Saturday, July 23, 2011

पतित पावन सीताराम

विनय बिहारी सिंह



आज घर से आफिस आते हुए आदि शंकराचार्य का भजन- भज गोविंदम, भज गोविंदम, भज गोविंदम मूढ़मते...... और महात्मा गांधी का भजन- रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम।। अचानक याद आने लगे। फिर इन भजनों के अर्थ पर गहराई से सोचने लगा। ये दोनों भजन एक साथ क्यों याद आए, भगवान जाने। लेकिन याद आना बहुत अच्छा लगा। भगवान को पतित पावन कहा गया है। जो पतितों का भी उद्धार कर देते हैं। बशर्ते पतित व्यक्ति शपथ ले ले कि वह फिर कोई अपराध नहीं करेगा। आदि शंकराचार्य ने कहा है- ईश्वर की शरण में जाने पर सारा अंधकार, सारा कष्ट, सारे तनाव दूर हो जाते हैं। ईश्वर दरअसल जीव की प्रतीक्षा करते रहते हैं। कोई भी जीव संपूर्ण नहीं है। उससे गलतियां हो जाती हैं। लेकिन अगर मनुष्य अपनी गलतियां सुधारता रहे और भगवान से प्रार्थना करता रहे तो वे उसका जीवन सुखमय बना देते हैं। बस अपना हृदय उनके चरणों में रख देना होता है। ईश्वर तो सब जानते हैं। लेकिन कष्ट भोगते हुए भी कई लोग ईश्वर की याद नहीं करते। कष्ट मनुष्य के कर्मों का ही फल है। कष्ट ईश्वर के स्मरण के लिए आता है। ईश्वर से क्षमा मांगने के लिए आता है। अगर कष्ट झेल रहा मनुष्य कहे- प्रभु, अब और गलती नहीं करूंगा। मुझे क्षमा कर दें। ईश्वर परम दयालु हैं। वे तुरंत क्षमा कर देते हैं। लेकिन हां, ईश्वर से कहना पड़ता है। मां भी अपने बेटे को तब तक दूध नहीं पिलाती, जब तक वह रोता नहीं है। रोने का अर्थ है बच्चे को भूख लगी है। हम भी भगवान से प्रार्थना करें- प्रभु जो कुछ गलती मुझसे हुई है, क्षमा करें। मुझे सद्विचार प्रदान करें और हमारी रक्षा करें।

(मित्रों मैं आवश्यक काम से उत्तर प्रदेश जा रहा हूं। इसलिए आप सबसे मुलाकात एक हफ्ते बाद होगी)। तब तक कृपया उन पुराने लेखों को पढ़ें जो अत्यंत रोचक हैं)।

Friday, July 22, 2011

क्या खाएं कि हाई फाइबर मिले

विनय बिहारी सिंह



अब हर आदमी पहले की तुलना में स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक है। यह सर्वविदित तथ्य है कि हाई फाइबर भोजन से पेट दुरुस्त रहता है। पेट दुरुस्त तो मन- मिजाज प्रसन्नचित्त।
हाई फाइबर वाले खाद्य पदार्थ कौन- कौन से हैं। मैं इसकी खोज करने गया तो पता चला कि इस लिस्ट में सबसे पहले आलूबुखारा है। कोलकाता में तो आलूबुखारा खूब मिलता है। लेकिन हर जगह तो नहीं मिलता। इसके अलावा आलूबुखारा खट्टा होता है। उसका व्यंजन तरीके से बनाया जाए तो अच्छा लगता है। बनाने का तरीका मुझे नहीं मालूम। इसलिए इस पर चर्चा न करें तो अच्छा है। लेकिन अन्य जिन चीजों में फाइबर होता है वे हैं- हरी सब्जियां, अनाज, जौ, मकई, छिलके सहित आलू, लगभग सभी ताजे और सूखे फल आदि। केला भी फाइबर वाला फल है। इसे खाने से पेट साफ होता है। लेकिन सुगर या रक्त शर्करा वाले मरीज इसे नहीं खा सकते। मैं ऐसे अनेक साधुओं को जानता हूं, जो रात को सिर्फ सूप या उबली सब्जी और फल खाते हैं। वे रात को स्टार्च आदि नहीं खाते। रोटी नहीं खाते। उनका कहना है कि इससे पेट स्वस्थ रहता है और अगले दिन आदमी चुस्त रहता है। मैंने एक- दो दिन रात को सिर्फ फल और उबली सब्जी खा कर देखा। सचमुच बहुत अच्छा लगता है। बंगाल में आटा बहुत ही महीन होता है। लगता है उसमें मैंदा मिला हुआ है। इसलिए उसकी रोटी तनिक चीमड़ हो जाती है। जबकि आटे में चोकर होना बहुत जरूरी है। चोकर आंतों को साफ करता है और उन्हें शक्तिशाली बनाता है। इसलिए भोजन में खूब तली- भुनी चीजें न खाकर, कम तेल- घी वाली चीजें खाना चाहिए। हरी सब्जियां, सलाद (जिसमें प्याज, टमाटर, गाजर आदि हो) , फल पर्याप्त मात्रा में खाने से पेट स्वस्थ रहता है और मनुष्य खुशहाल रहता है। सुबह उठ कर आधा नींबू निचोड़ कर पानी पीएं तो और भी अच्छा।

Thursday, July 21, 2011

प्लूटो के एक और चंद्रमा का पता चला

Courtesy- BBC Hindi service


हबल दूरबीन ने प्लूटो के चौथे चंद्रमा की पहचान की

खगोलशास्त्रियों ने हबल अंतरिक्ष दूरबीन की मदद से सौर मंडल के बौने ग्रह प्लूटो के एक और चंद्रमा की पहचान की है.

ये प्लूटो का चक्कर लगाने वाला चौथा प्राकृतिक उपग्रह है.

इससे पहले चेरन, निक्स और हाइड्रा की पहचान हो चुकी है.

वैज्ञानिक इस नए चंद्रमा को फ़िलहाल पी4 कह रहे हैं जिसका व्यास 13 से 34 किलोमीटर का बताया जा रहा है.

प्लूटो को 2006 में ग्रह से बौना ग्रह घोषित कर दिया गया था, लेकिन 2015 में ये एक बड़े अंतरिक्ष मिशन का लक्ष्य होगा.

अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का न्यू होराइज़न नामक खोजी यान इस बर्फ़ीले बौने ग्रह के पास से गुज़रेगा और उसके चंद्रमाओं को भी देखेगा.

न्यू होराइज़न के प्रमुख शोधकर्ता ऐलन स्टर्न ने इसे एक अभूतपूर्व खोज बताया है.

कोलोराडो के साउथवेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट के एलन स्टर्न कहते हैं, "अब हमें ये मालूम हो गया है कि प्लूटो का एक और चंद्रमा है तो हम अपनी उड़ान के दौरान उसे भी नज़दीक से देखेंगे".

अंतर

अब हमें ये मालूम हो गया है कि प्लूटो का एक और चंद्रमा है तो हम अपनी उड़ान के दौरान उसे भी नज़दीक से देखेंगे.

ऐलन स्टर्न, न्यू होराइज़न के प्रमुख शोधकर्ता

पी4 निक्स और हाइड्रा की कक्षाओं के बीच में स्थित है. निक्स और हाइड्रा की पहचान हबल दूरबीन ने 2005 में की थी.

जबकि चेरन की पहचान 1978 में अमरीकी नौसैनिक वेधशाला ने की थी.

अगर प्लूटो और उसके चंद्रमा चेरन के आकार की तुलना की जाए, तो दोनों में बड़ा अंतर नहीं है.

प्लूटो का व्यास 2,300 किलोमीटर का है जबकि चेरन का 1,200 किलोमीटर का. लेकिन निक्स और हाइड्रा छोटे हैं. निक्स का व्यास 30 किलोमीटर और हाइड्रा का 115 किलोमीटर है.

हबल दूरबीन ने पी4 को अपने नए वाइड फ़ील्ड कैमरा से पहली बार 28 जून को देखा था. जुलाई में उसके और पर्यवेक्षण होने के बाद उसके अस्तित्व की पुष्टि कर दी गई.

न्यू होराइज़न खोजी यान जुलाई 2015 में प्लूटो के पास से गुज़रेगा. उसके सात उपकरण प्लूटो की सतह की विशेषताओं, उसकी बनावट और वायुमंडल का विस्तृत नक्शा तैयार करेंगे.

ये यान प्लूटो से 10,000 किलोमीटर और चेरन से 27,000 किलोमीटर की दूरी तक जाएगा और उसके बाद आगे बढ़ जाएगा.

अगर नासा के पास और धन हुआ तो ये यान क्यूपर पट्टी में यात्रा करता रहेगा जहां सौर मंडल के निर्माण के बाद के कई अवशेष मौजूद हैं.

Wednesday, July 20, 2011

इस जीवन का अर्थ

विनय बिहारी सिंह




कल एक साधु ने कहा- जहां शरीर सुख प्रधान हो जाएगा, वहां भगवान के लिए जगह नहीं है। क्योंकि उस व्यक्ति के लिए शरीर ही सब कुछ हो जाएगा। शरीर को खाने, पीने और आराम देने में ही सारी जिंदगी बीत जाएगी। और एक दिन मृत्यु आ जाएगी। मन हमेशा शरीर सुख के बारे में ही सोचता रहेगा। ऋषियों ने कहा है- यह संसार द्वैत से बना है- सुख- दुख, रात- दिन और लाभ- हानि आदि। जहां द्वैत होगा, वहां अखंड आनंद हो ही नहीं सकता। मनुष्य ज्यादातर सब कांसश या कांसश स्थिति में रहता है। सुपर कांसश में बहुत कम लोग जाते हैं। जो सुपर कांसश में रहता है, वही सबसे सुखी है। ऋषियों ने कहा है- सुपर कांशस में रहना यानी गहरे ध्यान में डूबना। साथ ही यह मानना कि भगवान ही सब कुछ है। मनुष्य या सारे जीव उसकी कठपुतली हैं। वह जैसे नचाता है, हम नाचते हैं। हमारा इस संसार में किसी चीज पर वश नहीं है। यह मानते हुए ईश्वर की शरण में जाना, सबसे सुरक्षित और आनंददायी काम है। अगर हम खुद को कर्ता मान लेंगे तो फिर प्रपंच हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे। स्वयं को कर्तापन से दूर रख कर, यह सोच कि यह भगवान का काम है, आनंददायी है।

Tuesday, July 19, 2011

दो काम एक साथ नहीं हो सकते

विनय बिहारी सिंह



तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है कि दो काम एक साथ नहीं हो सकते- ठहाका लगा कर हंसना और गाल फुलाना (हंसबि ठठाइ, फुलाइब गालू)। ऋषि पातंजलि ने कहा है- संसार में आसक्ति और ईश्वर में आसक्ति, एक साथ संभव नहीं है। तो क्या संसार छोड़ दें? नहीं, बिल्कुल नहीं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- संसार में रहिए, लेकिन संसार का होकर मत रहिए। यानी- संसार में आसक्ति से बचिए। ऐसे अनेक लोग हैं जो सुबह से लेकर शाम तक अनावश्यक रूप से दूसरे व्यक्तियों के बारे में सोचते रहते हैं और उन्हीं के बारे में बातें करते रहते हैं। परनिंदा रस यानी दूसरों की निंदा का रस लेते रहते हैं। हालांकि यह कोई रस या आनंद नहीं है। लेकिन उनके लिए यही रस है। सुबह नींद से जगने से लेकर रात सोने तक यही काम। उनके लिए ईश्वर का स्मरण व्यर्थ काम है। वे मानते हैं कि ईश्वर पता नहीं हैं भी कि नहीं। पहले परनिंदा रस ले लें। तो उनके जीवन का लक्ष्य है- खाओ, पीयो और जो जी में आए करो। बूढ़े हो जाओ और मर जाओ। तो जीवन का उद्देश्य क्या है? मनुष्य जीवन तो इसलिए मिला है कि हम अपने असली घर के बारे में जानें। हमारा असली घर कहां है? परमहंस योगानंद जी ने कहा है- हमारा असली घर ईश्वर के पास है। हम जितना ईश्वर से प्यार करेंगे, वे हमसे उतनी ही बातचीत ज्यादा करेंगे। उतनी देर हम संसार से कटे रहते हैं। यह जरूरी भी है। जब हम ईश्वर का ध्यान करें तो ईश्वर में डूबे रहें। जब हम संसार का काम करें तो ईश्वर का काम कर रहे हैं, यह अनुभूति हो। तब जाकर २४ घंटे हम ईश्वर में रह पाएंगे।

Thursday, July 14, 2011

मैत्रेयी

विनय बिहारी सिंह


मैत्रेयी ऋषि याग्यवल्क्य की द्वितीय पत्नी थीं। (यहां पत्नियां प्रतीक हैं। मैत्रेयी- ग्यान और कात्यायनी- भक्ति की प्रतीक। कृपया इसे सांसारिक अर्थ में न लें।)। जब ऋषि हमेशा के लिए घर परिवार छोड़ कर तप करने वन में जाने लगे तो उन्होंने अपनी संपत्ति द्वितीय पत्नी मैत्रेयी और पहली पत्नी कात्यायनी में बांटना चाहा। तब मैत्रेयी ने पति से पूछा- क्या आपकी संपत्ति से मोक्ष प्राप्त हो सकता है? ऋषि ने उत्तर दिया- नहीं। मोक्ष खरीदा नहीं जा सकता। तब मैत्रेयी ने कहा- तो फिर इस धन की कोई औकात नहीं है। आप तो मुझे वह धन दीजिए जिससे मोक्ष प्राप्त हो जाए। ऋषि ने कहा- इसके लिए तप करना होगा। मैत्रेयी ने कहा- स्वीकार है। वे ऋषि के साथ वन में गईं। याग्यवल्क्य के साथ उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली और दोनों तप, ध्यान और साधना के लिए अलग- अलग हो गए। कात्यायनी ने भी वही रास्ता अपनाया। इन तीनों विभूतियों को आज भी श्रद्धा से याद किया जाता है। अनेक लोग सुख के दिनों में ईश्वर को भूल जाते हैं। लेकिन जब जीवन में कष्ट आता है तो भगवान याद आते हैं। ऋषियों ने कहा है- जो सुख- दुख, लाभ- हानि यानी हर परिस्थिति में ईश्वर को जोर से पकड़े रखता है, वह सुखी रहता है। क्योंकि यह संसार उनका है। वही इसके मालिक हैं। मनुष्य का इस संसार में है ही क्या? तो क्यों न इस संसार के स्वामी की शरण में जाएं? वहां प्रेम है, आनंद है, सर्वोच्च सुख है और सबसे बढ़ कर सदा के लिए सुरक्षा है। बस अपनी इंद्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा उन्हें समर्पित कर देना है।
(मित्रों, मैं गुरु पूर्णिमा (१५ जुलाई) के अवसर पर एक आनंददायी धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा लेने जा रहा हूं। अगली भेंट चार दिन बाद होगी। क्योंकि इस बीच इस ब्लाग पर लिखने का समय नहीं मिलेगा। )

Wednesday, July 13, 2011

मन

विनय बिहारी सिंह



सारे साधु- संतों और धार्मिक ग्रंथों ने मन के नियंत्रण पर बहुत जोर दिया है। कबीरदास ने तो जगह- जगह मन से सावधान किया है। जैसे-१- माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर......२- मन ना रंगाय, रंगाय जोगी कपड़ा....... आदि। ग्रंथों में लिखा है- मन एव मनुष्याणां, कारणं बंध, मोक्षयो।।.... यानी मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मोक्ष का कारण है। भगवत गीता में अर्जुन ने कहा है- यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन करने वाला है। इसे रोकना वायु को रोकने जैसा दुष्कर है। यानी सारी खुराफात की जड़ यह मन ही है। मन यह कहता है, वह कहता है और बहुत कुछ चाहता है। और जितना ही हम उसकी बातें सुनते और उसका पालन करते हैं, उसकी चाहत और बढ़ जाती है। मन ऐसा ताकतवर है- जो हमेशा दौड़ता और कामना करता रहता है। इसीलिए प्राचीन काल में हर गुरु अपने शिष्य से कहता था- तुम्हें खुद से सावधान रहना है। मनुष्य अपना मित्र है और अपना ही शत्रु भी है। यदि मन नियंत्रित हो गया तो वह मित्र है और यदि अनियंत्रित ही रहा तो वह शत्रु है। क्योंकि उसकी भूख कभी मिटती नहीं है। इसीलिए पुराने जमाने के साधु-संत सादा जीवन बिताते थे। एक लंगोट पहन ली या एक छोटी सी लुंगी और अधकटी कुर्ता। जाड़े में एक मोटी चादर या कंबल। बस काम चल गया। कुछ मिला तो खा लिया नहीं तो भर पेट पानी पी लिया। लेकिन साधना में, ध्यान में या जप आदि में कोई कमी नहीं। बल्कि और चाव और गहरी श्रद्धा से साधना करते थे। वे अपने शिष्यों को भी यही सलाह देते थे कि यह मनुष्य शरीर बार- बार इसीलिए मिलता है कि हमारी कुछ अधूरी इच्छाएं रह गई हैं। फिर इस जन्म में नई इच्छाएं पैदा होंगी। इसलिए सावधान। मन को नियंत्रित करो। सिर्फ एक ही इच्छा हो- भगवान को कैसे पाएं। भगवान तो सब जगह है लेकिन हमारा मन इतना अस्थिर है कि वह दिखता और महसूस नहीं होता। मन स्थिर करो और भगवान में ही रम जाओ। फिर तो जो ईश्वरीय सुख मिलेगा, वह संसार के किसी भी सुख से अनंत गुना ज्यादा होगा।

Tuesday, July 12, 2011

तीसरा नेत्र

विनय बिहारी सिंह


आज एक बहुत ही रोचक घटना पढ़ी। बात प्राचीन काल की है। तमिलनाडु के एक राजा के प्रधानमंत्री साधु स्वभाव के थे। वे राज्य के किसी काम से बाहर निकले। एक सुनसान स्थान पर उनकी भेंट साधु के रूप में प्रकट हुए भगवान शिव से हुई। भगवान शिव ने उन्हें अपनी कुटी में रखा। प्रधानमंत्री को कुटी में रहना बहुत अच्छा लगा। एक दिन भगवान शिव ने उन्हें दीक्षा दे दी। दीक्षा के समय उनका तीसरा नेत्र ( ललाट के निचले हिस्से पर दोनों भौंहों के बीच वाला स्थान) खुल गया। दीक्षा के बाद प्रधानमंत्री भूल गए कि वे एक बहुत बड़े अधिकारी हैं। यही नहीं वे अपना घर परिवार और अपनी देह तक भूल गए। वे ईश्वरीय आनंद से ओतप्रोत थे। दीक्षा देने के बाद भगवान शिव गायब हो गए। तब प्रधानमंत्री व्याकुल हो कर उन्हें ढूंढ़ने लगे। तभी उन्हें हवा में सुनाई पड़ा- मुझे मत खोजो। जो दीक्षा तुम्हें दी है, उसका भक्ति के साथ पालन करो। अचानक प्रधानमंत्री को आभास हुआ- वही तो भगवान शिव थे। लेकिन मैं उन्हें पहचान क्यों नहीं पाया? फिर उन्हें समझ में आया कि भगवान कई बार जब साधु या अन्य किसी रूप में प्रकट होते हैं तो नहीं चाहते कि कोई उन्हें पहचाने। इसीलिए वे माया का एक परदा रच देते हैं। फिर तो वे भगवान शिव उनके अस्तित्व में ही समा गए। रात- दिन, हर क्षण वे बस भगवान शिव का जप, ध्यान और गुणगान करते रहते थे। अंत में वे भगवान शिव में ही विलीन हो गए।
मुझे यह कथा इतनी अच्छी लगी कि आप सबको यह बताना जरूरी लगा।

Monday, July 11, 2011

अदृश्य होने का रहस्य

विनय बिहारी सिंह




कबीरदास ने जब देह त्याग किया तो उनके अंतिम संस्कार को लेकर बातचीत होने लगी। हिंदू शिष्यों ने कहा कि कबीरदास का दाह संस्कार होना चाहिए। मुसलमान शिष्यों ने कहा- उन्हें दफनाया जाए। तभी किसी शिष्य ने गुरु का चेहरा देखने के लिए कफन उठाया तो देखा कि कबीरदास की देह के बदले वहां फूल हैं। यह कैसे हुआ? आटोबायोग्राफी आफ अ योगी में परमहंस योगानंद जी ने अदृश्य होने के बारे में लिखा है। उच्चकोटि के संतों में यह क्षमता होती है कि वे जिस क्षण चाहें गायब हो सकते हैं और जिस क्षण चाहें प्रकट हो सकते हैं। कहीं भी, कभी भी। कबीरदास ने अपनी देह छोड़ दी थी, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर से वे अपना पार्थिव शरीर नियंत्रित कर रहे थे। उनका शरीर इतना पवित्र होता है कि वे जब चाहे खुद को प्रकाश में परिवर्तित कर सकते हैं। प्रकाश में परिवर्तन के कारण उनका शरीर हल्का हो जाता है। अब जिस समय भी चाहें, कहीं भी जा सकते हैं। अन्य कुछ संत भी अदृश्य औऱ प्रकट हुए हैं। लेकिन ये संत चमत्कार दिखाने के लिए ऐसा नहीं करते। बल्कि अदृश्य होने की आवश्यकता होती है या प्रकट होने की आवश्यकता होती है, तब ऐसा करते हैं। वे इसकी चर्चा भी पसंद नहीं करते। यह एक सूक्ष्म क्षमता है, जो उच्चकोटि के साधु- संतों में होती है। उनकी गहरी साधना से उनका शरीर प्रकाशमय रहता है।

Saturday, July 9, 2011

रहीम के दोहे


विनय बिहारी सिंह


बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खान खाना था। उनका जन्म सन १५५३ में लाहौर में हुआ था। तब लाहौर भारत का ही अंग था। उस समय हुमायूं का शासन था। रहीम के पिता का नाम था- बैरम खां। वे हुमायूं के दरबार के प्रमुख लोगों में से एक थे। बैरम खां के घर, बच्चे के जन्म की बात सुन कर बादशाह हुमायूं खुद उनके घर गए और नवजात शिशु का नाम रहीम रखा। रहीम बाद में अकबर और उनके पुत्र सलीम के शिक्षक भी बने। लेकिन स्वभाव से वे आध्यात्मिक थे। यह उनके दोहों को पढ़ कर भी देखा जा सकता है। कई दोहों में उन्होंने भगवान कृष्ण को श्रद्धा से याद किया है। पहला ही दोहा पढ़ें तो स्पष्ट हो जाएगा।
आइए इन दोहों का रस पान करें-

जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥


जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥

रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥

मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥

रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥





Friday, July 8, 2011

गाय के दूध में औषधीय गुण

विनय बिहारी सिह


स्पेन और मोरक्को के वैग्यानिकों ने शोध के बाद पता लगाया है कि गाय के दूध में २० रसायन होते हैं। ये सभी मनुष्य और जानवरों के लिए औषधि का काम करते हैं। इनमें से नाइफ्लूमिक एसिड, मेफेनैमिक एसिड तो होते ही हैं किटोप्रोफेन नामक रसायन भी होता है। ये सभी दर्द निवारक औषधियों के रसायन हैं। इसके अलावा हार्मोन १७ बीटा- एस्ट्राडिआल भी होता है जो पौरुषीय माना जाता है। हमारे ऋषियों ने पहले ही गाय के दूध को महत्वपूर्ण पेय बताया है। इसीलिए ईश्वर ने गाय को इतना दूध दिया है कि उसके बछड़े के पीने के बाद भी मनुष्य के लिए कुछ बच जाए। यह जानकारी तो पहले भी थी कि गाय का दूध फायदेमंद होता है, लेकिन उसके रसायनों पर विस्तृत शोध अब जाकर हुआ है। इन वैग्यानिकों ने स्पेन और मोरक्को की गायों के दूध पर यह शोध किया है। जाहिर है भारत की गायों के दूध में भी कम या ज्यादा ये रसायन होंगे। इन वैग्यानिकों ने यह भी कहा है कि बकरी और मनुष्य का दूध और भी फायदेमंद होता है।
संभवतः इसीलिए हमारे समाज में गाय को माता कहा जाता है। आज भी जिनके लिए संभव है, वे लोग बकरी का दूध पीते हैं। उनका कहना है कि बकरी का दूध उन्हें शक्ति देता है। महात्मा गांधी और उनके अनेक अनुयायी बकरी का दूध पीते थे और जिनके लिए संभव है उन्हें बकरी का दूध पीने की सलाह देते थे।

Thursday, July 7, 2011

सिद्ध संत थे कबीर के पुत्र कमाल

विनय बिहारी सिंह



कबीर के पुत्र कमाल उच्च कोटि के सिद्ध संत थे। उनके बचपन की एक घटना
से यह बात सिद्ध हो जाती है। एक लड़का कमाल का घनिष्ठ मित्र था। दोनों साथ ही खेलते थे, पढ़ते- लिखते थे और आध्यात्मिक अध्ययन, साधना आदि करते थे। उन्होंने एक खेल शुरू किया, लूडो की तरह। शर्त थी कि जो जीतेगा, वह हारने वाले के घर जाएगा और उसे खेलने के लिए आमंत्रित करेगा। एक दिन कमाल जीत गए। अगले दिन वे अपने मित्र के घर उसे खेल के लिए आमंत्रित करने गए। वहां का दृश्य दुखद था। कमाल के मित्र की मृत्यु हो चुकी थी। उसके अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी। कमाल ने पूछा- क्या हुआ है? घर के लोगों ने बताया- तुम्हारे मित्र की मृत्यु हो चुकी है। कमाल ने कहा- नहीं। यह हो नहीं सकता। उसने मेरे साथ खेलने का वादा किया है। घर के लोगों ने कहा- तुम खुद देखो। उसका शरीर बेहद ठंडा और कड़ा हो गया है। कमाल ने कहा- यह कौन सी बड़ी बात है। मैं भी अपना शरीर बेहद ठंडा और कड़ा कर सकता हूं। मेरे मित्र ने नाटक किया है। वह मरा नहीं है। यह कह कर कमाल वहीं लेट गया। थोड़ी ही देर में उसका शरीर ठंडा और कड़ा हो गया। लोगों को लगा कि कमाल की भी मृत्यु हो गई। उसके घर खबर दे दी गई। लोग रोने लगे औऱ कहने लगे कि शायद मित्र के मरने के शोक में कमाल भी चल बसा। लेकिन तभी कमाल खड़ा हो गया और हंस कर बोला- देखा। मैं जीवित हूं। इसी तरह मेरा मित्र भी जीवित है। कमाल अपने मित्र के मृत शरीर के पास गया और उसकी छाती पर हाथ रखा। मित्र जीवित हो उठा। तब तक कमाल की मां भी वहां आ चुकी थीं। कबीर ने जब इस घटना के बारे में सुना तो उन्होंने कहा- सब ऊपर वाले की लीला है। उस पर गहरा विश्वास करो तो सब कुछ संभव है।

Wednesday, July 6, 2011

भगवान की बांह सूरदास ने कैसे पकड़ी?

विनय बिहारी सिंह



आज एक भक्त ने कहा- सूरदास ने भगवान का हाथ पकड़ लिया, इसका विश्लेषण बहुत ही रोचक है। चलिए एक सन्यासी के पास चलें और उन्हीं के मुंह से सुनें। हम सब सन्यासी के पास गए। उन्होंने कहा- ईश्वर तो सर्वव्यापी हैं। इस सृष्टि के कण- कण में विराजमान हैं। लेकिन वे भक्त के लिए शरीर में उपस्थित हो जाते हैं। लेकिन उनका शरीर हमारे शरीर की तरह नहीं होता। यह शरीर प्रकाश के फोटानों से बना होता है। आप इसे जितना देखेंगे, उतना ही मुग्ध होंगे। सूरदास की भक्ति और साधना इतनी गहरी हो गई थी कि उनका शरीर भी भगवानमय हो गया था। वे इसमें सक्षम थे कि भगवान से जब चाहे मुलाकात कर सकते थे। उनकी बांह पकड़ सकते थे। भक्तों के लिए भगवान कहीं दूर की चीज नहीं होते। वे उसके हृदय में विराजमान रहते हैं। ज्योंही भक्त ने पुकारा कि भगवान दर्शन दें, बस भगवान प्रकट होते हैं। लेकिन कभी कभी भगवान भक्त के साथ लुका- छिपी भी खेलते हैं। भक्त पुकार रहा है, लेकिन भगवान के दर्शन नहीं हो रहे। दरअसल भगवान उसके सामने ही रहते हैं, लेकिन लुका- छिपी खेलने के लिए वे भक्त की आंखों के ऊपर एक पर्दा डाल देते हैं। लेकिन जब देखते हैं कि भक्त उनके लिए तड़प रहा है तो वे उस पर्दे को हटा देते हैं। इसमें भगवान को मजा आता है। आखिर वे किसके साथ खेलेंगे। अपनी संतान के साथ ही तो। सूरदास जानते थे कि भगवान ऐसा करते हैं। इसमें सूरदास को भी आनंद मिलता था। और किसको आनंद नहीं मिलेगा? भगवान तो स्वयं सच्चिदानंद हैं। फिर भक्त क्यों नहीं उनके साथ आनंद मनाएगा?

Tuesday, July 5, 2011

सूरदास के पद

विनय बिहारी सिंह

सूरदास अपने समय के चोटी के भक्त कवि थे। कहते हैं कि एक बार वे कुएं में गिर गए। हालांकि एक मान्यता यह भी है कि उनकी दोनों आंखें खराब थीं, लेकिन उनका तीसरा नेत्र खुल चुका था। इसलिए उन्हें नेत्रहीन नहीं कहा जा सकता। तो वे कुएं में गिर पड़े। सूरदास भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने कुएं में पड़े- पड़े भगवान को पुकारा- कहां हो दीनानाथ? मुझे मुक्त करो। सूरदास जैसा भक्त पुकारे और भगवान न आएं? भगवान कृष्ण आए और उन्हें क्षण भर में बाहर निकाला। लेकिन सूरदास ने भगवान का हाथ जोर से पकड़ लिया था।बाहर निकलने के बाद भी छोड़ते ही नहीं थे। भगवान ने किसी तरह उनसे अपना हाथ छुड़ा लिया। तब सूरदास ने कहा- हाथ छुड़ा कर तो जा रहे हैं, लेकिन आप मेरे हृदय से कैसे जाएंगे? भगवान हंस पड़े।
आइए आज उनकी एक रचना पढ़ें-

ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिसकीरा बिस खात॥
जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥
ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।
सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

( संक्षिप्त सार- मन ही बंधन औऱ मोक्ष का कारण है। अमृतफल छोड़ कर विष के लिए लालायित रहना, शांति छोड़ कर प्रपंच में रमे रहना, पवित्र सौंदर्य छोड़ कर कृत्रिम सौंदर्य में लिप्त रहना और क्या है?? जिसकी जिस तरह की प्रवृत्ति होती है, उसी में वह लिप्त हो जाता है।)

Monday, July 4, 2011

संत दादू दयाल

विनय बिहारी सिंह


सोलहवीं शताब्दी के संत दादू दयाल, संत कबीर के शिष्यों में से एक थे। कहते हैं कि जब सिद्ध संत के रूप में उनकी ख्याति फैली तो बादशाह अकबर ने उनसे मुलाकात की। उनके दरबार में किसी ने पूछा- अल्लाह की जाति क्या है? दादू दयाल ने कहा-

इशक अलाह कि जाती है इशक अलाह का अंग
इशक अलाह मौजूद है, इशक अलाह का रंग ।।

दादू दयाल के गुरु कबीरदास ने भी कहा है-
प्रेम न खेतो नीपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा, परजा जो परै, सीस दिए लै जाय।।

दादू दयाल ने यह बात कई जगहों पर कही है। उनका कहना था कि जिस क्षण ईश्वर आसक्ति हो जाए। उनसे गहरा प्रेम हो जाए, बस काम बन जाएगा। उन्होंने कहा- ईश्वर को और किसी तरीके से प्राप्त नहीं किया जा सकता। जो ईश्वर से प्रेम करता है, वही सबसे चतुर व्यक्ति है। क्योंकि उसका काम तो बन गया। वह सभी पाशों से मुक्त हो जाएगा। कैसे? ईश्वर की कृपा प्राप्त हो जाएगी। लेकिन तब तक ईश्वर की कृपा नहीं होगी, जब तक कि आप भीतर से उसे नहीं चाहेंगे। इस अर्थ में दादू दयाल ने अपने गुरु के प्रेम तत्व को और गहरा किया है। मनुष्य का मनुष्य से प्रेम गुप्त शर्तों पर टिका हुआ है। लेकिन ईश्वर से प्रेम बिना शर्त होना चाहिए। तभी उनका प्रेम मिलेगा। तो ईश्वर से प्रेम किस तरह करें। भक्त कहता है- आप मेरे माता और पिता हैं। मैं और कहां जाऊं? आपकी शऱण में रहूंगा। आपने मुझे जीवन दिया है तो आप ही इसे पूरा करवाएंगे। मैं तो अवश हूं। बस, अब भगवान जाएंगे कहां? वे भक्त के प्रेम पाश में बंध जाते हैं। भक्त उन्हें जिस रूप में बुलाता है, उन्हें उसी रूप में आना पड़ता है। अगर वह कृष्ण के रूप में चाहता है, तो वे मोर मुकुट धारण किए, बांसुरी हाथ में लिए अपने मनमोहक रूप में आते हैं। कभी शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए चतुर्भुज रूप में आते हैं। अगर भक्त मां काली या दुर्गा के रूप में उनकी अराधना करता है तो वे उसी रूप में आते हैं। क्योंकि भक्त तो पूरी तरह समर्पित है। सरेंडर कर चुका है। अपनी देह, मन, बुद्धि और आत्मा का। वह कहां जाएगा। भगवान के अलावा उसका है कौन? यह बात भगवान अच्छी तरह जानते हैं। सारी सृष्टि को बनाने और चलाने वाले भगवान क्या भक्त के हृदय की हूक नहीं जानते? इसीलिए तो वे उसके आसपास रहा करते हैं।


Saturday, July 2, 2011

हमारा अंतःकरण

विनय बिहारी सिंह





हम सभी चाहते हैं कि ट्रेन में खिड़की के पास जगह मिले। अच्छा ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर मिले। आराम से कहीं भी आएं- जाएं। इसमें कुछ बुरा भी नहीं। सुविधा प्राप्त करना अच्छा ही है। लेकिन हम अपने भीतर कोई खराब भाव न आने दें, सिर्फ अच्छे भाव ही आने दें क्या ऐसा हम करते हैं? यह मेरा प्रश्न नहीं है। यह एक साधु अक्सर पूछते हैं। उनका कहना है कि हमारे भीतर जब भी काम, क्रोध, लोभ, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष आदि प्रबल होते हैं, हमारा अंतःकरण गंदा हो जाता है। जबकि अंतःकरण निर्मल होना बहुत जरूरी है। एक भक्त ने कहा- हरदम तो मन स्वच्छ औऱ निर्मल रहता नहीं, कभी- कभी लालच या कामनाएं जग ही जाती हैं या कोई खराब विचार आ ही जाता है। हालांकि उसे हम ठहरने नहीं देते। लेकिन ये भावनाएं तो अपने आप आ ही जाती हैं। साधु ने उत्तर दिया- नहीं। ये भावनाएं अपने आप नहीं आतीं। जरूर आपने उन्हें कांशसली या अनकांशली पुष्ट किया होगा। आपके अंतःकरण में अपने आप कुछ नहीं होता। आपने जिन भावनाओं को प्रश्रय दिया है, वही- वही उभर कर आपके मानसपटल पर आती रहती हैं।
जब आप भगवान के भावों को प्रश्रय देते रहेंगे तो वे भाव आपके भीतर पुष्ट हो जाएंगे। लेकिन जब आप बीच- बीच खराब विचारों को भी पुष्ट करेंगे तो वे आपको परेशान करेंगे। आप खराब विचार आते ही उन्हें निकाल फेंकिए। उन्हें अपने मन में ठहरने ही मत दीजिए। सिर्फ अच्छे विचारों को ठहरने दीजिए। अच्छे विचारों का पोषण कीजिए। देखिए आपका भाग्य भी बदल जाएगा। आपके जीवन में अच्छी घटनाएं होने लगेंगी।