Friday, September 28, 2012

भगवान भी हमें पुकारते हैं


आज एक बहुत अच्छी कथा पढ़ने को मिली। एक भेड़ पालने वाले के पास सौ भेड़ें थीं। एक दिन शाम को भेड़ें चराने के बाद घर लाकर उसने गिनती की तो पाया कि कुल ९९ भेड़ें ही हैं। एक भेड़ गायब है। अंधेरा छाने लगा था। लेकिन उस एक भेड़ के लिए उसने अंधेरे की परवाह नहीं की। उसने टार्च लिया और भेड़ खोजने निकल पड़ा। रास्ते में उसे अपनी वह भेड़ एक झाड़ी में फंसी मिली। उसने सावधानी से उस भेड़ को झाड़ी से निकाला और घर लाकर उपचार किया।
 कथा है कि भगवान भी उस भेड़ चराने वाले की तरह हमें ढूंढ़ते रहते हैं। हम जो ईश्वर की राह से भटक गए हैं। ईश्वर हमें पुकारते रहते हैं। पुकारते रहते हैं। वे चाहते हैं कि हम बच्चे उनकी याद करें। उनसे प्यार करें और उनसे संबंध जोड़े रखें। फिर भी हम यदि नहीं सुनते तो वे इंतजार करते रहते हैं। पुकारते रहते हैं। कहते रहते हैं- मेरे बच्चे मेरे पास आओ। असली सुख मेरे ही पास है। आओ न मेरे पास।
 लेकिन हम समझते हैं कि भगवान को बाद में याद कर लेंगे। पहले संसार का सुख उठा लें। भगवान कहते हैं- संसार दुखों का घर है। यहां सुख मत ढूंढ़ो। सुख तुम्हें संसार में नहीं, मेरे पास मिलेगा। आओ, मेरे पास आओ।

Wednesday, September 26, 2012

भगवान की कृपा




संतों ने कहा है कि भगवान के किसी नाम का जप करना कल्याणकारक है। यह जप हृदय की गहराई से होनी चाहिए। अनेक लोग ऐसे हैं जो- राम, राम, राम का जप करते हैं और इसमें उन्हें खूब आनंद आता है। कुछ लोग- ओम नमः शिवाय का भी जप करते हैं। इसी तरह भगवान कृष्ण, दुर्गा, काली और भगवान के अन्य नामों का जप करने वाले भी हैं। भगवान के किसी एक रूप और नाम को पकड़ने से ही हुआ। संतों कहते हैं कि भगवान का भक्त एक बार दिल से उन्हें पुकारता है तो वे तुरंत उसके पास चले आते हैं। वे तो बस बाट जोहते रहते हैं। यह आकर्षण अत्यंत मनोहारी है। इधर भक्त भगवान को पुकारता है। भगवान तो सहज ही दिखाई नहीं देते, भक्त इसका बुरा नहीं मानता। वह कहता है- ठीक है आप छुपे रहिए लेकिन मैं आपको पुकारता रहूंगा। मैं जानता हूं आप मेरी पुकार सुन रहे हैं। मैं आपसे बातें भी करूंगा।  भले ही यह बात एकतरफा ही क्यों न हो। लेकिन मैं आपसे अपना संबंध बनाए रखूंगा। भले ही यह सिर्फ मेरी ही तरफ से क्यों न हो। आखिर कभी तो आप पिघलेंगे। तब भगवान के पास कोई चारा नहीं रहता। वे भक्त के हृदय की भावनाओं का आदर करते हैं। वे भक्त की तड़प का आदर करते हैं और उस पर कृपा करते हैं।

Tuesday, September 25, 2012

मूड का खराब होना


संतों ने कहा है कि मूड में रहने वाला व्यक्ति विकास नहीं कर पाता। उन्होंने सुझाव दिया है कि जिनका मूड किसी घटना के कारण खराब या अच्छा होता है, वे भीतर से कमजोर होते हैं। मूड है क्या? जरूरत से ज्यादा संवेदनशीलता होना मूडी होना है। जैसे कई बार आप बोर हो जाते हैं। यह ठीक नहीं है। बोर होते ही हमारे शरीर के हार्मोन घातक रसायन स्रावित करने लगते हैं। इस तरह हम बोर होकर खुद अपना ही नुकसान करते हैं। किसी ने कुछ कह दिया। हम दुखी हो गए। यह भी ठीक नहीं है। हालांकि दिमाग पर उसका असर कुछ देर पड़ना स्वाभाविक है। लेकिन जल्दी ही उस भाव को झटक देना चाहिए और कोई अच्छी बात सोचने लगना चाहिए। इससे हमारा दिलोदिमाग तो ठीक रहता ही है, हमारा मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। इसलिए हमें सबसे ज्यादा जो ध्यान रखना है वह है- मूड का अस्थिर न रहना। सदा ईश्वर के लिए ही सोचना, उन्हीं के लिए काम करना। इसका क्या मतलब? इसके लिए परमहंस योगानंद जी ने एक उपाय बताया है। उन्होंने कहा है- आप जो अच्छा काम कीजिए, सोचिए कि यह ईश्वर के लिए कर रहा हूं। बस हो गया  आपका काम। मान लीजिए आप भोजन कर रहे हैं। आप सोचिए कि यह भोजन मैं ईश्वर के लिए कर रहा हूं। मेरे भीतर बैठे ईश्वर, इस भोजन का आनंद ले रहे हैं। आप अपने कार्यालय का काम कर रहे हैं तो सोचिए कि यह काम मैं ईश्वर के लिए कर रहा हूं। इस तरह हम ईश्वर से जुड़े रहेंगे।

Friday, September 21, 2012

बूढ़ा शरीर



शरीर बूढा होता है तो व्यक्ति चाहता है कि उसकी मृत्यु जल्दी हो जाए। हालांकि घर के लोग ऐसा नहीं चाहते। जिस शरीर के प्रति मनुष्य जीवन भर आसक्त रहता है, वही एक वक्त परेशान करने लगता है। आंखों से दिखाई नहीं देता। पैरों से चला नहीं जाता। सुनने की क्षमता खत्म होती जाती है। तब लगता है कि शरीर साथ छोड़ रहा है। यानी यह शरीर भी अपना नहीं है। यह धोखा दे देता है। या कहें साथ नहीं निभा पाता। भगवत गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कहा है- जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। गीता में भगवान ने यह भी कहा है-  जन्म लेने वाले व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है । सिर्फ उन्हीं लोगों का जन्म नहीं होता जो सांसारिक कामनाओं से ऊपर उठ चुके हैं और ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित कर चुके हैं। ऐसे साधक मोक्ष पाते हैं।

Thursday, September 20, 2012

देह और मन से परे होना




 भगवत गीता में भगवान ने कहा है कि आत्मा देह, मन और बुद्धि से परे है। यानी अत्यंत सूक्ष्म है। तुलसीदास ने कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी। मनुष्य की आत्मा अविनाशी है। शास्वत है। वेदांत नेति नेति की शिक्षा देता है। साधक कहता है- मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं, मैं बुद्धि नहीं हूं। मैं हूं शुद्ध सच्चिदानंद। लेकिन जो देह से बहुत आसक्त हैं और देह को ही सब कुछ समझते हैं वे सूक्ष्म तत्व को ग्रहण नहीं कर पाते। शास्त्रों में कहा गया है- जब आप शांत और स्थिर हो जाते हैं। दिमाग को जहां- तहां दौड़ने से रुकता है तब आती है स्थिरता। मन कैसे शांत होगा? अभ्यास से। भगवत गीता में भगवान से अर्जुन ने कहा है- मन बहुत दृढ़ और बलवान है। उसे रोकना वायु को रोकने जैसा दुष्कर प्रतीत होता है। तो भगवान उत्तर देते हैं- हां, यह सत्य है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य से मन को नियंत्रित करना संभव है।
एक व्यक्ति एक संत के पास शिष्य बनने गया। उसने दरवाजा खटखटाया। अंदर से संत ने पूछा- कौन? व्यक्ति ने उत्तर दिया- यही तो मैं जानने आया हूं कि मैं कौन हूं।

Wednesday, September 19, 2012

पिता जी की मृत्यु



पिछले ३० अगस्त को पिता जी की मृत्यु हो गई।  वे ९४ वर्ष के थे। लंबे समय से बीमार चल रहे थे। शारीरिक कष्टों से उन्हें मुक्ति मिली। मुखाग्नि मैंने दी। पिता जी को चिता पर जलते देख कर एक बार फिर लगा कि मनुष्य का अंत यही है। जिस आग से हम खाना पका कर खाते हैं। जाड़े में जिसकी आंच से गर्माते हैं, उसी अग्नि में हमें भस्म हो जाना है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अग्नि भी मैं ही हूं। तो पिता जी को अग्नि के हवाले कर दिया। काफी देर तक उनके शव को जलते हुए देखता रहा। आग की लपटें उनके पार्थिव शरीर को लील रही थीं। धीरे- धीरे उनका शव राख हो गया। उस राख को एक नई मिट्टी की हांडी में रख कर पवित्र गंगा नदी में प्रवाहित किया और उन्हें अंतिम प्रणाम कहा। इस जन्म के पिता को अलविदा कहते हुए लगा- एक दिन मेरा बेटा भी इसी तरह मुझे हमेशा के लिए अलविदा कह देगा। यही मनुष्य की नियति है। जब सिर मुड़ा रहा था तो लगा कि न जाने किन बंधनों से मुक्त हो रहा हूं। पिता जी कहां से आए थे और कहां चले गए? निश्चय ही सूक्ष्म जगत से आए थे और वापस वहीं चले गए। शायद उनका दुबारा जन्म हो। किसी नए परिवेश में, नए शरीर में। एक बार फिर गीता के अध्याय दो के श्लोक याद आए। गीता ऐसे मौकों पर संजीवनी का काम करती है।