Thursday, September 16, 2010

आत्मा और परमात्मा

विनय बिहारी सिंह


परमहंस योगानंद ने कहा है कि भगवान ने मनुष्य की आत्मा को अपने प्रतिरूप में बनाया। रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी। गीता में भगवान कृष्ण ने आत्मा को अपना ही प्रतिरूप कहा है। यानी आत्मा परमात्मा का ही अंश है। आप पूछेंगे कि अगर ऐसा है तो हम ईश्वर को अपने भीतर महसूस क्यों नहीं करते? तो इसका उत्तर है- क्योंकि हमारा मन चंचल रहता है। मन स्थिर हो, मन कंपास की सुई भगवान की तरफ घूमे और लगातार उसी दिशा में बनी रहे तो अवश्य हम भगवान को महसूस करेंगे। लेकिन ऐसा होता कहां है? भगवान हमारी प्राथमिकता में रहते नहीं हैं। ऋषि पातंजलि ने कहा है- चित्त की वृत्तियों का बंद हो जाना ही योग है। चित्त की वृत्तियां तो तरह- तरह की कामनाएं करती रहती हैं। कभी यह चाहिए, कभी वह चाहिए। लेकिन जो चाहिए, अगर वह मिल जाता है तो भी चैन नहीं मिलता। फिर नई कामना और उसके पाने की इच्छा, फिर छटपटाहट, तनाव और न मिलने पर निराशा या क्रोध। जब हम इन वृत्तियों में फंसे रहेंगे तो शांति कहां है? परमहंस योगानंद ने कहा है- प्रत्याहार सबसे अच्छा साधन है। प्रत्याहार- यानी इंद्रियों से मन को खींच कर ईश्वर में लगाना। यह अभ्यास से होता है। ठीक- जैसे कछुआ अपने सारे अंगों को समेट लेता है। कछुए की इस क्रिया को उदाहरण के लिए प्रत्याहार का नाम दे सकते हैं। प्रत्याहार के बाद अनन्य भक्ति और समर्पण की बारी आती है। भगवान कृपालु और करुणासागर हैं। हमने उनके सामने समर्पण किया नहीं कि वे अपना प्यार उड़ेल देंगे। अगर हम शांत हैं, मन चंचल नहीं है तो उनका प्यार हमें स्पष्ट रूप से अनुभव होगा।

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