Saturday, July 2, 2011

हमारा अंतःकरण

विनय बिहारी सिंह





हम सभी चाहते हैं कि ट्रेन में खिड़की के पास जगह मिले। अच्छा ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर मिले। आराम से कहीं भी आएं- जाएं। इसमें कुछ बुरा भी नहीं। सुविधा प्राप्त करना अच्छा ही है। लेकिन हम अपने भीतर कोई खराब भाव न आने दें, सिर्फ अच्छे भाव ही आने दें क्या ऐसा हम करते हैं? यह मेरा प्रश्न नहीं है। यह एक साधु अक्सर पूछते हैं। उनका कहना है कि हमारे भीतर जब भी काम, क्रोध, लोभ, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष आदि प्रबल होते हैं, हमारा अंतःकरण गंदा हो जाता है। जबकि अंतःकरण निर्मल होना बहुत जरूरी है। एक भक्त ने कहा- हरदम तो मन स्वच्छ औऱ निर्मल रहता नहीं, कभी- कभी लालच या कामनाएं जग ही जाती हैं या कोई खराब विचार आ ही जाता है। हालांकि उसे हम ठहरने नहीं देते। लेकिन ये भावनाएं तो अपने आप आ ही जाती हैं। साधु ने उत्तर दिया- नहीं। ये भावनाएं अपने आप नहीं आतीं। जरूर आपने उन्हें कांशसली या अनकांशली पुष्ट किया होगा। आपके अंतःकरण में अपने आप कुछ नहीं होता। आपने जिन भावनाओं को प्रश्रय दिया है, वही- वही उभर कर आपके मानसपटल पर आती रहती हैं।
जब आप भगवान के भावों को प्रश्रय देते रहेंगे तो वे भाव आपके भीतर पुष्ट हो जाएंगे। लेकिन जब आप बीच- बीच खराब विचारों को भी पुष्ट करेंगे तो वे आपको परेशान करेंगे। आप खराब विचार आते ही उन्हें निकाल फेंकिए। उन्हें अपने मन में ठहरने ही मत दीजिए। सिर्फ अच्छे विचारों को ठहरने दीजिए। अच्छे विचारों का पोषण कीजिए। देखिए आपका भाग्य भी बदल जाएगा। आपके जीवन में अच्छी घटनाएं होने लगेंगी।

2 comments:

vandana gupta said...

बिल्कुल सही कहा।

Udan Tashtari said...

उम्दा सीख..