क्या हैं सूक्ष्म शक्तियां

विनय बिहारी सिंह

सूक्ष्म शक्तियां आखिर हैं क्या? इसे ही माइंड पावर कहा जाता है। यानी अपने मन को पूरी तरह एकाग्रचित्त करके उसे नियंत्रित कर लेना। मन कैसे एकाग्रचित्त होगा? मन को आप ईश्वर के किसी रूप पर एकाग्रचित्त करें। जैसे- भगवान शिव पर या राम या कृष्ण भगवान पर या दुर्गा मां पर या काली मां पर या हनुमान जी पर। फिर उनके नाम का जप, या रूप, गुण, महिमा वगैरह का स्मरण करते हुए मन को उन्हीं में लय कर देना। जैसे आप उस देवता से एकाकार हो गए हों। यह है ध्यान। जब ध्यान लग जाए और मन इधर- उधर न भटके तो आप इससे एक कदम आगे बढ़ें। कोई सकारात्मक काम करना चाहें तो उस काम को लेकर मन को दृढ़ करें कि वह काम हो रहा है और अवश्य पूरा होगा। आप देखिए कि ऐसा कुछ दिनों तक करने से आपका वह सकारात्मक काम हो ही जाएगा। मन का संकल्प दृढ़ हो तो कोई भी अच्छा काम किया जा सकता है। हां, लेकिन मन इधर- उधर नहीं भटकना चाहिए। अगर भटके तो उसे बार- बार खींच कर उसी देवता या देवी पर केंद्रित करते रहें। एक दिन ऐसा आएगा कि आपका मन भटकेगा ही नहीं। जब मन भटकना बंद हो जाता है तो आपकी सूक्ष्म शक्तियां जागृत होने लगती हैं। मैं एक ऐसे मरीज को जानता हूं जिनकी किडनी खराब हो चुकी है और डाक्टरों ने उन्हें डायलिसिस पर रखने की सलाह दी है। लेकिन उन्होंने डायलिसिस लेने से इंकार कर दिया और सिर्फ माइंड पावर से ही खुद को स्वस्थ कर लिया। उनके हृदय का आपरेशन भी हो चुका है। पर वे माइंड पावर का इस्तेमाल कर खुद को लगातार ऊर्जावान और आशावादी बनाए रखते हैं। किडनी की इस हालत में ही उन्होंने मेरे साथ ५०० मीटर एक पहाड़ की चढ़ाई की। उनकी उम्र ६५ साल है फिर भी वे माइंड पावर के कारण खुद को युवा महसूस करते हैं। वे अत्यंत धार्मिक व्यक्ति हैं और हर रोज सुबह- शाम ध्यान करते हैं। आपको एक बार ध्यान करने का अभ्यास हो जाए तो फिर और किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। ऊपर लिखा जा चुका है कि ध्यान किस तरह करें। बस अब बिना किसी आलस्य के जितनी जल्दी शुरू हो सुबह- शाम ध्यान करना शुरू कर दें। चाहे यह ध्यान ५ मिनट का ही क्यों न हो। धीरे- धीरे ध्यान की अवधि बढ़ा सकते हैं। कुछ अच्छे स्कूलों में तो ध्यान की भी कक्षाएं चलाई जाती हैं। कुछ जगहों पर हफ्ते में एक दिन की ध्यान कक्षाएं आयोजित की जाती हैं। लेकिन आप जब जागें, तभी सवेरा। ईश्वर के साथ संबंध जोड़ने में कभी देर नहीं होती। ऐसे भी अनेक साधक हैं जो ५५ साल की उम्र से ध्यान शुरू करते हैं औऱ पांच सालों के भीतर ही इतनी उन्नति कर लेते हैं कि लोग आश्यर्य में पड़ जाते हैं। मन की एकाग्रता के बारे में कहा जाता है कि जैसे लेंस के जरिए कागज पर सूर्य की किरणें एकाग्र करके डालने पर कागज जलने लगता है, उसी तरह मन को एकाग्र करके ईश्वर को पुकारने से वे आपको आपकी इच्छित वस्तु अवश्य देते हैं। बशर्ते कि वह चीज आपके जीवन के लिए आवश्यक हो।

Wednesday, May 6, 2009

ईश्वर तो दिखाई नहीं देते, कैसे मानें कि वे हैं

विनय बिहारी सिंह

अक्सर कई लोग सवाल करते हैं कि कहां है ईश्वर? वे तो दिखाई नहीं देते। फिर हम कैसे मानें कि ईश्वर का अस्तित्व है? शुरू के दिनों में स्वामी विवेकानंद ने भी अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से कहा था- ईश्वर- फीश्वर कुछ नहीं है। मुझे तो ईश्वर का अनुभव ही नहीं होता। तब रामकृष्ण परमहंस खूब हंसे थे। वे जानते थे- यही विवेकानंद एक दिन दुनिया भर में घूम घूम कर ईश्वर से प्रेम करने को कहेंगे। वही हुआ। एक बार किसी ने एक संत से पूछा- कैसे मानें कि ईश्वर हैं? संत ने जवाब दिया- आप कौन हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- मैं एक दफ्तर में क्लर्क हूं। संत ने कहा- नहीं। मैं आपका पद या नाम या हैसियत के बारे में नहीं पूछ रहा हूं। आप खुद को क्या समझते हैं? उस आदमी ने जवाब दिया- मैं मनुष्य हूं। संत मुस्कराए। उन्होंने कहा- आप एक जीव हैं। इस ब्रह्मांड में आप ही की तरह अरबों- खरबों जीव रहते हैं। उन्हें कौन नियंत्रित करता है? और यह जो चांद- तारे और ब्रह्मांड की सूक्ष्म और प्रकट गतिविधियां हैं, उन्हें कौन नियंत्रित करता है? उस आदमी ने जवाब दिया- जरूर कोई बहुत बड़ी शक्ति है, जो नियंत्रित करती है। संत ने कहा- उसी बड़ी शक्ति को हम ईश्वर कहते हैं। उस आदमी ने प्रश्न पूछा- क्या हम ईश्वर को देख सकते हैं? संत ने कहा- जरूर। उस आदमी ने पूछा- कैसे? संत ने कहा- जब आपके भीतर उसे देखने की प्रबल इच्छा पैदा होगी और दिन- रात आप उससे प्रार्थना करेंगे कि- दर्शन दीजिए भगवन, दर्शन दीजिए। आपके बिना कुछ अच्छा नहीं लगता। जब ईश्वर को यह विश्वास हो जाएगा कि आप उसके अलावा और कुछ नहीं चाहते तो वे दर्शन देंगे। लेकिन होता यह है कि हम ईश्वर के बदले घर, कार, धन और ख्याति चाहते हैं। ईश्वर को सबसे अंत में चाहते हैं। तब तो बात नहीं बनेगी। परमहंस योगानंद जी कहते थे- भक्त को बिल्कुल बच्चे की तरह रोना पड़ेगा तब जगन्माता दर्शन देंगी। जब तक उन्हें यह नहीं पता चलेगा कि अमुक भक्त उनके अलावा कुछ नहीं चाहते, तब वे अपने आप दर्शन देंगे। उस आदमी ने पूछा- ईश्वर छुपे हुए क्यों रहते हैं? संत ने कहा- वे चाहते हैं कि उनके बच्चे यानी हम उन्हें खोजें। इसीलिए वे छुपाछुपी का खेल खेलते हैं। सच्चाई यह है कि वही हमारे सबकुछ हैं। वही हमारे माता, पिता, बंधु और मालिक हैं। लेकिन रहते हैं छुप कर। आप उन्हें दिल से पुकारिए, वे आज नहीं तो कल जरूर दर्शन देंगे। लेकिन अगर आपके मन में तनिक भी शंका है कि प्रार्थना तो कर रहा हूं, पता नहीं ईश्वर दर्शन देंगे कि नहीं तो आपको वे दर्शन नहीं देंगे। उन्हें तो बस निश्छल, दृढ़ और गहरी श्रद्धा चाहिए। जहां किसी भक्त ने उन्हें गहरा प्रेम दिया, वे तुरंत उस भक्त के पास आ जाते हैं। वे कहते हैं- भक्त हमारे, हम भक्तन के। लेकिन गहरा प्रेम कैसे हो? गहरा प्रेम तभी होगा जब आप ईश्वर के प्रेम को समझेंगे। कैसे? आप आप उनसे आठ आना प्रेम करेंगे तो वे आपसे १६ आना प्रेम करेंगे। आप उनसे एक पैसा प्रेम करेंगे तो वे आपसे उसके दो गुना प्रेम करेंगे। यही ईश्वर का नियम है। क्यों न हम ईश्वर से प्रेम करें और उसके प्रेम की अतल गहराई में डूबते जाएं?

Tuesday, May 5, 2009

पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात


विनय बिहारी सिंह

हमारा स्वागत करने के लिए जो सबसे पहले तैयार रहता है, उसका नाम है- तनाव। संतों ने कहा है- जब हम तनाव को महत्व देने लगते हैं यानी तनाव को बनाए रखते हैं तो वह हमें औऱ ज्यादा सताने लगता है। तो उपाय क्या है? आप तनाव को अपने भीतर ठहरने ही मत दीजिए। जिस कारण से तनाव आया है, उसे दूर करने की पूरी ईमानदारी से कोशिश कीजिए। वैग्यानिकों का कहना है कि तनाव कहीं ठहरने की जगह तलाशता है। जहां आपने उसे थोड़ा सा अपने भीतर ठहरने का मौका दिया कि बस वह वहीं अपना महल खड़ा कर लेगा औऱ आपको दिन- रात, बात- बेबात परेशान करता रहेगा। आप जितना अधिक उसकी पकड़ में रहेंगे, वह उतना ही खुश। इसीलिए संतों ने कहा है- ध्यान कीजिए और यह सोचना छोड़ दीजिए कि आप सब कुछ कर सकते हैं। नहीं। जीवन का भार ईश्वर पर छोड़ना सीखिए। देखिए आप कितना हल्का महसूस करेंगे। इसका अर्थ यह नहीं कि गलत काम करके उसे ईश्वर के हवाले कर दीजिए। लेकिन हां, कई बार समझ में नहीं आता कि अमुक परिस्थिति में क्या करें। ऐसे में ईश्वर की मदद लेना बहुत अच्छा है। एक संत कवि ने कहा है - पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। यानी मनुष्य क्या है? जैसे पानी का बुलबुला। कब बुलबुला फूट जाए और उसका अस्तित्व समाप्त हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर दुबारा यह बुलबुला इस शक्ल में नहीं पैदा होगा। तब शक्ल भी दूसरी होगी, परिवार, मित्र और सगे- संबंधी भी अलग होंगे। इस बुलबुले की एक उम्र है, नाम है, रंग- रूप है और पहचान है। परमहंस योगानंद ने एक भजन में कहा है- ऐसा कर दे भगवन, मैं और तू कभी न बिछड़ें, सागर की लहर सागर में मिला, मैं हूं बुलबुला मुझे सागर बना। यह है हमारी औकात। फिर हाय- हाय क्यों? तनाव क्यों? क्यों न शांत हो कर हम अपनी ड्यूटी करते जाएँ। चाहे वह ड्यूटी घर- परिवार के प्रति हो या आफिस या कारोबार के प्रति। सब कुछ ईश्वर को सौंप दीजिए। बस छुट्टी। अब खूब मेहनत कीजिए और ईश्वर को धन्यवाद देते रहिए। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- एक हाथ से संसार का काम करते रहना चाहिए औऱ दूसरे हाथ से ईश्वर को पकड़े रहना चाहिए। तभी कल्याण है।

Monday, May 4, 2009

देवी दुर्गा के नौ रूप


नवरात्र का समय तो बीत गया। लेकिन देवी दुर्गा के रूपों के बारे में जानकारी चाहने वालों की उत्सुकता बढ़ती जा रही है। आइए आज उसे ही जानें।चैत्र मास की प्रतिपदा के दिन से ही नवरात्र, यानी देवी दुर्गा की पूजा शुरू हो जाती है। यह त्योहार भारत भर में पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है। इसमें देवी दुर्गा यानी शक्ति के नौ रूपों की पूजा की जाती है। शैलपुत्री: नवरात्र के पहले दिन शैलपुत्रीकी पूजा की जाती है। शैल का अर्थ पहाड होता है। धार्मिक कथाओं के अनुसार, पार्वती पहाडों के राजा हिमवान की पुत्री थीं, इसलिए उन्हें शैलपुत्री भी कहा जाता है। उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल का फूल है। ब्रह्मचारिणी : देवी दुर्गा ने इस रूप में एक हाथ में जल-कलश धारण किया है, तो दूसरे हाथ में गुलाब की माला। ब्रह्मचारिणी को विद्या और बुद्धि की देवी माना जाता है। देवी रुद्राक्ष की माला धारण करना पसंद करती हैं। चंद्रघंटा: नवरात्रके तीसरे दिन देवी चंद्रघंटा की पूजा की जाती है। देवी के इस रूप में दस हाथ और तीन आंखें हैं। आठ हाथों में शस्त्र हैं, तो दो हाथ भक्तों को आशीर्वाद देने की मुद्रा में हैं। देवी के इस रूप की पूजा कांचीपुरम [तमिलनाडु] में की जाती है। कूष्मांडा: देवी का यह रूप बाघ पर सवार है। इनकी दस भुजाएं हैं, जिनमें न केवल शस्त्र, बल्कि फूल माला भी सुसज्जित हैं। स्कंदमाता:देवी इस रूप में बाघ पर सवार हैं और अपने पुत्र स्कंद को भी साथ लिए हुई हैं। इस मुद्रा में वे दुष्टों का संहार करने को आतुर दिखाई देती हैं। कहते हैं कि कवि कालीदासने मेघदूतऔर रघुवंश महाकाव्य की रचना देवी स्कंदमाताके आशीर्वाद से ही की थी। कात्यायनी : देवी दुर्गा ने ऋषि कात्यायन के आश्रम में तपस्या की थी, इसलिए उनका नाम कात्यायनी पडा। कालरात्रि : नवरात्रपूजा के सातवें दिन देवी कालरात्रि की पूजा होती है। इस रूप में देवी गधे पर सवार हैं और उनके बाल बिखरे हुए हैं। यह देवी अज्ञानता के अंधकार को मिटाने वाली मानी जाती हैं। कलकत्ता में देवी कालरात्रि की सिद्धि-पीठ है। महागौरी: गौर वर्ण वाली देवी सफेद साडी धारण किए हुई हैं। उनके चेहरे पर दया और करुणाका भाव है। उनके हाथ में डमरू और त्रिशूल भी है। हरिद्वार के कनखल में महागौरी का ख्याति प्राप्त मंदिर है। सिद्धिदात्री: देवी इस रूप में कमल पर सवार हैं। ऐसा माना जाता है कि देवी का यह रूप यदि भक्तों पर प्रसन्न हो जाता है, तो उसे 26 वरदान मिलते हैं। हिमालय के नंदा पर्वत पर सिद्धिदात्री का पवित्र तीर्थस्थान है।

Saturday, May 2, 2009

आनंददायक अनुभूति वाली तंत्रिकाएँ


हमारा शरीर किस तरह से आनंददायक स्पर्श के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त करता है इस बारे में वैज्ञानिकों को नई जानकारी मिली है. वैज्ञानिकों के एक दल ने त्वचा में मौजूद ऐसे स्नायुओं का पता लगाया है जो विशेष रूप से आनंददायक अनुभूतियों को हमारे मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं. इसमें यूनीलिवर कंपनी के वैज्ञानिक भी शामिल हैं.. आनंददायक अनुभूति को जागृत करने के लिए आदमी के शरीर को एक सेकेंड में चार-पाँच सेंटीमीटर की विशेष गति से स्पर्श करना होता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि इस शोध से यह समझने में मदद मिलेगी कि मानवीय संबंधों में किस तरह स्पर्श महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने की कोशिश करते रहे हैं कि किस तरह शरीर को दर्द की अनुभूति होती है और कौन सी तंत्रिकाएँ इन अनुभूतियों को हमारे मस्तिष्क तक लेकर जाती हैं. इस जानकारी के अभाव में लोगों को काफ़ी तक़लीफ़ उठानी पड़ती है. न्यूरोपैथी जिसमें मस्तिष्क की कोशिएँ नष्ट हो जाती हैं, उसमें ये बेहद तकलीफ़देह हो सकती है. इसमें कई बार मस्तिष्क तक अनुभूतियों को पहुँचाने वाले तंत्र में ख़राबी आ जाती है और ऐसे में लोगों को तब भी दर्द की अनुभूति होती है जब कोई कारण नहीं होता. अनुभूतियों की परखहालांकि इस शोध में वैज्ञानिकों ने दर्द के विपरीत आनंद से संबंधित अनुभूतियों को परखा है. जिस गति से लोगों के हाथों को सहलआने पर आनंद की अनुभूति हुई वह उस गति के बराबर थी जिस गति से माँ बच्चों को थपकी देती है और दंपत्ति एक–दूसरे को प्यार की अभिव्यक्ति के समय सहलाते हैं.
फ़्रांसिस मैकग्लोन, शोधकर्ता
स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय और नार्थ कैरोलिना विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने स्पर्श के बाद 20 लोगों में होने वाली प्रतिक्रियाओं को दर्ज किया. बाद में उन्होंने विभिन्न गति से इन लोगों के अग्रहाथ की त्वचा को सहलाते हुए जाँच की. जब लोगों को किसी स्पर्श के बाद आनंद की अनुभूति हुई तब वैज्ञानिकों ने पाया कि 'सी- टेक्टाइल' स्नायु के तंतुओं को सहलाया गया था. एक विशेष गति से ज्यादा या कम गति पर जब स्पर्श किया गया तो लोगों को आनंद की अनुभूति नहीं हुई और न ही स्नायु तंत्र जागृत हुआ. इस शोध से जुड़े प्रोफ़ेसर फ़्रांसिस मैकग्लोन ने कहा, " जिस गति से लोगों के हाथों को सहलाने पर आनंद की अनुभूति हुई, वह उस गति के बराबर थी जिस गति से माँ बच्चों को थपकी देती है और दंपत्ति एक–दूसरों को प्यार की अभिव्यक्ति के समय सहलाते हैं." वैज्ञानिकों ने पाया है कि 'सी- टेक्टाइल' तंत्रिकाएं उस त्वचा पर ही होते हैं जहाँ बाल मौजूद होते हैं और ये हथेली की त्वचा पर नहीं मौजूद होते. (बीबीसी से साभार)