Monday, November 29, 2010

courtesy- BBC Hindi service

ख़ून से पता चल जाएगी उम्र

जमा हुआ ख़ून

इस तकनीक के अंतर्गत ख़ून में बहने वाली टी-कोशिका के लक्षणों का अध्ययन किया जाता है.

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक का विकास किया है जिससे किसी भी अपराध की जगह से मिले संदिग्ध के ख़ून से उसके उम्र के बारे में अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

विशेषज्ञों का कहना है कि इस तकनीक को फ़ोरेंसिक वैज्ञानिक इस्तेमाल कर सकते है जिससे जांच को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकती है.

इस तकनीक के अंतर्गत ख़ून में बहने वाली टी-कोशिका के लक्षणों का अध्ययन किया जाता है.

टी-कोशिका किसी भी बाहरी हमले जैसे बैक्टीरिया, वायरस या ट्यूमर कोशिकाओं को पहचानने में अहम भुमिका निभाती है. इस दौरान छोटे गोलाकार डीएनए अणु बनते हैं लेकिन इनकी संख्या उम्र के साथ-साथ एक नियमित दर से कम होती जाती है.

ये काम नीदरलौंड्स मे शोधकर्ताओं की टीम ने किया है और इस शोध का प्रकाशन पत्रिकार करंट बॉयलॉजी में किया गया है.

'करंट बॉयलॉजी' में वैज्ञानिकों ने लिखा है कि अपने इस विकास के जरिए उन्होंने जीव-विज्ञान के उस तथ्य को बताया है जिससे किसी भी व्यक्ति की सही और सटीक उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है.

इसमें हर व्यक्ति को एक अलग-अलग उम्र की श्रेणी में डाला गया है और इसमें उम्र का दायरा बीस साल का रखा गया है. नई तकनीक के ज़रिए किसी भी व्यक्ति की उम्र का अंदाज़ा लगाया जा सकता है लेकिन असली उम्र और अनुमानित उम्र में नौ साल तक का फ़र्क हो सकता है.

अनजान की पहचान

डीएनए जानकारी के ज़रिए किसी भी व्यक्ति के बालों या आंखो के रंग का अंदाज़ा लगाना फ़ोरेंसिक क्षेत्र में नया है.

इरेस्मस युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर रॉट्टडेम में मुख्य शोधकर्ता मेनफ्रेड केयसर का कहना है, "जांच से डीएनए जानकारी के ज़रिए मनुष्य के बारे में सबसे सटीक जानकारी मिल सकती है. फ़ोरेंसिक क्षेत्र में पंरपरागत डीएनए की जांच से जांचकर्ताओं को उन्हीं लोगो की पहचान की जा सकती है जिनके बारे में पहले से जानकारी होती है."

ऐसे में सभी फ़ोरेंसिक प्रयोगशालाओं के सामने वो मामले आते हैं जिनके बारे में घटनास्थल से मिले सबूतों के आधार पर जो डीएनए जानकारी मिलती है वो संदिग्ध व्यक्ति पर हुई जांच से मेल नहीं खाती और न ही अपराधियों के इकठ्ठा किए गए आंकड़ों से.

ऐसे में किसी भी व्यक्ति के बारे में मिले सबूतों से रुप-रंग का अंदाजा लगाया जा सकता है और किसी अनजान व्यक्ति को ढूँढने में मदद मिल सकती है.

Saturday, November 27, 2010

ईश्वर को पुकारते रहने की सीख

विनय बिहारी सिंह

योगदा आश्रम रांची में अनेक लोगों ने करीब- करीब एक ही प्रश्न पूछे- ईश्वर की कृपा कैसे मिले। पूज्य सन्यासियों ने कहा- परमहंस योगानंद जी ने कहा है- सदा ईश्वर को पुकारते रहिए। काम करते हुए, आराम करते हुए, चलते- फिरते, सोते- जागते..... हर क्षण। यह पुकार मुंह से नहीं हृदय की गहराई से आनी चाहिए। भाषा चाहे जैसी हो, लेकिन आकुलता होनी चाहिए। संसार की हर चीज से आपका मोहभंग हो जाएगा, लेकिन ईश्वर से आपका मोहभंग हो ही नहीं सकता क्योंकि वे नित नवीन आनंद हैं। उनको पा लेने के बाद सब कुछ मिल जाता है। तब सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। क्योंकि एक केवल ईश्वर ही संपूर्ण हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- हमेशा कहते रहिए- मेरे प्रभु, मेरे प्रभु। भगवान आपके प्रेम से खिंचे चले आते हैं। वे तो आपके भीतर ही हैं। लेकिन हमें इसलिए महसूस नहीं होता क्योंकि हम प्रपंचों में फंसे रहते हैं। बाहरी दुनिया हमारे भीतर भी हलचल मचाए रहती है। इससे मुक्त होते ही भगवान आते हैं यानी अपनी उपस्थिति महसूस कराते हैं। कबीरदास ने कहा ही है-
पोथी पढ़ि- पढ़ि जग मुआ
पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का
पढ़े सो पंडित होय।।

उन्होंने ईश्वर को प्रेम करने का संदेश दिया है। आप चाहे जो कर लें, लेकिन जब तक ईश्वर से प्रेम नहीं करेंगे, आप उनकी उपस्थिति महसूस नहीं कर सकेंगे।
योगदा आश्रम में इन्हीं बातों को आत्मसात करते हुए भक्त आनंद मग्न थे।

Thursday, November 25, 2010

अमृत हैं शरद संगम के प्रवचन


विनय बिहारी सिंह


यदि कहें कि शरद संगम में अमृत बरस रहा था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जीवन के प्रत्येक पक्ष को छूने वाली संतों की वाणी चाहे जितनी बार भी पढ़ी या सुनी जाए, मन तृप्त नहीं होता। आइए पढ़े कुछ प्रवचनों के अंश।
स्वामी शांतानंद जी ने कहा- हमें भगवान के न्याय, उनकी योजना, उनकी इच्छा और समय पर गहरा विश्वास करना चाहिए। एक भक्त का प्राथमिक गुण है- प्रेम, साहस, सेवा और निष्ठा। जीवन में जो कुछ करें, आनंद के साथ करें। दूसरों की मदद करें। छोटी- छोटी बातों का भी महत्व होता है। अपनी व्यस्तता के बीच एक क्षण को रुकें और ईश्वर से कहें- भगवान मैं आपसे प्रेम करता हूं। बस, फिर काम में लग जाएं। यदि आप ईश्वर से प्रेम करते हैं तो सबसे प्रेम करेंगे। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने विशिष्ट बनाया है। ईश्वर के साथ हमें सर्वाधिक आत्मीयतापूर्ण संबंध बनाना चाहिए।
विषय था- भगवान- जीवन के ध्रुवतारा।
स्वामी शुद्धानंद जी ने कहा- सृष्टि के साथ तालमेल को प्रेरित करने वाली शक्ति है तो यह तालमेल नष्ट करने वाली शक्ति भी साथ- साथ काम कर रही है। हमें सजग रहना है। जीवन में रोग, हताशा और विपत्ति आती है। तो इसे दूर करने का एकमात्र सूत्र है- ईश्वर के साथ समस्वरता। ईश्वर से संपर्क साधिए। गुरुजी (परमहंस योगानंद जी) ने कहा है हमें अपने शरीर और मन को दिव्य ऊर्जा से चार्ज करते रहना चाहिए। यह मेंटल इंजीनियरिंग है। शरीर और मन को तनाव रहित और शांत रखें। एक अन्य तरीका भी गुरुजी ने सिखाया है- असफलता के दौरान सफलता के बीज बोना। हम अपने दुर्बलतम क्षणों में सर्वोच्च शक्तिशाली बन सकते हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- अपने हृदय में ईश्वर को लेकर, मुस्कराते हुए सत्य के लिए काम करें। आप अपने जीवन में खुशियां ही खुशियां पाएंगे। विषय था- गुरुदेव की शिक्षाओं का दैनिक जीवन में उपयोग। स्वामी जी ने कहा- जब भी भय हो, ओम का उच्चारण करें।
साधना का मुख्य उद्देश्य- शुद्धिकरण, विषय पर स्वामी कृष्णानंद ने कहा- शुद्धि दो तरह की होती है- वाह्य और आंतरिक। हम बाहर की शुद्धि स्वच्छता, अगरबत्ती, आरती, पूजा इत्यादि से करते हैं। लेकिन आंतरिक शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। आपका भोगाभोग भी शुद्धिकरण ही है। ईश्वर में लय के लिए माया की परतों को हटाना जरूरी है। प्राणायाम के अभ्यास से सारे भोग भस्म होते हैं और पवित्रता आती है। स्वामी जी ने गीता और पातंजलि योगसूत्र के कई उद्धरण पेश किए। अनुशासनहीन व्यक्ति ईश्वर की अनुभूति नहीं कर सकता। जीवन में खुद को अनुशासित करना चाहिए। ईश्वर के प्रति प्रेम को बढ़ाते रहना चाहिए। इससे भी शुद्धि होती है।
संतुलित जीवन का महत्व विषय पर स्वामी स्मरणानंद जी ने कहा- खुशी को लेकर हमारा चिंतन एकतरफा नहीं होना चाहिए। कोई सोचता है कि वह धन कमा लेने से ही सुखी हो जाएगा। या कोई सोचता है कि अमुक चीज मिल जाने से वह सुखी हो जाएगा। ईश्वर में ही समग्र खुशी निहित है। हर व्यक्ति के पास अनेक जिम्मेदारियां हैं- परिवार की, आफिस की, सामाजिक जीवन की और आत्मा की। अगर पहले तीन में असंतुलन हो जाए तो कोई न कोई आपको याद दिला देगा। लेकिन यदि आपने आत्मा की जरूरतों की अवहेलना की तो आपको कोई नहीं याद दिलाएगा। इसलिए हमें अतिरिक्त रूप से सावधान रहना चाहिए। गुरुजी ने कहा है- हमें ईश्वर की तरफ ध्यान देना चाहिए, बाकी सभी जरूरतें अपने आप पूरी हो जाएंगी। ध्यान और सही कार्य से जीवन में संतुलन आता है। हेनरी फोर्ड पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सप्ताह में पांच दिन काम करने का नियम बनाया। छठा दिन परिवार के लिए और सातवां दिन ध्यान और प्रार्थना के लिए। महात्मा गांधी सप्ताह में एक दिन मौन रखते थे। अगर हम रविवार को दावतों और अन्य वाह्य गतिविधियों में ज्यादा व्यस्त रहेंगे तो सोमवार को थका- थका महसूस करेंगे। लेकिन यदि इसे ध्यान और सकारात्मक गतिविधियों में लगाते हैं तो सोमवार को नई ताजगी महसूस होगी। उन्होंने कहा- जब भगवान हमें सुख देते हैं तो हम नहीं कहते कि भगवान यह मेरे साथ ही क्यों। लेकिन जब दुख मिलता है तो कहते हैं- मैं ही क्यों भगवान? इसके बदले हमें पूछना चाहिए- मैं ही क्यों नहीं और फिर अपने जीवन के अच्छी घटनाओं को याद कीजिए। ईश्वर का आशीर्वाद आपको मिला है।
गुरु के प्रति गहरी और अटूट आस्था विषय पर स्वामी ईश्वरानंद ने कहा- हमारे गुरु ने हमें वचन दिया है कि वे हमारे भीतर ईश्वर की उपस्थिति को महसूस कराएंगे। लेकिन यह न तो आसान है और न ही तुरंत होता है। गुरु- शिष्य का संबंध पवित्र रिश्ता है। एक बार यह स्थापित हो गया तो टूट नहीं सकता। यही ईश्वर प्राप्ति की चाभी है। शत- प्रतिशत समस्वरता यानी ईश्वर में पूरी तरह डूब जाना। विश्वास धीरे- धीरे प्रगाढ़ होता है। प्रारंभ में आत्मा और परमात्मा अनजाने से लगते हैं। समय के साथ यह संबंध मजबूत होता जाता है। गुरुजी ने वादा किया है- जब तुम्हें मेरी जरूरत होगी, मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा। इसे कई सन्यासियों ने शारीरिक पीड़ा के समय महसूस किया है।
पूरी तरह वर्तमान क्षण में जीना विषय पर स्वामी ललितानंद जी ने कहा- हम एक ही समय में वर्तमान, अतीत और भविष्य में नहीं रह सकते। अतीत की गलतियों पर पछताने और भविष्य से डरने की बजाय ईश्वर पर भरोसा रख कर वर्तमान में जीना सीखिए। वर्तमान क्षण, भविष्य की कल्पना के कारण ओझल सा हो जाता है। वे ही लोग खुश रहते हैं जो वर्तमान में जीने के दर्शन पर चलते हैं। भविष्य के बारे में हम कैसे सोचने लगते हैं? इसकी वजह है- तनाव, दुख, भय और परेशानी। क्या होगा? यही प्रश्न मन में उठता है। चिंता हमारे लिए ब्रेक की तरह है। वह हमारी प्रगति रोक देती है। चिंता मेंटल ब्रेक है। और ब्रेक लगा कर गाड़ी चलाएंगे तो वह खराब हो जाएगी। हमें इस प्रवृत्ति को तोड़ने की कला सीखनी चाहिए।
बुधवार को स्वामी निर्वाणानंद जी ने तीन घंटे का ध्यान कराया। इस दौरान उन्होंने बताया कि ध्यान कैसे करें। उनके निर्देशों पर ध्यान करते हुए भक्त आनंद में डूबे हुए थे। तीन घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला।
वृहस्पतिवार का दिन क्रिया दीक्षा की दिन था। इस दिन २०० से ज्यादा लोगों ने दीक्षा ली। दीक्षा लेने वालों के लिए अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में तथ्य समझने के लिए अलग- अलग पंडाल थे। दोनों पंडालों में पहले से क्रिया ले चुके करीब १००० भक्त मौजूद थे। नए दीक्षा लेने वालों को स्वामी जी लोगों ने भोजन परोसा। दीक्षा एक अद्भुत और आह्लादकारी अनुभव है, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
स्वामी शुद्धानंद जी ने मुक्ति पर गीता के वचनों पर केंद्रित प्रवचन दिया। परमहंस योगानंद जी की पुस्तक योगी कथामृत का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा- भादुड़ी महाशय ने कहा है कि सांसारिक लोग ईश्वर के साथ संपर्क की संपत्ति की बजाय भौतिक खिलौनों के पीछे भागते रहते हैं। वैराग्य से सांसारिक वस्तुओं का मोह छूटता है और ईश्वर से प्रेम बढ़ता है। सांसारिक सुख के सिक्के की दूसरी तरफ दुख है। गीता मे कहा है फल की चिंता मत करें। सिर्फ कर्तव्य करते जाएं। उन्होंने याद दिलाया कि सन १८६१ में लाहिड़ी महाशय की क्रिया दीक्षा के समय हिमालय में कैसे महावतार बाबाजी ने सोने का महल प्रकट कर दिया। ईश्वर के साथ संपर्क होने के बाद वे आपकी सारी जरूरतें पूरी कर देते हैं।
उसी दिन शुद्धानंद जी ने भयरहित जीवन जीने वर केंद्रित प्रवचन दिया। उन्होंने कहा- जब भी भय हो, ओम का उच्चारण करें। ईश्वर में गहरी आस्था रखें। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- योगी को ध्यान में निर्भय हो कर बैठना चाहिए। अभय पर गीता के १६वें अध्याय में महत्वपूर्ण बात कही गई है। आत्मा के २६ गुणों में एक भय रहित होना भी है। मुख्य बात है ईश्वर में गहरा विश्वास। ईश्वर को पाने की लगातार कोशिश करते रहें।
अंतिम दिन था प्रश्नोत्तर का। स्वामी स्मरणानंद जी ने तेलुगु में और स्वामी ईश्वरानंद ने हिंदी में भक्तों के प्रश्नों के उत्तर दिए। स्वामी ईश्वरानंद जी से एक भक्त ने पूछा- मन क्यों भटकता है? स्वामी जी ने उत्तर दिया- क्योंकि मन का यह स्वभाव है। पानी क्यों फैलता है? क्योंकि फैलना उसका स्वभाव है। मन को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है- ध्यान। मेडिटेशन। शुरू में यदि आपको मन मार कर भी ध्यान करना पड़े तो करें। धीरे- धीरे जब ध्यान का अभ्यास हो जाएगा तो इसमें आनंद आने लगेगा। ईश्वर से संपर्क करने का यही एक मात्र उपाय है। कई अन्य प्रश्न भी पूछे गए। जिसका संतोषजनक उत्तर मिला।

Wednesday, November 24, 2010

अपने भीतर प्रेम, आनंद और शांति बनाए रखने का संदेश

विनय बिहारी सिंह

चौदह नवंबर २०१० को ठीक साढ़े नौ बजे शरद संगम का उद्घाटन हुआ। छह गुरुओं के चित्र के सामने मोहक ढंग से सुसज्जित मंच पर ११ स्वामी जी लोग बैठे। स्वामी का अर्थ है- स्वयं का स्वामी। मन, इंद्रिय बुद्धि और प्राण पर नियंत्रण करने वाले साधक। आत्मोद्धार के प्रतीक। इस अवसर पर दयामाता का संदेश अत्यंत प्रेरक था। वे योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया व सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की संघमाता और अध्यक्ष हैं। आमतौर पर उन्हें मां कहा जाता है। मां ने कहा- शरद संगम में आपको जो प्रेम, आनंद और शांति मिलने वाली है, उसे खोएं नहीं। इसे अपने साथ घर ले जाएं और उसे बनाए रखें। यह प्रतिदिन ध्यान करने से संभव होगा। कुछ अद्भुत बातों का जिक्र करना आवश्यक है। आश्रम में कोई अखबार, या दुनियादारी वाली कोई पत्रिका नहीं थी। संगम में भाग लेने वाले लोगों अखबार वगैरह की जरूरत ही नहीं महसूस होती थी। जो लोग मीडिया से जुड़े थे और योगदा आश्रम के भक्त थे, वे भी अखबार के प्रति उदासीन हो गए थे। जो लोग खबरों में जीते हैं, वे कैसे एक आध्यात्मिक माहौल में रम सकते हैं। यह इसका उदाहरण है। कुछ डाक्टर भी आए थे। वे सात दिनों तक स्वयं को भूल कर भजन, ध्यान और शक्ति संचार व्यायाम को सुखद मान रहे थे। भारी संख्या में मौजूद भक्त किसी व्यक्तिगत काम से आश्रम से बाहर नहीं जाते थे। उन्हें हमेशा लगता था कि कोई महत्वपूर्ण कार्यक्रम छूट न जाए। संगम आए लोगों के पास आध्यात्मिक कामों से बिल्कुल फुरसत नहीं थी। सुबह सात बजे से कार्यक्रम शुरू हो जाता था। सुबह- शाम शक्ति संचार व्यायाम, सामूहिक ध्यान, महत्वपूर्ण विषयों पर प्रवचन, सत्संग। जलपान और भोजन। जिन यात्रियों को धर्मशालाओं में ठहराया गया था, उनके लिए बसों, कारों इत्यादि की व्यवस्था की गई थी। निर्देश पुस्तिका में लिखा था- यदि आपकी तबियत खराब हो जाए या कहीं चोट इत्यादि लग जाए तो कृपया स्वागत कक्ष में आकर सूचित करें ताकि हम आपके उपचार की व्यवस्था कर सकें। सब कुछ व्यवस्थित, शांत और प्रशंसनीय। हजारों लोग कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे हैं। जलपान, चाय और भोजन बन रहा है। लेकिन कहीं कोई गंदगी आपको नहीं मिलेगी। कहीं कोई अव्यवस्था नहीं। प्रवेशार्थियों, ब्रह्मचारियों और सन्यासियों के चेहरों पर व्यस्तता तो दिख रही थी, लेकिन उसके पीछे शांति और आनंद को साफ- साफ महसूस किया जा सकता था। एक भक्त ने कहा- आश्रम में जो उत्कृष्ट व्यवस्था दिख रही है, क्या वह समाज में संभव नहीं है। जैसे यहां हर चीज करीने से रखी जा रही है, एक शांत और कारगर व्यवस्था लगातार काम कर रही है, वैसा ही पूरे देश संभव हो जाए तो क्या हमारे देश का चेहरा नहीं बदल जाएगा? अगर आपके मन में कोई प्रश्न है तो वहां आसपास व्यस्त किसी भी सन्यासी से पूछ सकते हैं। सन्यासी मुस्करा कर क्षण भर रुकेंगे और आपके प्रश्न का उत्तर देकर फिर काम में व्यस्त हो जाएंगे। हम सब समझते हैं कि हमारे सांसारिक जीवन में ही काम होता है, आश्रम में सन्यासी आराम से होंगे। लेकिन यहां तो उल्टा दिखा। भक्तों के लिए यहां दो लाख फाइलें हैं। सबके प्रश्नों, सबकी शंकाओं का समाधान तो होता ही है, किस भक्त ने क्या प्रगति की, उसे आगे क्या करना है, यह भी बताया जाता है। योगदा के स्कूल, दवाखाना और अन्य राहत कार्यों के लिए फाइलें। देश भर की गतिविधियों की फाइलें, योगदा पाठों की फाइलें। हां, सब कुछ कंप्यूटर में हैं। लेकिन इन पर रोज पैनी नजर रखनी पड़ती है। लेकिन इस कठिन परिश्रम से मुक्त होकर सन्यासी गहरा ध्यान करने बैठ जाते हैं। हम परिवारी जन खाली समय में कहीं घूम आते हैं, अखबार पढ़ लेते हैं, या कुछ और कर लेते हैं। लेकिन ये सन्यासी कठिन श्रम करते हुए भी लंबा और गहरा ध्यान करते हैं। फिर हम किस मुंह से पूछें कि आफिस से घर आते आते देर हो जाती है। ध्यान का समय कैसे निकालें? सन्यासी तो लंबे और कठोर श्रम के बाद ध्यान को मधुर आहार मानते हैं। उनसे समय की कमी की बात कहते हुए कोई भी संवेदनशील व्यक्ति हिचक जाता है। हां, अनुशासित जीवन को प्रत्यक्ष देखना एक अलग अनुभव है। परमहंस योगानंद का यह संदेश बार- बार याद आता रहा- हम दिव्य ऊर्जा के अनंत समुद्र में रह रहे हैं। उसे अपने भीतर लाइए। कैसे? उसके तरीके उन्होंने बताए हैं। क्या यही ऊर्जा यहां के संन्यासियों, ब्रह्मचारियों और प्रवेशार्थियों को कठोर परिश्रम करने के योग्य बनाती है? इतनी शांति, धैर्य और गहराई से भक्तों के प्रश्नों का उत्तर देना सहज ही संभव नहीं है। निश्चय ही इसके लिए तप करना पड़ा होगा। हम सांसारिक लोग सब कुछ तो व्यवस्थित रखते हैं लेकिन व्यवहार में ही संतुलित नहीं रह पाते। कई बार झुंझला जाते हैं, झगड़ा कर बैठते हैं, तनाव में आ जाते हैं। संन्यासियों के व्यवहार से लगा- इसे कहते हैं आदर्श व्यवहार। सचमुच सबकुछ हमारे भीतर ही है, लेकिन हम उस पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते।

Tuesday, November 23, 2010

सात दिनों तक चला यह विलक्षण समारोह

विनय बिहारी सिंह

रांची में लगातार सात दिनों तक एक गहरा आध्यात्मिक संगम हुआ। देश- विदेश के करीब तीन हजार लोगों ने इसका आनंद उठाया, लेकिन किसी को पता भी नहीं चला। न कोई शोर- गुल, न कोई असुविधा। सब कुछ अत्यंत व्यवस्थित, शांत, अनुशासित और आनंदपूर्ण। इसीलिए यह विलक्षण था। इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में झारखंड की राजधानी में यह आयोजन कई अर्थों में विशिष्ट था। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के आश्रम में यह समारोह पूरी तल्लीनता से चल रहा था। लेकिन आश्रम के सामने से गुजर रहे लोगों को पता नहीं चलता था कि आश्रम में भक्त भजन में, ध्यान में, सन्यासियों से बातचीत में और जलपान या भोजन में व्यस्त हैं। आश्रम का प्रत्येक कण आनंद से ओतप्रोत था। आइए इसे तनिक विस्तार से जानते हैं। समारोह था- शरद संगम। हर साल नवंबर में यह अद्भुत कार्यक्रम होता है और आध्यात्मिक रुचि वाले लोग इसमें आकर ईश्वरीय रसायनों से ओतप्रोत होते हैं।
हम सब १४ नवंबर को कोलकाता से रांची, ट्रेन से पहुंचे। हम स्टेशन से बाहर आएं, इसके पहले ही देखा- वालंटियर या स्वयंसेवी भक्त छोटी- छोटी तख्तियों पर वाईएसएस (योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया) लिख कर खड़े थे। वे हमसे कह रहे थे- आपके लिए बस इंतजार कर रही है। स्टेशन के बाहर निकले तो आगे बढ़ कर हमारा सामान हाथ बढ़ा कर ले लिया। उसे एक ट्रक में करीने से रख दिया और कहा- अब सामान की जिम्मेदारी हमारी। आप आराम से बस में बैठें। बस खड़ी थी। हम सब उसमें सवार हो गए। जल्दी ही हम सब आश्रम में थे।
हमारा सामान पहुंच चुका था। हमने अपना रजिस्ट्रेशन कराया। हमें एक खूबसूरत पुस्तिका दी गई ताकि हम विभिन्न प्रवचनों, अपने विचारों या और कुछ भी नोट कर सकें। उसी में था कार्यक्रमों का ब्यौरा और समय। हमें बताया गया कि हमें कहां ठहरना है और एक बैज दे दिया गया जिस पर हमारा नाम और उस स्थान का नाम लिखा था जहां से हम आए थे। हमें पहुंचाने के लिए वालंटियर खड़े थे। उन्होंने हमारा सामान उठा लिया और हमारे कमरे तक पहुंचा दिया। हम लाख कहते रहे- कृपया अपना सामान हमें उठाने दें। पर वे हंस कर आत्मीयता से कहते- हमें सेवा का मौका दीजिए। जहां हम ठहरे- २४ घंटे बिजली औऱ पानी की व्यवस्था। हम तैयार हो कर कार्यक्रमों में पहुंचे। आश्रम में लगातार लोग आते जा रहे थे। रजिस्ट्रेशन हो रहा था। लोगों के लिए वाहन की व्यवस्था की जा रही थी। लेकिन सब कुछ शांति से, प्रेम से संपन्न हो रहा था। इस आश्रम को महान योगी परमहंस योगानंद जी ने १९१७ में स्थापित किया था। उद्देश्य था- लोगों को योग की शिक्षा देना। लेकिन एक मिनट रुकिए। कई लोग योग का अर्थ सिर्फ योगासन समझते हैं। लेकिन यहां योग का अर्थ है- आत्मा का परमात्मा में लय या योग। आत्मा का ईश्वर से वियोग हो गया है। उसे फिर स्वाभाविक स्थिति में लाने के लिए योग करना है। परमहंस जी ने भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की और विदेशों में सेल्फ रियलाइजेशन नामक संस्था की। इन दोनों संस्थाओं के नाम अलग- अलग हैं। पर हैं ये एक ही। पूरे विश्व के केंद्रों या आश्रमों की अध्यक्ष हैं- दया माता। करुणा, प्रेम और दया की साक्षात मूर्ति।
किन- किन प्रदेशों से कितने लोग आए थे शरद संगम में। आइए संक्षेप में जानें। हर जगह के भक्तों की सूची तो नहीं मिल पाई लेकिन महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक से १००- १०० लोग और आंध्र प्रदेश से सबसे ज्यादा ३०० लोग आए थे। जरा ठहरें। यह बताना तो मैं भूल ही गया कि जम्मू के अमर सिंह और उनके साथी आए थे तो कैलाश- मानसरोवर की परिक्रमा कर लौटे केरल के राजप्पन भी थे। गले मिलने को तैयार। चंडीगढ़, लुधियाना से लेकर महाराष्ट्र, गुजरात और अन्य प्रदेशों के लोग। सिर्फ पश्चिम बंगाल से ही करीब १०० लोग थे। इसके अलावा ओडीशा से भी। यानी कश्मीर से कन्याकुमारी तक के भक्त। देश के कोने- कोने से। विदेशों से भी अनेक लोग थे। इनमें अमेरिका और आस्ट्रेलिया से आए भक्तों से तो मैं खुद परिचित था। दक्षिण अफ्रीका का एक भक्त मेरे सामने भोजन कर रहा था। रंग- गहरा श्यामल, बाल अत्यधिक घुंघराले, होठ- मोटे। चेहरा- फूल की तरह खिला हुआ। इस बार घोषणा हुई- योगदा पाठमाला जो अब तक अंग्रेजी में ही उपलब्ध थी, अब हिंदी में भी पढ़ी जा सकेगी। कुल १६०० भक्तों ने रजिस्ट्रेशन कराया था। लेकिन ध्यान के समय करीब १३०० लोग और जुड़ जाते थे। इनमें से कई तो स्थानीय होटलों में ठहरे थे और अनेक स्थानीय यानी रांची के भक्त थे।
आइए जलपान औऱ भोजन के इंतजामों के बारे में जानें।
आश्रम में कुल ७० वालंटियर भक्तों की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रजिस्ट्रेशन वाले ही दिन हमें भोजन के कूपन दे दिए गए थे। नाश्ते के कूपन जलपान वाली जगहों पर उपलब्ध थे। भक्त कतार से खड़े हो कर अपना जलपान ले लेते थे। फिर चाय या कॉफी। चमकते हुए स्टेनलेस स्टील के बर्तनों में प्रतिदिन नए किस्म का अत्यंत स्वादिष्ट जलपान। आश्रम के लॉन में बिछी कुर्सी- मेजों पर बैठ कर जलपान करना एक अलग ही सुख था। जगह- जगह कूड़ेदान रख दिए गए थे। जलपान हमें प्लास्टिक में नहीं, पेड़ के सुंदर से पत्तों पर मिलता था। यानी पर्यावरण का पूरा ख्याल रखा गया था। एक भक्त ने कहा- अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं पर है। गुरुदेव परमहंस योगानंद के आश्रम में। जगह- जगह पीने के पानी का इंतजाम। जहां इतने लोगों का समूह था, कहीं जमीन पर कागज का एक टुकड़ा भी नहीं दिखता था। कहीं कुछ भी तनिक भी गंदा नहीं। सब कुछ चमकदार, आकर्षक और पवित्र। भोजन के समय १६०० लोग आनंद से खड़े होते औऱ देखते ही देखते उनकी बारी आ जाती। वहां भी स्वयंसेवक या वालंटियर आपकी थाली मेज पर रखने के लिए तैयार खड़े थे। सभी हाथ जो़ड़ कर एक दूसरे को जय गुरु कह कर प्रणाम कर रहे थे। चाहे एक दूसरे से परिचय हो या नहीं। सभी गुरुभाई और बहन थे। सभी एक परिवार के सदस्य थे। एक दूसरे के सुख- दुख में एक होने को तैयार। कपड़े गंदे हो गए तो आश्रम में ही धोबी था। आप उसे दे दीजिए। एक दिन बाद आपको धुले और इस्तरी किए कपड़े मिल जाएंगे। आश्रम में ही था जरूरत के सामान का स्टाल। झोला, आसन, पके फल, सूखे फल, साबुन, तेल, टूथपेस्ट और आवश्यकता की अनेक चीजें वहां उपलब्ध थीं। उसी से सटे एक शिविर में डाक्टर भी थे। अगर आपको कोई असुविधा हो तो बिना किसी फीस के आप डाक्टर से परामर्श ले लीजिए। दवा भी उपलब्ध थी। यह समारोह १४ से २१ नवंबर तक चला। भक्तों को महसूस हुआ कि उनके परमगुरु भगवान कृष्ण, जीसस क्राइस्ट, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्री युक्तेश्वर जी और गुरु परमहंस योगानंद हर क्षण उनके साथ हैं।

Friday, November 12, 2010

हे भगवान, हे भगवान

विनय बिहारी सिंह


यह भजन मुग्धकारी है। भजन की पंक्तियां हैं- हे भगवान, हे भगवान। इसे ही देर तक गाया जाता है, साथ में होता है हारमोनियम। गाने वाले संत भक्ति से ओतप्रोत हो जाते हैं। उनका साथ देने वाले भक्त भी उसी रस में डूब जाते हैं। मेरा अपना अनुभव है कि यह भजन दिल में गहरे उतर जाता है और भजन बंद होने के बाद भी दिलो- दिमाग में बजता रहता है। एक और भजन है अंग्रेजी में। इसे परम पूज्य परमहंस योगानंद जी ने लिखा है। इसकी पंक्तियां हैं- लाइफ इज स्वीट, डेथ अ ड्रीम, व्हेन दाई सांग फ्लोज थ्रू मी। चार मुखड़ों वाला यह भजन रस विभोर कर देता है। एक बार मैंने इसी भजन को सुनने और इसमें अपना स्वर मिलाने के लिए एक बस छोड़ दी। अगली बस से घर गया। इसे स्वामी शुद्धानंद जी जब गाते हैं तो बात ही कुछ और होती है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के स्वामी शुद्धानंद जी सिद्ध संत हैं। उनके मुंह से यह भजन ईश्वरीय स्पंदन से ओतप्रोत हो जाता है। कुछ लोगों की आंखों से आंसू बहने लगते हैं। इस भजन का हाल ही में हिंदी अनुवाद हुआ है- जीवन है मधुर, मृत्यु सपना। जब मुझमें बहे, तव संगीत। लगे आनंद मधुर, दुख सपना, जब मुझमें बहे, तव संगीत।
ईश्वर को संबोधित यह गीत गहरे उतरता जाता है।
( मित्रों आठ दिनों के लिए मैं रांची के एक आध्यात्मिक अनुष्ठान में जा रहा हूं। वहां ईश्वरीय आनंद की हाट लगी हुई है। वहां से लौटने के बाद आपसे मुलाकात होगी।)

Tuesday, November 9, 2010

भगवान शिव ने मोक्ष प्रदान किया

विनय बिहारी सिंह


एक साधु बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थे। तप से तपस्या। यानी इंद्रियों से मन को खींच कर ईश्वर में लगाना। यही तप है। इसके अलावा खान- पान, आचार- विचार और व्यवहार में संतुलन। तो साधु तपस्या कर रहे थे। अचानक एक रात उनके सामने शुभ्र ज्योति प्रकट हुई। यह ज्योति लगातार फैलती गई। जिस जगह वे तपस्या कर रहे थे, वहां से फैलते- फैलते प्रकाश मानो संपूर्ण ब्रह्मांड तक फैल गया। वहां से प्रकट हुए शुद्ध स्फटिक के समान भगवान शिव। साधु ने आंखें खोलीं। सामने साक्षात भगवान शिव को देख कर वे आनंद से विभोर हो गए। वे बोले- भगवन, मैं तो आप ही को इतने दिनों से पुकार रहा था। कभी ऊं नमः शिवाय का जाप करता था तो कभी कातर हो कर पुकारता था- हे भगवान शिव, आप कहां है। दर्शन दीजिए प्रभु। अब आप आ गए तो अब मत जाइए। हमेशा मेरे ही साथ रहिए। भगवान शिव ने कहा- मेरी इच्छा है कि तुम मुझसे कुछ मांगो। साधु ने कहा- भगवन, आशीर्वाद दीजिए कि मैं सदा शिव आनंद में डूबा रहूं। बस। भगवान शिव ने कहा- ऐसा ही हो। साधु खुशी से नाचने लगे। वे बोले- भगवन, जब आपके आनंद में डूबा रहूंगा तो उस समय आप मेरे साथ रहेंगे न? भगवान बोले- अवश्य। साधु के जीवन का यह सर्वोत्तम क्षण था। भगवान शिव बोले- एक वर और मांगो। साधु ने कहा- प्रभु, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं तो बस आपको ही चाहता हूं। आप मेरे साथ हैं तो मुझे कुछ नहीं चाहिए। जहां आप रहते हैं- वहां रोग, शोक, कष्ट और परेशानियां नष्ट हो जाती हैं। आपका भक्त सुखी, निरोग, और आनंद से ओतप्रोत रहता है। उसे और क्या चाहिए? मैं तो साधु हूं। मैं तो आपके लिए ही तपस्या कर रहा था। संसार के लोग माया जाल से मुक्त होकर आपकी शरण में आएं, यही मेरी इच्छा है। भगवान शिव मुस्कराए और बोले- जो मुझे याद करता है, उसके पास मैं तुरंत पहुंचता हूं। लेकिन अगर कोई मेरी उपस्थिति महसूस ही न कर पाए, तो मैं क्या कर सकता हूं।

Monday, November 8, 2010

भगवान से कैसे करें प्यार?

विनय बिहारी सिंह


एक आत्मीय ने पूछा कि ईश्वर से हम कैसे प्रेम करें, जबकि हमने उन्हें देखा नहीं है। न उनका कोई रूप जानते हैं और न वे कुछ आभास कराते हैं?
इसका उत्तर वहां मौजूद एक सन्यासी ने दिया- आप का अस्तित्व है? उत्तर मिला- हां। सन्यासी ने कहा- जब आपका अस्तित्व है तो आप पृथ्वी पर आए कहां से? जवाब मिला- माता के गर्भ से। सन्यासी ने पूछा- क्या माता ने आपके भीतर प्राण डाला? जवाब मिला- पता नहीं। फिर सन्यासी ने पूछा- मां के गर्भ में आने के पहले आप कहां थे? जवाब मिला- पता नहीं। तब सन्यासी ने कहा- यहीं पर गौर कीजिए। आपका जीवन कोई और चला रहा है। उन्हीं का नाम भगवान है। भगवान ही सारे ब्रह्मांड को चला रहे हैं। वरना चांद- सितारे आपस में टकरा जाते। कोई तो उन्हें संतुलित ढंग से रखे हुए है। सब भगवान के नियंत्रण में है। बस, वे लीलामय हैं। खुद नहीं दिखते। उनका दर्शन दुर्लभ है। वे उन्हीं को दिखते हैं जो दृढ़ और गहरी भक्ति के साथ उन्हें पुकारते रहते हैं। वरना अदृश्य रहते हैं। जिन्होंने हमारा निर्माण किया, क्या उनको हम प्रेम नहीं कर सकते? अपने जन्म स्थान के प्रति हमारा गहरा मोह होता है। अपनी संतान से गहरा मोह होता है। अपने शरीर से गहरा मोह होता है। लेकिन जो हमारा परमपिता या माता या दोस्त है, उसे हम प्रेम नहीं कर सकते? क्या विडंबना है। ऐरी- गैरी चीजों, भौतिक वस्तुओं से तो हम प्रेम करते हैं। कई लोग तो ऐसी वस्तुओं के प्रेम में पागल हो जाते हैं। लेकिन भगवान के प्रति उनके मन में प्रबल प्रेम नहीं जागता। इसका मतलब है वे शैतान के शिकंजे में हैं।

Saturday, November 6, 2010

रात भर हुई कालीपूजा

विनय बिहारी सिंह

मैं कोलकाता के जिस कांप्लेक्स में रहता हूं वहां रात भर कालीपूजा चलती रही। यहां पूजा के समय ढाक बजता है। ढाक ड्रम का ही एक रूप है लेकिन उसे पश्चिम बंगाल में पूजा के अवसर पर एक खास लय- ताल में बजाया जाता है। ढाक काफी तेज बज रहा था और इस तरह मैं रात को सो नहीं पाया। तो लगा कि भगवान ने यह स्थिति शायद मेरे लाभ के लिए ही बनाई है। मैंने परमहंस योगानंद जी की गीता की व्याख्या- गॉड टाक्स विद अर्जुन को चाव से पढ़ा। हालांकि यह पुस्तक मैंने क बार पढ़ी है। लेकिन जितनी बार पढ़ता हूं, नए अर्थ खुलते जाते हैं । इसी तरह परमहंस जी की पुस्तक योगी कथामृत भी है। हाल ही में उनकी एक पुस्तक मैन्स इटरनल क्वेस्ट का हिंदी अनुवाद मानव की निरंतर खोज नाम से आई है। जिसे योगदा सत्संग सोसाइटी ने प्रकाशित किया है। ईश्वर, ध्यान और अध्यात्म के बारे में मनुष्य के मन में कई सारे सवाल उठते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर परमहंस योगानंद जी ने स्पष्ट ढंग से दिया है। । पता है- , योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया, परमहंस योगानंद पथ, रांची- ८३४००१। परमहंस योगानंद जी ने अमेरिका और यूरोपीय देशों में क्रिया योग का प्रसार प्रसार किया और यह सिद्ध किया कि योग एक वैग्यानिक पद्धति है। उन्होंने १९१७ में भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया और विदेशों में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की।उन्होंने बताया कि ईश्वर कल्पना की वस्तु नहीं हैं। उनसे संपर्क किया जा सकता है। इसके लिए दृढ़ विश्वास और अत्यंत गहरी आस्था तो होनी ही चाहिए कुछ वैग्यानिक प्रविधियों का अभ्यास भी जरूरी है। इन प्रविधियों की जानकारी यह संस्था देती है।

Thursday, November 4, 2010

नरकासुर का वध

विनय बिहारी सिंह


भगवान श्रीकृष्ण ने महादुष्ट और पापी नरकासुर का वध किया था। इसी के उपलक्ष्य में दीपावली के पहले नरक चतुर्दशी मनाई जाती है। संतों ने इसकी एक और व्याख्या की है। दीपावली के पहले अपने भीतर के नरकासुर का वध करना चाहिए। यानी अपने भीतर के दोषों या बुरी आदतों को खत्म करना चाहिए। तब दीपावली के दिन अपने भीतर का उजाला प्रकट होगा। तब हमारे भीतर ज्योति जलेगी। भगवान कृष्ण को महायोगी कहा जाता है। गीता में उन्हें योगेश्वर कहा गया है। गीता के अंतिम श्लोक में संजय ने धृतराष्ट्र से कहा है- राजन, जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हों वहां विजयश्री निश्चित है। अर्जुन भक्त के प्रतीक हैं और श्रीकृष्ण तो भगवान हैं ही। जो अर्जुन पहले अध्याय में युद्ध नहीं करना चाहते। उनका मुंह सूख गया है। हाथ कांप रहे हैं और धनुष ठीक से पकड़ा नहीं जा रहा है। वही, अठारवें अध्याय में कहते हैं- हां, भगवन मेरी स्मृति लौट आई है। मैं युद्ध करूंगा। गीता जैसा ग्रंथ हमारे पास है, यह हमारा सौभाग्य है।

Wednesday, November 3, 2010

मन स्थिर ऱखने के फायदे

विनय बिहारी सिंह


योग वशिष्ठ में एक बहुत अच्छा श्लोक हैः

मनो स्थैर्ये स्थिरो वायुः
ततो बिंदुः स्थिरो भवेत्
बिंदु स्थैर्ये सदा सत्वं
पिंड स्थैर्ये प्रजायते।।

यानी मन स्थिर होता है तो प्राण स्थिर हो जाता है। तब प्रकाश बिंदु स्थिर होता है। आंख बंद करें और प्रकाश बिंदु दिखेगा। यह स्थिति आते ही आप तमाम विकारों, बंधनों और कष्टों से मुक्त हो जाएंगे। आप जानते ही हैं कि मुनि वशिष्ठ भगवान राम के गुरु थे। योग वशिष्ठ की प्रत्येक पंक्ति गहरे आध्यात्मिक संदेश देने वाली है। आप पूछ सकते हैं कि मन कैसे स्थिर हो? तो इसका उपाय यही है कि यह महसूस कीजिए कि आप न अपनी मर्जी से यहां आए हैं और अपनी मर्जी से इस पृथ्वी से जाएंगे। जैसे आपके इस पृथ्वी पर आने का समय तय था, ठीक उसी तरह जाने का समय भी तय है। बीच के समय में आप पृथ्वी पर बिता रहे हैं। सभी संतों ने कहा है कि जब तक जीएं, ईश्वर का स्मरण करते रहें। उनका आभार जताते रहें कि उन्होंने मनुष्य योनि में जन्म दिया है जिसके कारण आप पूजा, पाठ या जप करने में सक्षम हैं। अपने मोक्ष के बारे में सोच रहे हैं। परोपकार के बारे में सोच रहे हैं। ईश्वर से प्रेम कर रहे हैं। ईश्वर से प्रेम क्यों करें? क्योंकि ईश्वर से ही हम आए हैं और ईश्वर में ही हमें मिल जाना है। हम जितने तरह के भी आनंद ढूंढ़ लें, लेकिन उससे हमें पूर्ण तृत्प्ति नहीं मिलेगी। तृप्ति मिलेगी तो बस ईश्वर से संपर्क करने से। संपर्क कैसे होगा? उनको हृदय से पुकारने से, हृदय से प्रार्थना करने से, संभव हो तो उनके लिए रोने से। वे हमें हमसे ज्यादा जानते हैं। क्योंकि वे ही हमारे मालिक हैं। यह ब्रह्मांड भी उनका है और हम भी उनके हैं।

Tuesday, November 2, 2010

काल को नियंत्रित करने वाली महाशक्ति

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल में दीपावली के दिन कालीपूजा होती है। इसीलिए यहां दीपावली को कालीपूजा कहा जाता है। मां काली यानी काल को नियंत्रित करने वाली महाशक्ति। जो काल को नियंत्रित करे, वह काली। मां काली भगवान शिव की पत्नी कही जाती हैं। यानी पार्वती जी का ही एक रूप। लेकिन कई विद्वान कहते हैं कि काली यानी अंधकार को दूर करने वाली। कैसे? मां काली का रंग काला होता है लेकिन इस कालेपन से नीला रंग झांकता रहता है। जब हम आंखें बंद करते हैं तो अंधकार दिखता है। लेकिन इस अंधकार के पीछे ईश्वर का प्रकाश छुपा है। ठीक इसी तरह अमावस्या को घुप्प अंधरी रात होती है। मां काली प्रकाश हैं। अब आप प्रश्न पूछ सकते हैं कि जब मां काली काले रंग की हैं तो वे प्रकाश कैसे हुईं? तो इसका उत्तर है- सभी चित्रों में मां काली की लाल जीभ बाहर निकली होती है। मूर्तियां भी इसी तरह गढ़ी जाती हैं। सभी मंदिरों में मां काली की जीभ बाहर निकली हुई प्रतिमा ही पूजी जाती है। वह जीभ है प्रकाश। यानी अंधेरे से डरें नहीं, वहां मां काली हैं। ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। लेकिन आमतौर पर जो धारणा है, उसके अनुसार मां काली काल पर विजय करने वाली हैं। इसलिए उन्हें काली कहा जाता है। उनका रंग काला नहीं है। परमहंस योगानंद जी ने लिखा भी है-

कौन कहता तू है काली हे मां जगदंबे।
लाखों रवि, चंद्र तेरी काया से हैं चमकते।।

इस दीपावली पर मां काली की अराधना करने वाले लोग आधी रात तक पूजा करते हैं। फिर प्रसाद वितरण होता है। लेकिन ऐसे भी भक्त हैं जो पूरी रात ध्यान, जप और पाठ करते हैं। वे भोर में प्रसाद वितरण करते हैं। रात भर वही जाग सकता है जो मां काली से अनन्य प्रेम करता हो। उनके दोनों बाएं हाथों में तलवार और नरमुंड है। और दोनों दाएं हाथों में एक आशीर्वाद के लिए उठा हुआ है तो दूसरा अभय का वरदान दे रहा है। मां काली भगवान शिव की छापी पर पैर रख कर जीभ बाहर निकाल कर अपनी गलती महसूस कर रही हैं। दरअसल यह उनकी लीला है। भगवान शिव अनंतता के प्रतीक हैं। इनफिनिटी के प्रतीक। मां काली बता रही हैं कि भगवान शिव अनंत हैं। उन पर पैर रखना यानी भारी गलती। वे पूज्य हैं। अनंत भगवान का सम्मान करना चाहिए। पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी आत्मा अनंत का अंश है।

Monday, November 1, 2010

भगवत गीता यानी भगवान का गीत

विनय बिहारी सिंह


भगवत गीता, भगवान का गीत है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- दस बार लगातार गीता, गीता कहने से त्यागी, त्यागी हो जाता है। गीता का सार है- त्याग। किसका त्याग- लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध, काम, मद, ईर्ष्या और आलस्य इत्यादि का त्याग। उच्च कोटि के संत परमहंस योगानंद जी ने गीता का जो भाष्य लिखा है, वह अद्भुत है। उन्होंने कहा है- कौरव हमारे भीतर की वासनाएं, कामनाएं हैं और पांडव हमारे भीतर का सात्विक भाव। कौरवों व पांडवों के बीच युद्ध यानी हमारे भीतर की कामनाओं, वासनाओं यानी माया और सात्विकता के बीच युद्ध। सांसारिक बंधन एक तरफ खींचता है और वैराग्य एक तरफ। मनुष्य इन्हीं दोनों से लड़ता है। लेकिन अगर हमारे भीतर सात्विकता का प्राधान्य हो गया तो हमारे भीतर का पांडव जीत जाता है। इस दीपावली पर हमें अपने अंदर के बचे- खुचे अंधकार को खत्म कर देना है। वहां ज्योंही ईश्वर का प्रकाश जाएगा, हमारा अंतःकरण दिव्य ज्योति से जगमगा जाएगा। हम अपने घरों को जगमगाने के साथ अपने अंतःकरण को भी आलोकित करें और इस दीपावली को और ज्यादा आनंदमय बनाएं।