Thursday, November 25, 2010

अमृत हैं शरद संगम के प्रवचन


विनय बिहारी सिंह


यदि कहें कि शरद संगम में अमृत बरस रहा था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जीवन के प्रत्येक पक्ष को छूने वाली संतों की वाणी चाहे जितनी बार भी पढ़ी या सुनी जाए, मन तृप्त नहीं होता। आइए पढ़े कुछ प्रवचनों के अंश।
स्वामी शांतानंद जी ने कहा- हमें भगवान के न्याय, उनकी योजना, उनकी इच्छा और समय पर गहरा विश्वास करना चाहिए। एक भक्त का प्राथमिक गुण है- प्रेम, साहस, सेवा और निष्ठा। जीवन में जो कुछ करें, आनंद के साथ करें। दूसरों की मदद करें। छोटी- छोटी बातों का भी महत्व होता है। अपनी व्यस्तता के बीच एक क्षण को रुकें और ईश्वर से कहें- भगवान मैं आपसे प्रेम करता हूं। बस, फिर काम में लग जाएं। यदि आप ईश्वर से प्रेम करते हैं तो सबसे प्रेम करेंगे। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने विशिष्ट बनाया है। ईश्वर के साथ हमें सर्वाधिक आत्मीयतापूर्ण संबंध बनाना चाहिए।
विषय था- भगवान- जीवन के ध्रुवतारा।
स्वामी शुद्धानंद जी ने कहा- सृष्टि के साथ तालमेल को प्रेरित करने वाली शक्ति है तो यह तालमेल नष्ट करने वाली शक्ति भी साथ- साथ काम कर रही है। हमें सजग रहना है। जीवन में रोग, हताशा और विपत्ति आती है। तो इसे दूर करने का एकमात्र सूत्र है- ईश्वर के साथ समस्वरता। ईश्वर से संपर्क साधिए। गुरुजी (परमहंस योगानंद जी) ने कहा है हमें अपने शरीर और मन को दिव्य ऊर्जा से चार्ज करते रहना चाहिए। यह मेंटल इंजीनियरिंग है। शरीर और मन को तनाव रहित और शांत रखें। एक अन्य तरीका भी गुरुजी ने सिखाया है- असफलता के दौरान सफलता के बीज बोना। हम अपने दुर्बलतम क्षणों में सर्वोच्च शक्तिशाली बन सकते हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- अपने हृदय में ईश्वर को लेकर, मुस्कराते हुए सत्य के लिए काम करें। आप अपने जीवन में खुशियां ही खुशियां पाएंगे। विषय था- गुरुदेव की शिक्षाओं का दैनिक जीवन में उपयोग। स्वामी जी ने कहा- जब भी भय हो, ओम का उच्चारण करें।
साधना का मुख्य उद्देश्य- शुद्धिकरण, विषय पर स्वामी कृष्णानंद ने कहा- शुद्धि दो तरह की होती है- वाह्य और आंतरिक। हम बाहर की शुद्धि स्वच्छता, अगरबत्ती, आरती, पूजा इत्यादि से करते हैं। लेकिन आंतरिक शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। आपका भोगाभोग भी शुद्धिकरण ही है। ईश्वर में लय के लिए माया की परतों को हटाना जरूरी है। प्राणायाम के अभ्यास से सारे भोग भस्म होते हैं और पवित्रता आती है। स्वामी जी ने गीता और पातंजलि योगसूत्र के कई उद्धरण पेश किए। अनुशासनहीन व्यक्ति ईश्वर की अनुभूति नहीं कर सकता। जीवन में खुद को अनुशासित करना चाहिए। ईश्वर के प्रति प्रेम को बढ़ाते रहना चाहिए। इससे भी शुद्धि होती है।
संतुलित जीवन का महत्व विषय पर स्वामी स्मरणानंद जी ने कहा- खुशी को लेकर हमारा चिंतन एकतरफा नहीं होना चाहिए। कोई सोचता है कि वह धन कमा लेने से ही सुखी हो जाएगा। या कोई सोचता है कि अमुक चीज मिल जाने से वह सुखी हो जाएगा। ईश्वर में ही समग्र खुशी निहित है। हर व्यक्ति के पास अनेक जिम्मेदारियां हैं- परिवार की, आफिस की, सामाजिक जीवन की और आत्मा की। अगर पहले तीन में असंतुलन हो जाए तो कोई न कोई आपको याद दिला देगा। लेकिन यदि आपने आत्मा की जरूरतों की अवहेलना की तो आपको कोई नहीं याद दिलाएगा। इसलिए हमें अतिरिक्त रूप से सावधान रहना चाहिए। गुरुजी ने कहा है- हमें ईश्वर की तरफ ध्यान देना चाहिए, बाकी सभी जरूरतें अपने आप पूरी हो जाएंगी। ध्यान और सही कार्य से जीवन में संतुलन आता है। हेनरी फोर्ड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सप्ताह में पांच दिन काम करने का नियम बनाया। छठा दिन परिवार के लिए और सातवां दिन ध्यान और प्रार्थना के लिए। महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन रखते थे। अगर हम रविवार को दावतों और अन्य वाह्य गतिविधियों में ज्यादा व्यस्त रहेंगे तो सोमवार को थका- थका महसूस करेंगे। लेकिन यदि इसे ध्यान और सकारात्मक गतिविधियों में लगाते हैं तो सोमवार को नई ताजगी महसूस होगी। उन्होंने कहा- जब भगवान हमें सुख देते हैं तो हम नहीं कहते कि भगवान यह मेरे साथ ही क्यों। लेकिन जब दुख मिलता है तो कहते हैं- मैं ही क्यों भगवान? इसके बदले हमें पूछना चाहिए- मैं ही क्यों नहीं और फिर अपने जीवन के अच्छी घटनाओं को याद कीजिए। ईश्वर का आशीर्वाद आपको मिला है।
गुरु के प्रति गहरी और अटूट आस्था विषय पर स्वामी ईश्वरानंद ने कहा- हमारे गुरु ने हमें वचन दिया है कि वे हमारे भीतर ईश्वर की उपस्थिति को महसूस कराएंगे। लेकिन यह न तो आसान है और न ही तुरंत होता है। गुरु- शिष्य का संबंध पवित्र रिश्ता है। एक बार यह स्थापित हो गया तो टूट नहीं सकता। यही ईश्वर प्राप्ति की चाभी है। शत- प्रतिशत समस्वरता यानी ईश्वर में पूरी तरह डूब जाना। विश्वास धीरे- धीरे प्रगाढ़ होता है। प्रारंभ में आत्मा और परमात्मा अनजाने से लगते हैं। समय के साथ यह संबंध मजबूत होता जाता है। गुरुजी ने वादा किया है- जब तुम्हें मेरी जरूरत होगी, मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा। इसे कई सन्यासियों ने शारीरिक पीड़ा के समय महसूस किया है।
पूरी तरह वर्तमान क्षण में जीना विषय पर स्वामी ललितानंद जी ने कहा- हम एक ही समय में वर्तमान, अतीत और भविष्य में नहीं रह सकते। अतीत की गलतियों पर पछताने और भविष्य से डरने की बजाय ईश्वर पर भरोसा रख कर वर्तमान में जीना सीखिए। वर्तमान क्षण, भविष्य की कल्पना के कारण ओझल सा हो जाता है। वे ही लोग खुश रहते हैं जो वर्तमान में जीने के दर्शन पर चलते हैं। भविष्य के बारे में हम कैसे सोचने लगते हैं? इसकी वजह है- तनाव, दुख, भय और परेशानी। क्या होगा? यही प्रश्न मन में उठता है। चिंता हमारे लिए ब्रेक की तरह है। वह हमारी प्रगति रोक देती है। चिंता मेंटल ब्रेक है। और ब्रेक लगा कर गाड़ी चलाएंगे तो वह खराब हो जाएगी। हमें इस प्रवृत्ति को तोड़ने की कला सीखनी चाहिए।
बुधवार को स्वामी निर्वाणानंद जी ने तीन घंटे का ध्यान कराया। इस दौरान उन्होंने बताया कि ध्यान कैसे करें। उनके निर्देशों पर ध्यान करते हुए भक्त आनंद में डूबे हुए थे। तीन घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला।
वृहस्पतिवार का दिन क्रिया दीक्षा की दिन था। इस दिन २०० से ज्यादा लोगों ने दीक्षा ली। दीक्षा लेने वालों के लिए अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में तथ्य समझने के लिए अलग- अलग पंडाल थे। दोनों पंडालों में पहले से क्रिया ले चुके करीब १००० भक्त मौजूद थे। नए दीक्षा लेने वालों को स्वामी जी लोगों ने भोजन परोसा। दीक्षा एक अद्भुत और आह्लादकारी अनुभव है, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
स्वामी शुद्धानंद जी ने मुक्ति पर गीता के वचनों पर केंद्रित प्रवचन दिया। परमहंस योगानंद जी की पुस्तक योगी कथामृत का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा- भादुड़ी महाशय ने कहा है कि सांसारिक लोग ईश्वर के साथ संपर्क की संपत्ति की बजाय भौतिक खिलौनों के पीछे भागते रहते हैं। वैराग्य से सांसारिक वस्तुओं का मोह छूटता है और ईश्वर से प्रेम बढ़ता है। सांसारिक सुख के सिक्के की दूसरी तरफ दुख है। गीता मे कहा है फल की चिंता मत करें। सिर्फ कर्तव्य करते जाएं। उन्होंने याद दिलाया कि सन १८६१ में लाहिड़ी महाशय की क्रिया दीक्षा के समय हिमालय में कैसे महावतार बाबाजी ने सोने का महल प्रकट कर दिया। ईश्वर के साथ संपर्क होने के बाद वे आपकी सारी जरूरतें पूरी कर देते हैं।
उसी दिन शुद्धानंद जी ने भयरहित जीवन जीने वर केंद्रित प्रवचन दिया। उन्होंने कहा- जब भी भय हो, ओम का उच्चारण करें। ईश्वर में गहरी आस्था रखें। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- योगी को ध्यान में निर्भय हो कर बैठना चाहिए। अभय पर गीता के १६वें अध्याय में महत्वपूर्ण बात कही गई है। आत्मा के २६ गुणों में एक भय रहित होना भी है। मुख्य बात है ईश्वर में गहरा विश्वास। ईश्वर को पाने की लगातार कोशिश करते रहें।
अंतिम दिन था प्रश्नोत्तर का। स्वामी स्मरणानंद जी ने तेलुगु में और स्वामी ईश्वरानंद ने हिंदी में भक्तों के प्रश्नों के उत्तर दिए। स्वामी ईश्वरानंद जी से एक भक्त ने पूछा- मन क्यों भटकता है? स्वामी जी ने उत्तर दिया- क्योंकि मन का यह स्वभाव है। पानी क्यों फैलता है? क्योंकि फैलना उसका स्वभाव है। मन को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है- ध्यान। मेडिटेशन। शुरू में यदि आपको मन मार कर भी ध्यान करना पड़े तो करें। धीरे- धीरे जब ध्यान का अभ्यास हो जाएगा तो इसमें आनंद आने लगेगा। ईश्वर से संपर्क करने का यही एक मात्र उपाय है। कई अन्य प्रश्न भी पूछे गए। जिसका संतोषजनक उत्तर मिला।

1 comment:

vandana gupta said...

बहुत बढिया और ज्ञानवर्धक उपदेश्……………आभार।