Thursday, March 31, 2011

निःस्वार्थ प्रेम



विनय बिहारी सिंह

किसका प्रेम निःस्वार्थ होता है? कोई भी कहेगा- मां का। मां अपने बच्चे को खुश देख कर ही खुश रहती है। उसे और कुछ नहीं चाहिए। इसी तरह एक और संबंध है। ईश्वर और भक्त का। लेकिन यहां ध्यान देना आवश्यक है कि भक्त भगवान से इसलिए प्यार करता हो क्योंकि वही उसके माता, पिता, मित्र और हितैषी हैं। इसलिए नहीं कि वह भगवान से धन, पद और यह या वह मांगता रहता है। ऋषियों ने कहा है कि भगवान को वह भक्त सबसे ज्यादा प्रिय होता है जो उनसे और कुछ न मांगे, सिर्फ वह कहे- भगवान मैं तुमको चाहता हूं। ऐसा भक्त जानता है कि वह इस दुनिया में इसलिए आया है ताकि भगवान को प्राप्त कर सके। या कम से कम इसके लिए हृदय से प्रयत्न कर सके। भगवान कहते हैं कि जो भक्त मुझे पाने के लिए प्रयत्न करता है, उसकी हर कोशिश मैं नोट करता जाता हूं। ऋषियों का कहना है कि भगवान को प्राप्त नहीं करना है, वे तो आपके भीतर हैं, बाहर हैं सर्वत्र हैं। बस आपको इसे महसूस करना है। इसी को दूसरे शब्दों में भगवान को पाना कहते हैं। तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है- राम राम कहि जे जमुहांहीं। तिनहि न पाप पुंज समुहाहीं।। जो हृदय से राम, राम कहते रहते हैं, उनके पास बुरे विचार फटकते तक नहीं। लेकिन राम की यह पुकार गहरे अंतर्मन से होनी चाहिए। जैसे कि आप भगवान के अलावा कुछ और न चाहते हों। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- स्त्री, पुरुष, धन, चाहत के लिए तो सब रोते हैं, भगवान के लिए कौन रोता है? भगवान तो उसी को मिलते हैं जो उनके लिए अंतर्मन से रोता हो।

Tuesday, March 29, 2011

जब जीवन प्रार्थना बन जाए



विनय बिहारी सिंह

परमहंस योगानंद जी ने गीता की व्याख्या- गाड टाक्स विथ अर्जुन- में लिखा है कि जिन भक्तों का जीवन ही प्रार्थना का पर्याय बन जाता है, वे धन्य हैं। ऐसे ही भक्त भगवान से बातचीत करते हैं। उनके जीवन का केंद्र ही भगवान होते हैं। भले ही वे सांसारिक कर्तव्यों का पालन कर रहे हों, लेकिन उनका दिल और दिमाग भगवान की पुकार कर रहा होता है- मेरे प्रभु, मेरे प्रभु......। यही वह तरीका है जब हम संसार के दुखों से बाहर निकल सकते हैं। वरना सांसारिक चक्की में पिसते रहेंगे। रोज उठना, मशीन की तरह काम करना, गप हांकना, बीच बीच में कहीं घूम फिर लेना, खाना- पीना, सोना और बूढ़े होकर मर जाना। क्या इसीलिए हमें मनुष्य जीवन मिला है? परमहंस जी ने कहा है- यह संसार हमारा घर नहीं है। इसे छोड़ कर हमें चले जाना है। इसलिए रोज कुछ न कुछ अच्छा काम करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर आप बहुत व्यस्त हैं तो एक मिनट के लिए रुकिए। अपनी आंखें बंद कीजिए और प्रभु को पुकार कर कहिए- मेरे प्रभु, आपके लिए मैं तड़प रहा हूं। मेरे प्रिय, आप ही मेरे सब कुछ हैं। फिर आंखे खोलिए और जो काम आप कर रहे हों, उसे फिर करने लगिए। इसमें कोई मेहनत नहीं है। बस क्षण भर के लिए रुके और भगवान को पुकार लिया। भगवान तो सर्वव्यापी हैं ही। लेकिन वे हमारे हृदय की तड़पन समझते हैं। एक बार आप दिल से- मेरे प्रभु, मेरे प्रभु कहते हैं तो वे आपको अपनी छाती से लगा लेते हैं और कहते हैं- हां, मेरे बच्चे। मैं तुम्हारे पास ही हूं। यह प्रेम संबंध जितना प्रगाढ़ होता है, हम उतने ही सुखी होते हैं।

Monday, March 28, 2011

शिव ही सत्य और सुंदर हैं




विनय बिहारी सिंह

भगवान शिव सभी बुरी शक्तियों को नष्ट करने वाले हैं। वे ही हमारे रक्षक हैं। अपने भक्त की अशुद्धियों को जला कर राख कर निर्मल कर देते हैं भगवान शिव। कहा जाता है कि वे संहार के देवता हैं। किसका संहार? हमारे भीतर की बुरी प्रवृत्तियों का, हमारे ऊपर हमला करने वाली व्याधियों का, हमारे मन को अशुद्ध करने वाले विचारों का संहार करते हैं वे। क्योंकि अगर वे मनुष्य का संहार करते तो फिर समुद्र मंथन से निकले विष का पान नहीं करते। उन्होंने जीवों की रक्षा के लिए ही विष पीना स्वीकार किया। इसीलिए वे नीलकंठ कहलाए। भगवान शिव के भक्त उन्हें सदा अपने हृदय में रखते हैं। सिर्फ जल चढ़ा दीजिए, बस उसी पर वे खुश हो जाते हैं। ज्योंही भक्त शिव जी का स्मरण करता है, उन्हें पता चल जाता है। वे तो इस सृष्टि के कण- कण में हैं। पर उन्हें ही दिखते और महसूस होते हैं जो उन्हें हृदय से प्रेम करते हैं। अन्यथा वे अदृश्य और अग्राह्य हैं।

Saturday, March 26, 2011

वे विलक्षण साधक हैं, हिमालय जा रहे हैं


विनय बिहारी सिंह

कल एक साधक ने कहा- पवित्र ऊंकार ध्वनि की महानता शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। ऊं ईश्वरवाचक शब्द है। उसके संपर्क में रहने से शरीर, मन और आत्मा पवित्र हो जाती है। मैंने पूछा- आप ऊं के संपर्क में कैसे रहते हैं? उन्होंने कहा- आप जितनी गहरी शांति में रहेंगे, आपको ऊं ध्वनि सुनाई पड़ेगी। अगर यह ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती तो आप गहरी शांति में जा कर मन ही मन ऊं का जाप कीजिए। ऊं के जाप से आपकी शांति बढ़ती चली जाती है। लेकिन हां, शांत होना बहुत जरूरी है। शांत होने के लिए यह जरूरी है कि सारी चिंताएं, सारे तनाव आप भगवान को सौंप दीजिए। वही उसकी चिंता करें। आप सिर्फ भगवान की गोद में बैठ कर आनंद मनाइए और ऊं के साथ रहिए। ये साधक बहुत पुराने हैं और दिन- रात ईश्वर का ही चिंतन करते हैं। इनसे जब भी मुलाकात होती है, वे ईश्वरीय बातें ही करते हैं। एक दिन उन्होंने कहा- रात को राम, राम, राम का जाप किया। कितना आनंद है इस दो अक्षर में। सचमुच बहुत फायदा होता है राम, राम के जाप से। उनसे जब भी मुलाकात होती है, वे अपना कोई न कोई अद्भुत अनुभव सुनाते हैं। इन दिनों उनसे बहुत कम मुलाकात होती है। लेकिन कल की मुलाकात इसलिए भी विशेष थी कि ईश्वर की बातें करते हुए उनकी आंखों से आंसू निकल आते थे। इन दिनों वे ईश्वर के अलावा कुछ सोच नहीं पाते हैं। ऐसा विलक्षण प्रेम कम लोगों में देखने को मिलता है। उन्होंने ईश्वर भक्ति में रमे रहने के कारण शादी नहीं की। अब वे हमेशा के लिए हिमालय क्षेत्र में जा रहे हैं। केदारनाथ में कहीं रहने की व्यवस्था की है। उनका कहना है कि अब लौट कर आने का विचार नहीं है। वहीं दो रोटी का जुगाड़ हो गया है। साधना कीजिए, ईश्वर चर्चा कीजिए और ईश्वरीय आनंद मनाइए। उन्होंने कहा- जैसे आदमी स्वाद बदलने के लिए कभी कोई व्यंजन तो कभी कोई व्यंजन खाता है। ठीक उसी तरह ईश्वर भक्ति एक ही तरह से नहीं की जाती। इसमें भी स्वाद बदलने का मौका है। कभी जप कीजिए। कभी ध्यान कीजिए तो कभी भजन गाइए। कभी चुपचाप भगवान का फोटो निहारिए। कभी शरीर में हवा लगे तो मानिए कि यह भगवान ही हैं जो हवा बन कर आपके शरीर को स्पर्श कर रहे हैं। आज रात वे ट्रेन पकड़ कर हमेशा के लिए हिमालय क्षेत्र में जा रहे हैं। भगवान को ऐसे भक्त अत्यंत प्रिय होते हैं जो दिन- रात, सोते- जागते, उठते- बैठते, काम करते और सोचते हुए उन्हीं को हृदय में रखते हैं।

Thursday, March 24, 2011

यह शरीर तो यहीं रह जाएगा



विनय बिहारी सिंह

परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि मनुष्य सिर्फ शरीर नहीं है। यह शरीर तो यहीं रह जाएगा। हम तो शुद्ध आत्मा हैं। रामचरितमानस में भी गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी।। यानी जीव ईश्वर का ही अंश है। लेकिन अगर हम दिन- रात शरीर और इससे जुड़ी बातों के बारे में ही सोचते हैं तो हमारी सोच सीमित हो जाती है। यह अद्भुत है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि सामान्य सांसारिक व्यक्ति के लिए ईश्वर अदृश्य ताकत है। उसके लिए भगवान ओझल हैं। लेकिन जो भक्त हैं, जो योगी हैं, उनके लिए भगवान सदा उपस्थित रहते हैं। वे ईश्वर को महसूस करते हैं। उच्च कोटि के साधक ईश्वर को देखते भी हैं। लेकिन जिनका मन चंचल है (संदर्भ- गीता) वे ईश्वर को कोई दूर की चीज समझते हैं। वे यह मानते हैं कि ईश्वर उनके लिए नहीं हैं। सिर्फ साधु- संतों के लिए हैं। जबकि सच्चाई यह है कि ईश्वर सबके लिए हैं। कहा भी गया है- हरि को भजे, सो हरि के होई।। जो ईश्वर का नाम प्रेम से लेता है, वह ईश्वर को प्रिय है। मां पहली बार जब अपने बच्चे के मुंह से- मां शब्द सुनती है तो उसका मन आह्लादित हो जाता है। ईश्वर भी जब अपने बच्चों के मुंह से अपना नाम सुनते हैं तो आह्लादित होते हैं। उन्हें इंतजार रहता है कि कोई बच्चा उन्हें पुकारे। वे उसकी ओर दौड़ पड़ें। ऐसे सुलभ संबंध होने पर भी ईश्वर को हम सर्वोच्च प्रेम नहीं करते तो इसमें किसका दोष है? परमहंस योगानंद जी की उच्च कोटि की सिद्ध शिष्या दया माता कहती थीं कि कोई कैसे ईश्वर को मन प्राण से चाहे बिना रह सकता है? वही तो सब कुछ हैं। वे दिन रात मन ही मन ईश्वर का जप किया करती थीं।
ऋषियों ने भी कहा है- जो दिन- रात ईश्वर को प्रेम करता है, उसी का मनुष्य जन्म सार्थक है।

Tuesday, March 22, 2011

मनुष्य का जन्म होता है ईश्वर से मिलन के लिए



विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है- मनुष्य योनि में जन्म इसलिए होता है ताकि हम अपने मेरुदंड में स्थित छह चक्रों को खोल सकें। जब ये चक्र सक्रिय हो जाते हैं तो खासतौर से ऊपर वाले तीन चक्र तो हमें ईश्वर का बोध होने लगता है। ये चक्र कैसे खुलेंगे? ऋषियों ने कहा है- अष्टांग योग से। यह क्या है? पातंजलि योग सूत्र में अष्टांग योग की व्याख्या है। पिछले दिनों मैंने गीता प्रेस के बुक स्टाल पर पातंजलि योग सूत्र देखा। गीता प्रेस ने इसे और अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों को प्रकाशित कर असंख्य लोगों का उपकार किया है। अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि है। इसे समझना बहुत जरूरी है।
ऋषियों ने कहा है- जब तक हम ईश्वर से प्रेम नहीं करते, उनकी भक्ति नहीं करते, हमारा कल्याण नहीं होगा। ईश्वर से प्रेम हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर के पास तो सब कुछ है। उनके पास क्या नहीं है? बस एक चीज नहीं है- हमारा प्यार। वे हमारा प्यार पाने के लिए उत्सुक हैं। लेकिन वे तभी प्रसन्न होंगे जब हम यह प्रेम, हम उन्हें स्वेच्छा से देंगे। वे हमें प्रेम करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। इसीलिए उन्होंने हमें फ्री विल या स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। अगर हम अपनी बुरी आदतों के गुलाम हो जाएंगे या अनाप- शनाप चिंतने के शिकार हो जाएंगे तो फिर मन एकाग्रचित्त नहीं होगा। हमें अपने मन का फोकस ईश्वर पर रखना चाहिए। वे ठीक हमारे हृदय में बैठे हैं। लेकिन हम अपने चंचल दिमाग के कारण नहीं महसूस कर पाते। इसे ही महसूस करने के लिए योग का सहारा लेना होता है। दिल से ईश्वर का नाम लेते ही वे हमसे कनेक्ट हो जाते हैं। हमसे जुड़ जाते हैं। चाहे जप करें या पूजा। या मन ही मन प्रार्थना करें, ईश्वर हमारी हर बात सुनते हैं। आखिर वे सर्वव्यापी, सर्वग्याता और सर्वशक्तिमान हैं।

Monday, March 21, 2011

शिव, शिव.... महादेव



विनय बिहारी सिंह

इस बार महाशिवरात्रि में योगदा मठ की सुंदर सी छत पर शिव मंदिर के सामने हो रहे भजन को सुन कर मन आनंद विभोर हो गया। सारे भजन भगवान शिव की अनंतता को व्याख्यायित करने वाले थे। जैसे- शिव, शिव, महादेव......२- हे अनादि हे अनंत.... मेरे प्राण ३- करुणासागर, शिव शंभो..... आदि। इन भजनों में बताया गया है कि भगवान शिव का आकार तो है, लेकिन वास्तव में वे निराकार और अनंत हैं। भक्तों पर बहुत ही कृपालु हैं। उनकी गहराई कोई जान नहीं पाया। लेकिन भक्त उनकी गहराई में उतर जाते हैं, भले ही उनकी थाह न ले पाएं, लेकिन उनसे रहा नहीं जाता। वे जानते हैं कि भगवान शिव अनंत हैं। उनकी हैसियत उनकी थाह पाने की नहीं है। लेकिन अपने प्रिय भगवान से दूर भी वे कैसे रह सकते हैं? हे शिव, हे शंभो कहते हुए वे शिवजी की भक्ति में डूब जाते हैं। वे कहते हैं- आप अनंत हैं, लेकिन मैं भी तो आपका ही हूं। मुझे शरण में लीजिए और आप स्वयं को जितना प्रकट करना चाहें कीजिए। लेकिन दर्शन दीजिए। हम आपके लिए व्याकुल हैं भगवान। आप ही हमारे आदि स्रोत हैं। अपने स्रोत से कौन नहीं मिलना चाहेगा। असली आनंद तो अपने स्रोत से मिलने में ही है। हम दुनिया के लोग सोचते हैं कि अच्छा खाने से सुख मिलेगा, अच्छा पहनने से सुख मिलेगा। किसी से मुलाकात करने पर सुख मिलेगा। पर्यटन से सुख मिलेगा। यह करने से सुख मिलेगा, वह करने से सुख मिलेगा। लेकिन सुख कहीं नहीं मिलता। सुख मिलता है तो बस एक जगह ही- सिर्फ और सिर्फ भगवान के पास।
वही हमारे अनंत सुखों के स्रोत हैं। वे यह सुख हमें देने के लिए तैयार हैं। लेकिन ऐसे अनेक लोग हैं जो भगवान का नाम भी पुकारने से परहेज करते हैं। उनका कहना है कि वे बहुत व्यस्त हैं। क्या आश्चर्य है? भोजन के लिए तो समय निकाल लेते हैं, लेकिन भगवान के भजन, स्मरण, जप या पूजा आदि के लिए उनके पास समय नहीं है। हां, गप हांकने के लिए समय निकाल लेते हैं।

Tuesday, March 15, 2011

राजा हरिश्चंद्र की याद में


विनय बिहारी सिंह

राजा हरिश्चंद्र की कथा अत्यंत रोचक लेकिन गहरी सीख देने वाली है। ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से दान में पूरा राजपाट मांग लिया। राजा ने उन्हें अपना संपूर्ण राज्य दे दिया। फिर ऋषि ने उनसे अपना दक्षिणा मांगा। अब उनके पास था ही क्या कि वे देते, पूरा राजपाट तो दे दिया था। इसलिए वे काशी गए और पत्नी तारा और पुत्र रोहतास को एक ब्राह्मण के हाथों बेच दिया। फिर भी दक्षिणा के लिए पूरा धन नहीं जुटा। तब राजा ने खुद को श्मशान के डोम राजा के हाथों बेच दिया। राजा की पत्नी और बेटा ब्राह्मण की नौकरी करने लगे और राजा हरिश्चंद्र श्मशान में जलाए जाने के लिए लाई जाने वाली लाशों पर टैक्स वसूलने की नौकरी करने लगे। ब्राह्मण ने राजा की पत्नी और बेटे को फूल चुनने का काम दिया। फूल चुनते हुए रोहतास को सांप ने डंस लिया और उसका देहांत हो गया। राजा हरिश्चंद्र की पत्नी रोते- बिलखते हुए श्मशान पहुंची। वहां उसके पति ने लाश जलाने का टैक्स पत्नी से मांगा। पत्नी के पास था ही क्या। लेकिन राजा श्मशान के नियम से बंधे थे। उन्हें अपने ही पुत्र के अंतिम संस्कार के लिए अपनी पत्नी से टैक्स मांगा। असहाय पत्नी ने अपनी पहनी हुई साड़ी फाड़ी और शोक में वहीं मृत हो कर गिर पड़ी। राजा ने अपनी पत्नी और बेटे के लिए चिता की तैयारी शुरू की तभी आकाश से दिव्य आवाज आई- आप धन्य हैं हरिश्चंद्र। आपकी जय हो। सभी देवताओं ने राजा हरिश्चंद्र पर फूलों की वर्षा की। रानी तारा और पुत्र रोहतास जीवित हो गए। राजा, रानी और उनके पुत्र के लिए पुष्पक विमान आया। रानी और पुत्र तो बैकुंठ में चले गए लेकिन राजा ने कहा- मेरे बदले आप बैकुंठ में मेरे अयोध्या के लोगों को भेज दीजिए। भगवान ने अयोध्या के सभी
लोगों को बैकुंठ भेज दिया। अंत में उन्होंने राजा हरिश्चंद्र को भी आदर के साथ बैकुंठ भेज दिया। यह कथा उन लोगों के लिए सीख है जो अधिकार के पदों पर बैठे हैं। एक राजा का चरित्र कैसा होना चाहिए, यह इस प्रसिद्ध कथा का मूल संदेश है।

Saturday, March 12, 2011

मनुष्य और जानवर में अंतर



विनय बिहारी सिंह

संत रैदास ने कहा कि जानवर भी खाता-पीता, सोता और बच्चे पैदा करता है। मनुष्य भी वही काम करता है। लेकिन एक अंतर है।
मनुष्य के पास विवेक है। वह जब आसमान देखता है तो उसे सृष्टि की अनंतता का आभास होता है। जब वह पर्वत देखता है तो अपनी लघुता का आभास होता है। प्रकृति का सौंदर्य देखने से, सूर्योदय, सूर्यास्त देखने से ईश्वरी घटनाओं का आभास होता है। लेकिन यह आभास उन्हीं को होता है जो भीतर तक इन चीजों के रहस्य को समझते हैं। लेकिन जो लोग प्रकृति की इन घटनाओं को समझते हैं कि यह तो होना ही है, इसमें नई बात क्या है तो फिर वे सूक्ष्म स्तर पर नहीं जा पाते। मनुष्य के पास दिमाग है, विवेक बुद्धि है। इसी के कारण वह अन्य जीवों से श्रेष्ठ है। मनुष्य के भीतर अपने बाल- बच्चों के लिए प्रेम है तो पशु- पक्षी के भीतर भी अपने बच्चों के प्रति प्रेम है। लेकिन मनुष्य का प्रेम तब विस्तारित हो जाता है, जब वह अपने अलावा अन्य की भी सेवा करता है। यह विस्तार ही उसे श्रेष्ठ मनुष्य बनाता है। संत रैदास कहते थे कि श्रेष्ठ मनुष्य वही है जो भगवान से प्रेम करता है।

Thursday, March 10, 2011

जापर कृपा राम के होई



विनय बिहारी सिंह

ऋषियों ने कहा है कि जिन पर भगवान की कृपा होती है, वे सदा के लिए अनंत आनंद में रहते हैं। भगवान की कृपा कब होती है? ऋषि कहते हैं- जब उनके सामने समर्पण कर दिया जाता है। जिसने समर्पण किया है वह यह नहीं मानता कि अच्छे काम वह स्वयं कर रहा है। वह मानता है कि भगवान ही कर रहे हैं और मुझे माध्यम बना रहे हैं। यह अहंकार मुक्त अवस्था है। हममें से कितने लोग ऐसा सोच पाते हैं? जापर कृपा राम के होई..... जिस पर राम की कृपा हो गई, उसके साथ सभी सहयोग करने को तैयार रहते हैं। समूचे ब्रह्मांड की शक्तियां उसकी मदद करती हैं। वह तो खुद को भगवान के चरणों में सौंप चुका होता है। उसे किस बात की चिंता। सारे धर्मों के संत महात्माओं ने बार- बार कहा है- हमारे ही नहीं, इस समूची सृष्टि के मालिक भगवान ही हैं। उन्हें प्रेम करने से हमारी तृप्ति हो जाएगी। अन्यथा सुख की खोज में हम दर- दर भटकते रहेंगे, दुख ही दुख मिलेगा, धोखा ही धोखा मिलेगा। सुख तो केवल एक ही स्थान पर मिलता है। वह स्थान है भगवान के चरण। यानी भगवान को सरेंडर। सरेंडर करते ही, वे हमें अपने हृदय से लगा लेंगे। वे कहते हैं- हम भक्तन के, भक्त हमारे।।

Monday, March 7, 2011

रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में



विनय बिहारी सिंह


रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों से बड़े प्रेम से ध्यान करने को कहते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्य नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) से कहा- जाओ पंचवटी (प्रसिद्ध काली मंदिर परिसर में साधना का एक स्थान) में जाकर ध्यान करो। नरेंद्र ध्यान करने चले गए। तीन घंटे बाद वे अपने गुरु के पास लौटे तो रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें प्रेम से अपने पास बिठाया और कहा- जानते हो ध्यान कैसे करना चाहिए? नरेंद्र ने अपने गुरु की तरफ देखा। गुरु बोले- जैसे तेल की धार। ठीक वैसा ही ध्यान। जैसे तेल की धार बिना किसी बाधा या रुकावट के गिरती रहती है। उसी तरह साधक को निरंतर भगवान में ध्यान लगाए रखना चाहिए। यह प्रसंग रामकृष्ण वचनामृत में है जिसके लेखक हैं श्री म। यानी महेंद्रनाथ गुप्त। महेंद्रनाथ गुप्त अपना संक्षिप्त नाम श्री म लिखते थे। श्री म भी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। इस पुस्तक का एक और प्रसंग याद आ रहा है। एक जगह उन्होंने कहा है- ईश्वर एक हैं। उनके नाम अलग- अलग हैं। जैसे पानी को कोई जल, तो कोई वाटर तो कोई एक्वा कहता है, ठीक उसी तरह कोई भगवान को गॉड, तो कोई prabhu तो कोई अन्य नाम से पुकारता है। इसी तरह शिव, काली, दुर्गा, कृष्ण, राम आदि एक ही हैं। बस इनके नाम अलग- अलग हैं। रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी जी कहते थे- रामकृष्ण परमहंस जैसा व्यक्ति मैंने नहीं देखा है। जो बात लोग वर्षों में सीखते हैं, ये तीन दिन मे सीख गए। इसी वजह से तोतापुरी जी जो एक जगह पर १२ घंटे से ज्यादा नहीं ठहरते थे, रामकृष्ण परमहंस के पास एक साल तक ठहर गए थे। इसी कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में वे साल भर तक रहे और अपने शिष्य रामकृष्ण परमहंस की अद्भुत लीलाओं को देखा। रामकृष्ण परमहंस की तंत्र की गुरु थीं- साध्वी ब्राह्मणी। तोतापुरी जी वेदांत के गुरु थे और साध्वी ब्राह्मणी तंत्र विद्या की गुरु थीं।

Friday, March 4, 2011

एक बड़े डाक्टर की आत्मस्वीकृति



विनय बिहारी सिंह

आज देश के जाने- माने अस्पताल अपोलो (कोलकाता) के एक बड़े डाक्टर एसके दास से बातचीत हुई। उन्होंने कहा- भविष्य के बारे में कुछ भी ठीक नहीं है। मेरे एक मित्र डाक्टर पूरी तरह स्वस्थ थे। उनकी पत्नी भी डाक्टर हैं। मेरे मित्र अपना चेक अप हर १५ दिन पर कराते रहते थे, जबकि वे पूरी तरह स्वस्थ थे। उन्हें न सुगर की बीमारी थी और न ही ब्लड प्रेसर। पूरी तरह स्वस्थ थे। अपनी पत्नी के साथ एयरपोर्ट जा रहे थे। अचानक उनकी मृत्यु हो गई। बताइए, अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने वाला एकदम स्वस्थ डाक्टर इस दुनिया से अचानक चला गया। जिसे इस दुनिया से जाना है, उसे कोई रोक नहीं सकता। मुझे ऋषियों की याद आई। ऋषि तुल्य तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश विधि हाथ। चाहे जन्म हो या मृत्यु, हानि हो या लाभ, यश हो या अपयश, सब कुछ ईश्वर के हाथ में है।
वैसे तो मैं यह बात मानता ही था, लेकिन एक प्रतिष्ठित अस्पताल के प्रतिष्ठित डाक्टर के मुंह से यह बात सुन कर लगा कि व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र का विशेषग्य हो, ईश्वर की लीला से इंकार नहीं कर सकता। मनुष्य के जीवन में प्रति दिन ऐसी घटनाएं घटती हैं जिससे बार- बार यह साबित हो जाता है कि ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वग्याता और सर्वशक्तिमान हैं। ऋषियों की यह उक्ति कि भगवान इस सृष्टि के कण- कण में हैं, कितनी गहरी और स्पष्ट है। उन्होंने मनुष्य के हित में यह बात कही है। ईश्वर सर्वव्यापी हैं, हर जगह हैं, लेकिन जिनकी आंखों पर भ्रम की पट्टी या कहें मायाजाल की पट्टी बंधी हुई है, वे इसे महसूस नहीं कर पाते। यह पट्टी हम सबने खुद बांध ली है। जिस दिन हम यह पट्टी खोल लेंगे। हमारा जीवन बदल जाएगा। पट्टी खुलेगी कैसे? जप और प्रार्थना से, ध्यान- धारणा से, ईश्वर के प्रति समर्पण से और निरंतर गहरी होती भक्ति से।

Thursday, March 3, 2011

भगवान शिव का एक प्रेमी




विनय बिहारी सिंह

शिव जी का एक अनन्य प्रेमी था। वह जिस लोटे से नहाता धोता था, उसी से भगवान शिव को जल चढ़ाता था। आमतौर पर जल चढ़ाने के लिए लोग अलग पात्र रखते हैं, जो अत्यंत पवित्र माना जाता है। भगवान शिव उस भक्त से बड़े प्रसन्न रहते थे। एक दिन माता पार्वती ने पूछा- आप इस भक्त पर इतने प्रसन्न क्यों रहते हैं। वह तो जिस लोटे से खाता- पीता, नहाता है, उसी से आपको जल भी चढ़ाता है। दूसरे भक्त इससे भी ज्यादा पवित्रता से आपकी पूजा- अर्चना करते हैं, लेकिन उनके प्रति तो आप इतनी कृपा नहीं दिखाते? भगवान शिव ने कहा- ठीक है, चलो मैं इसका कारण तुम्हें बता देता हूं। पार्वती जी के साथ वे पृथ्वी लोक में आए। जिस मंदिर में उनका प्रिय भक्त जल चढ़ाने आता था, वहां पहुंचे। भक्त शिवलिंग पर जल चढ़ा रहे थे। भगवान शिव का प्रिय भक्त भी आया। तभी हल्ला हुआ कि भूकंप आ रहा है। सारे जल चढ़ाने वाले जी- जान लगा कर भागने लगे। लेकिन शिव जी का प्रिय भक्त शिवलिंग को अपने हाथों से घेर लिया और कहने लगा- हे भगवान, मुझे चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन आपके शिवलिंग को कुछ न हो। मेरे प्राणों से भी प्रिय है यह शिवलिंग और यह मंदिर। माता पार्वती यह देख कर समझ गईं कि शिव जी इस भक्त का क्यों आदर करते हैं। यह व्यक्ति अपने प्राणों की परवाह न कर भगवान के लिए तड़प रहा है। जबकि सारे लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग रहे हैं।
हममें से ज्यादा लोग भगवान शिव से तरह- तरह की चीजें मांगते हैं। धन, नौकरी, ऐश्वर्य, नाम और सुख। लेकिन ऐसे भी भक्त हैं जो कुछ नहीं मांगते। वे सिर्फ भगवान शिव को प्यार करते हैं और कहते हैं- भगवान, सिर्फ एक ही चीज की व्यवस्था कर दीजिए। भगवान पूछते हैं- क्या? तो अनन्य भक्त कहते हैं- आपके प्रति मेरा प्रेम, मेरी भक्ति लगातार बढ़ती रहे। मैं आपके संपर्क के आनंद में लगातार रहूं। यह प्रेम सदा के लिए बना रहे। बस। ऊं नमः शिवाय

Tuesday, March 1, 2011

दिव्य आनंद के प्रतीक भगवान शिव




विनय बिहारी सिंह


महाशिवरात्रि है भगवान शिव की विशेष रात्रि। कई साधक महाशिवरात्रि को सोते नहीं हैं। वे रुद्राक्ष की माला लेकर ओम नमःशिवाय का जाप करते हैं या माला एक तरफ रख कर गहरे ध्यान में लीन हो जाते हैं। हम सबने भगवान शिव का चित्र देखा है। उनकी थोड़ी सी खुली आंखों की पुतलियां ऊपर की तरफ उठी हुईं, होठों पर मनोहारी मुस्कान। वे समाधि में बैठे हैं। गले में सर्प सामने की तरफ फन निकाले हुए है (यानी भगवान की कुंडलिनी पूर्ण रूप से जाग्रत है)। वे मृगचाला पहने हुए हैं और पद्मासन में बैठे हुए हैं। आप चाहे जितनी देर उनकी इस छवि को निहारें, आप अपने भीतर शांति महसूस करेंगे। आइए अब शिवलिंग की चर्चा करें। शिवलिंग का अर्थ है- अनंत प्रकाश, अनंत शक्ति और अनंत व्यापकता। शिवलिंग भी कई तरह के होते हैं- कुछ गोल, कुछ लंबाई के आकार के, कुछ लाल, कुछ श्वेत, कुछ श्याम...... नाना रंग। इसका अर्थ है कि भगवान सारे रंगों और रूपों में हैं। भगवान शिव का लिंग मूलतः अनंतता का प्रतीक है। कहा गया है कि भगवान शिव अपने भक्तों के दुख सबसे पहले नष्ट करते हैं। अगर किसी को मृत्यु भय है तो वह महामृत्युंजय का जप करता है। महामृत्युंजय जप भगवान शिव की स्तुति ही है। शिव जी किसी भी प्रकार के भय, रोग और शोक को हर लेते हैं। इसीलिए उनका नाम हर है। कहा जाता है- हर, हर महादेव। शिव जी अनंत शांति, अनंत आनंद और अनंत बुद्धि के दाता हैं। समुद्र मंथन में जब विष निकला तो उसे भगवान शिव ने ही लोक कल्याण के लिए पी लिया और अपने गले में रख लिया। वे संसार के किसी भी कष्ट का हरण करने वाले महादेव हैं। अपने भक्तों को नित नवीन आनंद देते हैं। उनकी पूजा में भी कोई दिक्कत नहीं है। बेलपत्र, फूल और जल चढ़ाइए और ओम नमः शिवाय का जाप कीजिए। अगर आपके पास बेल का फल है तो सोने में सुगंध। उसे भगवान शिव को चढ़ा दीजिए। भगवान शिव को धतूरे का फल और फूल भी चढ़ाया जाता है। लेकिन अगर आपके लिए यह सब पाना आसान नहीं है तो बस बेलपत्र, कुछ सुंदर फूल और कोई भी फल चढ़ा दीजिए। भगवान उसी पर खुश रहते हैं। बस शर्त एक ही है- आपके दिल में उनका सबसे ऊंचा स्थान होना चाहिए। चाहे आप सिर्फ जल ही क्यों चढ़ाएं।