छांड़ि मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुबुद्धि उपजति है, परत भजन में भंग।।
कहां होत पय पान कराए, विष नहिं तजत भुजंग।।
कागहि कहा कपूर चुगाए, स्वान नहाए गंग।।
खर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग।।
गज को कहा न्हवाये सरिता, बहुरि धरै खहि छंग।।
पाहन पतित बांस नहीं बेधत, रीतो करत निषंग।।
सूरदास खल काली कामरि, चढ़त न दूजो रंग।।
1 comment:
बहुत सुंदर रचना ..
Post a Comment