विनय बिहारी सिंह
सारे साधु- संतों और धार्मिक ग्रंथों ने मन के नियंत्रण पर बहुत जोर दिया है। कबीरदास ने तो जगह- जगह मन से सावधान किया है। जैसे-१- माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर......२- मन ना रंगाय, रंगाय जोगी कपड़ा....... आदि। ग्रंथों में लिखा है- मन एव मनुष्याणां, कारणं बंध, मोक्षयो।।.... यानी मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मोक्ष का कारण है। भगवत गीता में अर्जुन ने कहा है- यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन करने वाला है। इसे रोकना वायु को रोकने जैसा दुष्कर है। यानी सारी खुराफात की जड़ यह मन ही है। मन यह कहता है, वह कहता है और बहुत कुछ चाहता है। और जितना ही हम उसकी बातें सुनते और उसका पालन करते हैं, उसकी चाहत और बढ़ जाती है। मन ऐसा ताकतवर है- जो हमेशा दौड़ता और कामना करता रहता है। इसीलिए प्राचीन काल में हर गुरु अपने शिष्य से कहता था- तुम्हें खुद से सावधान रहना है। मनुष्य अपना मित्र है और अपना ही शत्रु भी है। यदि मन नियंत्रित हो गया तो वह मित्र है और यदि अनियंत्रित ही रहा तो वह शत्रु है। क्योंकि उसकी भूख कभी मिटती नहीं है। इसीलिए पुराने जमाने के साधु-संत सादा जीवन बिताते थे। एक लंगोट पहन ली या एक छोटी सी लुंगी और अधकटी कुर्ता। जाड़े में एक मोटी चादर या कंबल। बस काम चल गया। कुछ मिला तो खा लिया नहीं तो भर पेट पानी पी लिया। लेकिन साधना में, ध्यान में या जप आदि में कोई कमी नहीं। बल्कि और चाव और गहरी श्रद्धा से साधना करते थे। वे अपने शिष्यों को भी यही सलाह देते थे कि यह मनुष्य शरीर बार- बार इसीलिए मिलता है कि हमारी कुछ अधूरी इच्छाएं रह गई हैं। फिर इस जन्म में नई इच्छाएं पैदा होंगी। इसलिए सावधान। मन को नियंत्रित करो। सिर्फ एक ही इच्छा हो- भगवान को कैसे पाएं। भगवान तो सब जगह है लेकिन हमारा मन इतना अस्थिर है कि वह दिखता और महसूस नहीं होता। मन स्थिर करो और भगवान में ही रम जाओ। फिर तो जो ईश्वरीय सुख मिलेगा, वह संसार के किसी भी सुख से अनंत गुना ज्यादा होगा।
No comments:
Post a Comment