Wednesday, September 29, 2010

हम भगवान की कृपा से लेते हैं सांस

विनय बिहारी सिंह


एक संत ने कल कहा- हम भगवान की कृपा से ही सांस लेते हैं। चूंकि भगवान इसके बदले में हमसे कुछ नहीं चाहते, इसलिए हम समझते हैं कि यह सांस सदा चलती रहेगी। हम अपनी सांसों को लेकर ज्यादा कुछ सोचते नहीं हैं। आप कह सकते हैं कि सांस पर क्या विचार करना। वह तो चलती रहती है। लेकिन प्राणायाम तो हम सांसों से ही करते हैं। क्यों? क्योंकि सांस हमारी मानसिक स्थिति का द्योतक है। अगर आपकी सांस तेज चलती है तो आपका मन चंचल है। अगर धीरे है तो आप शांत हैं। हम इस दुनिया में अपने मन से नहीं आए हैं, हमें भगवान ने भेजा है। क्यों? क्योंकि हमारी अधूरी इच्छाएं संसार में आने के लिए बाध्य करती हैं। जबकि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अर्जुन तुम दुखों के इस संसार से बाहर निकलो। भगवान इस संसार को दुख का सागर कहते हैं तो फिर यह संसार सुखकर कैसे हो सकता है? लेकिन फिर भी हममें से कितने लोग इस संसार में ही सुख तलाशते हैं। उनका मन भगवान में नहीं, संसार में रमा रहता है। क्या विडंबना है। जो दुखों का समुद्र है, उसमें कई लोग सुख तलाशते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे छद्म सुख या धोखा देने वाले नकली सुख में ही मस्त रहते हैं। क्योंकि असली सुख तो भगवान में है। एक बार भगवान की शरण में हम गए तो फिर असली सुख क्या होता है, पता चलेगा। इसके पहले नहीं। भगवान का सुख कैसा है, यह तो इसे प्राप्त करने वाला ही जानता है। इसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।

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