Tuesday, November 23, 2010

सात दिनों तक चला यह विलक्षण समारोह

विनय बिहारी सिंह

रांची में लगातार सात दिनों तक एक गहरा आध्यात्मिक संगम हुआ। देश- विदेश के करीब तीन हजार लोगों ने इसका आनंद उठाया, लेकिन किसी को पता भी नहीं चला। न कोई शोर- गुल, न कोई असुविधा। सब कुछ अत्यंत व्यवस्थित, शांत, अनुशासित और आनंदपूर्ण। इसीलिए यह विलक्षण था। इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में झारखंड की राजधानी में यह आयोजन कई अर्थों में विशिष्ट था। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के आश्रम में यह समारोह पूरी तल्लीनता से चल रहा था। लेकिन आश्रम के सामने से गुजर रहे लोगों को पता नहीं चलता था कि आश्रम में भक्त भजन में, ध्यान में, सन्यासियों से बातचीत में और जलपान या भोजन में व्यस्त हैं। आश्रम का प्रत्येक कण आनंद से ओतप्रोत था। आइए इसे तनिक विस्तार से जानते हैं। समारोह था- शरद संगम। हर साल नवंबर में यह अद्भुत कार्यक्रम होता है और आध्यात्मिक रुचि वाले लोग इसमें आकर ईश्वरीय रसायनों से ओतप्रोत होते हैं।
हम सब १४ नवंबर को कोलकाता से रांची, ट्रेन से पहुंचे। हम स्टेशन से बाहर आएं, इसके पहले ही देखा- वालंटियर या स्वयंसेवी भक्त छोटी- छोटी तख्तियों पर वाईएसएस (योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया) लिख कर खड़े थे। वे हमसे कह रहे थे- आपके लिए बस इंतजार कर रही है। स्टेशन के बाहर निकले तो आगे बढ़ कर हमारा सामान हाथ बढ़ा कर ले लिया। उसे एक ट्रक में करीने से रख दिया और कहा- अब सामान की जिम्मेदारी हमारी। आप आराम से बस में बैठें। बस खड़ी थी। हम सब उसमें सवार हो गए। जल्दी ही हम सब आश्रम में थे।
हमारा सामान पहुंच चुका था। हमने अपना रजिस्ट्रेशन कराया। हमें एक खूबसूरत पुस्तिका दी गई ताकि हम विभिन्न प्रवचनों, अपने विचारों या और कुछ भी नोट कर सकें। उसी में था कार्यक्रमों का ब्यौरा और समय। हमें बताया गया कि हमें कहां ठहरना है और एक बैज दे दिया गया जिस पर हमारा नाम और उस स्थान का नाम लिखा था जहां से हम आए थे। हमें पहुंचाने के लिए वालंटियर खड़े थे। उन्होंने हमारा सामान उठा लिया और हमारे कमरे तक पहुंचा दिया। हम लाख कहते रहे- कृपया अपना सामान हमें उठाने दें। पर वे हंस कर आत्मीयता से कहते- हमें सेवा का मौका दीजिए। जहां हम ठहरे- २४ घंटे बिजली औऱ पानी की व्यवस्था। हम तैयार हो कर कार्यक्रमों में पहुंचे। आश्रम में लगातार लोग आते जा रहे थे। रजिस्ट्रेशन हो रहा था। लोगों के लिए वाहन की व्यवस्था की जा रही थी। लेकिन सब कुछ शांति से, प्रेम से संपन्न हो रहा था। इस आश्रम को महान योगी परमहंस योगानंद जी ने १९१७ में स्थापित किया था। उद्देश्य था- लोगों को योग की शिक्षा देना। लेकिन एक मिनट रुकिए। कई लोग योग का अर्थ सिर्फ योगासन समझते हैं। लेकिन यहां योग का अर्थ है- आत्मा का परमात्मा में लय या योग। आत्मा का ईश्वर से वियोग हो गया है। उसे फिर स्वाभाविक स्थिति में लाने के लिए योग करना है। परमहंस जी ने भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की और विदेशों में सेल्फ रियलाइजेशन नामक संस्था की। इन दोनों संस्थाओं के नाम अलग- अलग हैं। पर हैं ये एक ही। पूरे विश्व के केंद्रों या आश्रमों की अध्यक्ष हैं- दया माता। करुणा, प्रेम और दया की साक्षात मूर्ति।
किन- किन प्रदेशों से कितने लोग आए थे शरद संगम में। आइए संक्षेप में जानें। हर जगह के भक्तों की सूची तो नहीं मिल पाई लेकिन महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक से १००- १०० लोग और आंध्र प्रदेश से सबसे ज्यादा ३०० लोग आए थे। जरा ठहरें। यह बताना तो मैं भूल ही गया कि जम्मू के अमर सिंह और उनके साथी आए थे तो कैलाश- मानसरोवर की परिक्रमा कर लौटे केरल के राजप्पन भी थे। गले मिलने को तैयार। चंडीगढ़, लुधियाना से लेकर महाराष्ट्र, गुजरात और अन्य प्रदेशों के लोग। सिर्फ पश्चिम बंगाल से ही करीब १०० लोग थे। इसके अलावा ओडीशा से भी। यानी कश्मीर से कन्याकुमारी तक के भक्त। देश के कोने- कोने से। विदेशों से भी अनेक लोग थे। इनमें अमेरिका और आस्ट्रेलिया से आए भक्तों से तो मैं खुद परिचित था। दक्षिण अफ्रीका का एक भक्त मेरे सामने भोजन कर रहा था। रंग- गहरा श्यामल, बाल अत्यधिक घुंघराले, होठ- मोटे। चेहरा- फूल की तरह खिला हुआ। इस बार घोषणा हुई- योगदा पाठमाला जो अब तक अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी, अब हिंदी में भी पढ़ी जा सकेगी। कुल १६०० भक्तों ने रजिस्ट्रेशन कराया था। लेकिन ध्यान के समय करीब १३०० लोग और जुड़ जाते थे। इनमें से कई तो स्थानीय होटलों में ठहरे थे और अनेक स्थानीय यानी रांची के भक्त थे।
आइए जलपान औऱ भोजन के इंतजामों के बारे में जानें।
आश्रम में कुल ७० वालंटियर भक्तों की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रजिस्ट्रेशन वाले ही दिन हमें भोजन के कूपन दे दिए गए थे। नाश्ते के कूपन जलपान वाली जगहों पर उपलब्ध थे। भक्त कतार से खड़े हो कर अपना जलपान ले लेते थे। फिर चाय या कॉफी। चमकते हुए स्टेनलेस स्टील के बर्तनों में प्रतिदिन नए किस्म का अत्यंत स्वादिष्ट जलपान। आश्रम के लॉन में बिछी कुर्सी- मेजों पर बैठ कर जलपान करना एक अलग ही सुख था। जगह- जगह कूड़ेदान रख दिए गए थे। जलपान हमें प्लास्टिक में नहीं, पेड़ के सुंदर से पत्तों पर मिलता था। यानी पर्यावरण का पूरा ख्याल रखा गया था। एक भक्त ने कहा- अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं पर है। गुरुदेव परमहंस योगानंद के आश्रम में। जगह- जगह पीने के पानी का इंतजाम। जहां इतने लोगों का समूह था, कहीं जमीन पर कागज का एक टुकड़ा भी नहीं दिखता था। कहीं कुछ भी तनिक भी गंदा नहीं। सब कुछ चमकदार, आकर्षक और पवित्र। भोजन के समय १६०० लोग आनंद से खड़े होते औऱ देखते ही देखते उनकी बारी आ जाती। वहां भी स्वयंसेवक या वालंटियर आपकी थाली मेज पर रखने के लिए तैयार खड़े थे। सभी हाथ जो़ड़ कर एक दूसरे को जय गुरु कह कर प्रणाम कर रहे थे। चाहे एक दूसरे से परिचय हो या नहीं। सभी गुरुभाई और बहन थे। सभी एक परिवार के सदस्य थे। एक दूसरे के सुख- दुख में एक होने को तैयार। कपड़े गंदे हो गए तो आश्रम में ही धोबी था। आप उसे दे दीजिए। एक दिन बाद आपको धुले और इस्तरी किए कपड़े मिल जाएंगे। आश्रम में ही था जरूरत के सामान का स्टाल। झोला, आसन, पके फल, सूखे फल, साबुन, तेल, टूथपेस्ट और आवश्यकता की अनेक चीजें वहां उपलब्ध थीं। उसी से सटे एक शिविर में डाक्टर भी थे। अगर आपको कोई असुविधा हो तो बिना किसी फीस के आप डाक्टर से परामर्श ले लीजिए। दवा भी उपलब्ध थी। यह समारोह १४ से २१ नवंबर तक चला। भक्तों को महसूस हुआ कि उनके परमगुरु भगवान कृष्ण, जीसस क्राइस्ट, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्री युक्तेश्वर जी और गुरु परमहंस योगानंद हर क्षण उनके साथ हैं।

1 comment:

Unknown said...

विनय बिहारी जी, आपने इतने अच्छे से इसका वर्णन किया। सोच रहे हैं, गर हम भी वहाँ जाते। सर इसके रजिस्ट्रेशन के लिए क्या भुगतान करना होता है?