विनय बिहारी सिंह
मैत्रेयी ऋषि याग्यवल्क्य की द्वितीय पत्नी थीं। (यहां पत्नियां प्रतीक हैं। मैत्रेयी- ग्यान और कात्यायनी- भक्ति की प्रतीक। कृपया इसे सांसारिक अर्थ में न लें।)। जब ऋषि हमेशा के लिए घर परिवार छोड़ कर तप करने वन में जाने लगे तो उन्होंने अपनी संपत्ति द्वितीय पत्नी मैत्रेयी और पहली पत्नी कात्यायनी में बांटना चाहा। तब मैत्रेयी ने पति से पूछा- क्या आपकी संपत्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है? ऋषि ने उत्तर दिया- नहीं। मोक्ष खरीदा नहीं जा सकता। तब मैत्रेयी ने कहा- तो फिर इस धन की कोई औकात नहीं है। आप तो मुझे वह धन दीजिए जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाए। ऋषि ने कहा- इसके लिए तप करना होगा। मैत्रेयी ने कहा- स्वीकार है। वे ऋषि के साथ वन में गईं। याग्यवल्क्य के साथ उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली और दोनों तप, ध्यान और साधना के लिए अलग- अलग हो गए। कात्यायनी ने भी वही रास्ता अपनाया। इन तीनों विभूतियों को आज भी श्रद्धा से याद किया जाता है। अनेक लोग सुख के दिनों में ईश्वर को भूल जाते हैं। लेकिन जब जीवन में कष्ट आता है तो भगवान याद आते हैं। ऋषियों ने कहा है- जो सुख- दुख, लाभ- हानि यानी हर परिस्थिति में ईश्वर को जोर से पकड़े रखता है, वह सुखी रहता है। क्योंकि यह संसार उनका है। वही इसके मालिक हैं। मनुष्य का इस संसार में है ही क्या? तो क्यों न इस संसार के स्वामी की शरण में जाएं? वहां प्रेम है, आनंद है, सर्वोच्च सुख है और सबसे बढ़ कर सदा के लिए सुरक्षा है। बस अपनी इंद्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा उन्हें समर्पित कर देना है।
(मित्रों, मैं गुरु पूर्णिमा (१५ जुलाई) के अवसर पर एक आनंददायी धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा लेने जा रहा हूं। अगली भेंट चार दिन बाद होगी। क्योंकि इस बीच इस ब्लाग पर लिखने का समय नहीं मिलेगा। )
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