विनय बिहारी सिंह
ईश्वर ही प्रेम हैं। उन्हीं की याद में आज का भी दिन क्यों न मनाएं? प्रेम की उत्पत्ति तो उन्होंने ही की है। चाहे वह प्रेम माता- पिता के प्रति हो, मित्र के प्रति हो, या पति या पत्नी के प्रति। प्रेम के स्रोत भगवान ही हैं। जो उनको लेकर मतवाले हैं, उनके जैसा सुखी और कोई हो ही नहीं सकता। प्रेम गली अति सांकरी, जा मे दो न समाय।। प्रेम तो सिर्फ एक ही से हो सकता है। उसमें दो का कोई स्थान ही नहीं है। यदि दो आ गए तो फिर वह शुद्ध प्यार नहीं है। इसलिए भक्त कहता है- मैं तो ईश्वर के प्रेम में गिरफ्तार हो गया हूं। उनके सिवा और कोई मुझे दिखता ही नहीं, सूझता ही नहीं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्चसखा त्वमेव........। है भगवान तुम्हीं सब कुछ हो। माता, पिता, मित्र, भाई, विद्या, धन..... सर्वस्व तुम्ही हो। ऐसा भाव मन में आ जाए तो प्रेम और गाढ़ा होने लगता है। भगवान के प्रति प्रेम गाढ़ा होते ही आप उसके आनंद में मतवाला होने लगते हैं। आपका आनंद भीतर ही भीतर आपको सुख देता रहता है। बाहर से कोई जान ही नहीं पाता कि आपके भीतर हो क्या रहा है। आप किसकी याद में मदमस्त हैं। यह आनंद, यह मस्ती सिर्फ भगवान से प्यार करने पर ही आ सकती है। परमहंस योगानंद जी ने कहा है- ईश्वर ही प्रेम हैं। सचमुच उनके प्रेम में नहाने का सुख ही कुछ और है।
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