Friday, February 27, 2009
श्रद्धा से याद किए जाते हैं काली भक्त रामप्रसाद
Thursday, February 26, 2009
भगवान शिव की नृत्य मुद्रा
Wednesday, February 25, 2009
क्रोध आपको ही मारता है - वैग्यानिकों ने माना
Tuesday, February 24, 2009
कैसे मनाई महाशिवरात्रि
विनय बिहारी सिंह
कल महाशिवरात्रि योगदा मठ, कोलकाता में मनाने का मौका मिला। वहां ध्यान, भजन और पूजन के बाद प्रसाद वितरण हुआ। जैसे जैसे रात गहराती गई स्वामी अमरानंद जी का भजन और भावपूर्ण होता गया। ऊं शिव ऊं का गायन हारमोनियम और ढोलक की संगत में इतना मधुर हो गया कि लोग झूमने लगे। ये तीन शब्द कितने प्रभावशाली हैं, यह कल रात अनुभव हुआ। इन शब्दों का स्पंदन समूचे माहौल में फैल गया- ऊं शिव ऊं, ऊं शिव ऊं। इसके बादहर हर शंकर शंभु सदाशिवहर हर महादेव बम बम भोला।।इसके बादचंद्रमौलि चंद्रशेखर शंभु शंकर त्रिपुरारी.... ऐसे ही अनेक भजन। रात गहरा रही थी और लग रहा था ढोलक कभी मृदंग हो गया तो कभी डमरू। ढोलक के कलाकार एक शिव भक्त ही थे। अद्भुत माहौल बन गया था। मानो हम सब कैलाश पर्वत पर बैठे हों और शिव जी का दिव्य नृत्य देख रहे हों।बम बम बबमबम... की ध्वनि के साथ हर हर महादेव की सम्मिलित ध्वनि से रोम रोम तृप्त हो रहा था। शिव का नाम लेने से ऐसा सुख भी मिल सकता है, कई लोगों ने पहली बार जाना। शिव का नाम उच्चारित करने से सचमुच एक खास किस्म का स्पंदन माहौल में पैदा होता है। अगर सबके मन में वह भाव भक्ति हो तो क्या कहने। यही तो कल देखा महसूस किया। इतना दिव्य, अद्भुत और रोम रोम को तृप्त करने वाला आयोजन विरल है रेयर है। योगदा मठ के सन्यासी सचमुच प्रणम्य हैं। बिना एक पैसा लिए लोगों को प्रसाद खिला कर खुश हो रहे थे वे। हर हर महादेव।
Monday, February 23, 2009
भगवान शिव की अराधना
Saturday, February 21, 2009
शांति और आनंद के दाता शिव
Friday, February 20, 2009
अमरकंटक में एक दिव्य संत से भेंट
Wednesday, February 18, 2009
अमरकंटक में दुर्वासा ऋषि की गुफा
Friday, February 13, 2009
संकट के समय भगवान
Tuesday, February 10, 2009
सिर्फ हाथ फूल, अक्षत चढ़ाता है और दिमाग जहां- तहां घूमता है
विनय बिहारी सिंह
हममें से कई लोगों की पूजा बहुत मेकेनिकल यानी यांत्रिक होती है। जल चढ़ाया, फूल चढ़ाया, अक्षत अर्पण किया, अगरबत्ती दिखाई, घंटी बजाई और प्रणाम करके आफिस या कहीं और चलते बने। मन में यह पक्की धारणा बन गई कि हां, आज पूजा की। ज्यादातर लोग तो ऐसे ही करते हैं। कई लोग तो घड़ी भी देखते रहते हैं औऱ मंत्र वगैरह भी पढ़ते रहते हैं। मन में चलता रहता है कि अमुक अमुक काम करने हैं या यहां जाना है वहां जाना है वगैरह वगैरह। तो फिर यह पूजा कहां हुई? यह तो जैसे कोई औपचारिकता कर ली। भगवान तो तब भी खुश हो जाते हैं जब आप उन्हें प्यार से याद करते हैं। कथा है कि एक बार नारद मुनि ने भगवान से पूछा कि आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है। भगवान ने कहा- तुम्हीं बताओ। नारद मुनि ने कहा- जंगल में एक साधु ४० वर्षों से साधना कर रहा है, वही होगा। भगवान ने कहा- नहीं। नारद मुनि ने पूछा तो फिर कौन है? उन्होंने बताया कि अमुक गांव में एक किसान है जो अभी हल जोत रहा है। वही मेरा सबसे बड़ा भक्त है। नारद मुनि हैरान रह गए। वे तत्काल धरती पर उस किसान के पास एक साधारण आदमी के वेश में पहुंचे। देखा वह हल जोत रहा है और नारायण, नारायण का जाप भी कर रहा है। और जाप भी कैसा। बिल्कुल सहज ढंग से। हल भी जोत रहा है और भगवन्नाम भी चल रहा है। नारद मुनि ने पूछा कि भाई, तुम पूजा- पाठ कुछ करते हो? किसान बोला- नहीं उस तरह तो पूजा नहीं करता जैसे और लोग करते हैं। पर हां मैं मानता हूं कि मैं ईश्वर में ही हूं। हर सांस उसी की कृपा से चल रही है। बल्कि मैं तो मानता हूं कि यह मेरी सांस नहीं है, खुद ईश्वर मेरी सांस के रूप मे चल रहे हैं। इसीलिए हमेशा नारायण नारायण कहता रहता हूं। लगता है उसके बिना मेरा जीवन अधूरा है। इसलिए काम करते हुए, सोते, उठते, बैठते, हल पल हर क्षण बस उसी के बारे में सोचता रहता हूं। नारद मुनि उस जंगल के साधु के पास गए। पूछा- आप किस तरह साधना कर रहे हैं? भगवान के दर्शन हुए? साधु बोले- वही तो मैं भी सोच रहा हूं। रोज सोचता हूं कि आज भगवान दर्शन देंगे। लेकिन देते नहीं हैं। अब लगता है भगवान है ही नहीं। अगर इतने दिनों बाद दर्शन नहीं दिया तो शायद उनका कोई अस्तित्व नहीं हो। नारद मुनि ने पूछा- क्या ईश्वर के अस्तित्व पर आपको शुरू से ही शक था? साधु बोले- हां। मैंने सोचा कि साधना करके देखें, अगर ईश्वर हैं तो दर्शन देंगे। पर लगता है ईश्वर नहीं है। ़ नारद मुनि भगवान के पास पहुंचे। बोले- आपने बिल्कुल ठीक कहा। सच्चा भक्त तो वह किसान ही है। उसे यह परवाह नहीं कि आप दर्शन देंगे या नहीं। बस आपके चिंतन में वह दीवाना है। इधर वह ४० साल से साधना कर रहा साधु पहले दिन से ही शक मे है कि पता नहीं ईश्वर है भी या नहीं। होगा तो दर्शन देगा। यह अधूरी श्रद्धा तो उसे कहीं नहीं ले जाएगी। हर काम के लिए पूरा कंसंट्रेशन चाहिए। पूरी एकाग्रता चाहिए। यह उस किसान में है। वह तो यह मानता है कि सांस के रूप में भी ईश्वर ही हैं। भगवान उत्तर दिया- मैं उसे रोज दर्शन देता हूं। लेकिन मैंने मना किया है कि वह किसी को बताए नहीं। इसीलिए उसने आपको नहीं बताया।
Sunday, February 8, 2009
पूतना वध
जब कंस को लगा कि कृष्ण का वध मुश्किल है तो उसने बहुत ही मायावी मानी जाने वाली राक्षसी पूतना को बुलाया और कृष्ण वध का आदेश दिया। पूतना की तारीफ भी की। वह अद्भुत मायाविनी थी। कोई भी वेश धर सकती थी। जब सुंदर स्त्री का रूप धरती थी तो बड़े- बड़े बुद्धिमान उस उस पर मोहित हो जाते थे। जब वह मथुरा से गोकुल में गई तो उसने. गोपी का रूप बना लिया। उस समय उसके चेहरे पर अद्भुत प्यार छलक रहा था। उसने सबको मायावी जादू की गिरफ्त में ले लिया। कुछ संतों का तो कहना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने खुद ही सबका दिमाग लापरवाह बना दिया क्योंकि उन्हें पूतना क मौका देना था। तो पूतना ने कृष्ण को गोद में ले लिया और चुपके से पास के पहाड़ पर ले गई। उसने पहले से ही अपने स्तनों पर जहर लगा रखा था।
भगवान कृष्ण प्रेम से दूध पीने लगे। कथा है कि उन्होंने पूतना का
दूध तो पीया ही उसके साथ उसकी जीवनी शक्ति भी पी ली। कंस ने पूतना के मरने की खबर सुनी तो सन्न रह गया। उसने अपने करीबी मंत्रियों से कहा कि कृष्ण भी बहुत मायावी है। लेकिन उसकी माया की काट हमारे पास है। अनंत कोटि ब्रम्हांड के सावामी को भी उसने चुनौती दी। आखिरकार वह मारा गया। लेकिन पूतना को और कृष्ण को भी बैकुंठ धाम मिला। वजह? स्वयं भगवान के हातों ये दोनों मरकर बैकुंठ के अधिकारी हो गए। जिसके लिए बडे- बडे संत तरसते हैं। क्यों? भगवान कृपालु हैं। वे करुणा के सागर हैं। उन्हें चाहे मित्र के भाव से याद कीिजए या शत्रु के, वे आपको बहुत प्यार करते हैं। एसी करुणा कहां मिलेगी? यह लीला उन्होंने हम सबको सीख देने के लिए की। प्रेम का कोई विकल्प नहीं है। और प्रेम जितनी ताकत भी किसी चीज में नहीं है। बशर्ते वह प्पेम निस्वार्थ हो।
Friday, February 6, 2009
केवट ने राम से कहा- पारिश्रमिक नहीं लूंगा
विनय बिहारी सिंह
जब भगवान राम वनवास के लिए जा रहे थे तो रास्ते में एक नदी पड़ी। वहां मौजूद केवट तो धन्य हो गया। धन तो उसने बहुत कमाया था। आज वह चीज मिलने वाली थी, जिसके लिए बड़े- बड़े संत तरसते हैं। केवट राम जी को देख कर निहाल था। उन्हें स्पर्श कैसे करे? आमतौर पर होता है कि बड़ा आदमी नाव पर बैठता है और केवट चप्पू चला कर पार उतार देता है। लेकिन यहां तो केवट चरण स्पर्श का सुख चाहता था। उसने कहा- मैंने सुना है, आपका स्पर्श पाते ही पत्थर भी स्त्री बन जाता है। कहीं मेरी नाव भी स्त्री न बन जाए। इसलिए इसे मैं पवित्र जल से धो देना चाहता हूं। भगवान राम मुस्कराए। वे उसकी चालाकी समझ रहे थे। लेकिन केवट तो प्रेम में रोए जा रहा था। उसने जी भर कर चरण धोए। चरणामृत अपने परिजनों को दिया और नदी पार करा दी। लेकिन जब पार उतारने का पारिश्रमिक देने की बात आई तो उसने कहा कि एक ही पेशे के लोग एक दूसरे से पारिश्रमिक नहीं लेते। राम जी ने कहा- तुम्हारा औऱ मेरा पेशा एक कैसे है? केवट बोला- मैं बताता हूं। मैं नदी पार कराता हूं और आप भक्तों को भवसागर पार कराते हैं। मैं आपसे पारिश्रमिक नहीं लूंगा। राम जी ने सीता जी को इशारा किया। उनके पास एक स्वर्ण आभूषण था। सीता जी ने उसे केवट को देना चाहा। लेकिन जब अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी खुद सामने खड़े हों तो धन की क्या कीमत? केवट ने पारिश्रमिक लेने से ही इंकार कर दिया। बस इतना ही कहा- अगर देना ही है तो यह वचन दीजिए कि आप मेरे दिल से कभी नहीं निकलेंगे औऱ आपकी कृपा हमेशा मुझ पर और मेरे परिवार पर बनी रहेगी। राम जी ने मुस्करा कर यह वचन दे दिया। यहां जीसस क्राइस्ट की बात भी याद आती है। उन्होंने कहा था- सीक ये द किंगडम आफ गाड, द रेस्ट थिंग्स विल कम अन टू यू। पहले ईश्वर के साम्राज्य को प्राप्त करो, बाकी चीजें अपने आप तुम्हारे पास चली आएंगी। जो तुमने नहीं चाहा था, वो भी। केवट को और क्या चाहिए था। जब ईश्वर की ही कृपा मिल गई तो बाकी चीजों का वह क्या करेगा? धन की मांग करना तो ऐसे ही होता जैसे कोई बहुत बड़ा सम्राट पूछे कि तुम्हें क्या चाहिए। और जवाब में कोई कहे- एक किलो आलू। जहां अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी की कृपा है, वहां कुछ भी मांगना हास्यास्पद है।
Wednesday, February 4, 2009
भगवान राम तात्विक स्वरूप
विनय बिहारी सिंह
सीता जी की खोज में जब भगवान राम वन में भटक रहे थे और हा सीते, हा सीते कर रहे थे तो माता पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा कि आप तो भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और सबका आराध्य कहते हैं। लेकिन वे तो पत्नी के लिए इतने व्याकुल हैं जैसे कोई सामान्य व्यक्ति। फिर इनका ईश्वरीय स्वरूप कहां बिला गया? भगवान शंकर ने कहा कि यह उनकी मनुष्य अवतार की लीला है। अगर मनुष्य में जन्म लिया है तो पीड़ा, दुख, सुख औऱ वे सभी भाव तो दिखाने पड़ेंगे जो एक मनुष्य में होती हैं। लेकिन वे यह सब नाटक के रूप में कर रहे हैं। भगवान शंकर ने कहा कि अगर विश्वास न हो तो तुम खुद परीक्षा ले लो। मां पार्वती ने हू- ब- हू सीता का रूप धरा और सीधे राम के सामने खड़ी हो गईं। भगवान राम ने पूछा- मां, पार्वती आप यहां क्यों खड़ी हैं? शंकर जी कहां हैं। कथा है कि मां पार्वती लज्जित हो गईँ। अब आइए तात्विक चर्चा पर। मां सीता स्वयंवर में जाने के पहले मां पार्वती के ही मंदिर में प्रार्थना करने गई थीं कि राम से मेरा विवाह हो जाए। वही मां पार्वती भगवान राम की परीक्षा लेने कैसे पहुंच गईं? वे तो सर्वदर्शी हैं। संतों ने इसकी बहुत रोचक व्याख्या की है। रामचरितमानस में ये घटनाएं या कथाएं सामान्य पाठक के दिल में राम तत्व उतारने के लिए लिखी गई हैं। राम ने अपनी चेतना खोई नहीं थी। सीता जी के अपहरण के बाद भी वे चैतन्य थे। उधर रावण से उसकी पत्नी मंदोदरी लगातार प्रार्थना कर रही थी कि राम साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे ईश्वर के अवतार हैं। राम से संधि कर लीजिए। लेकिन रावण में अपने बल का अभिमान था। भगवान राम को दिखाना था कि चाहे कोई कितना भी बलशाली हो जाए- वह सर्वोच्च शक्ति के सामने बौना ही है। रावण, और उसके बेटों, भाइयों की मायावी ताकतें सर्वोच्च सत्ता के सामने जल कर राख हो गईं। सत्य तो ईश्वर ही है।
Sunday, February 1, 2009
सब कुछ बदल जाएगा, सिवाय ईश्वर के
बात अठारहवीं शताब्दी की है। बहुत दिनों से एक व्यक्ति को एक संत से मिलने की इच्छा थी। वे काफी दूर रहते थे। अपने कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त होने के कारण इस व्यक्ति को मौका ही नहीं मिल पाता था कि वह यात्रा का समय निकाले। संयोग से पांच साल बाद उसे यह मौका मिल ही गया। उसे व्यवसाय के सिलसिले में उसी इलाके में जाना था। वह संत से मिला। उसे बहुत सुकून मिला। जब वह चलने लगा तो संत ने उसे एक कागज पर कुछ लिख कर दिया औऱ कहा- जब भी तुम किसी अच्छे या बुरे अनुभव से गुजरो, इसे पढ़ लेना लेकिन इसके पहले इस कागज को मत पढ़ना। संत से ऐसा उपहार पाकर वह बहुत खुश हुआ। गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति देने की पहल के लिए एक बार उसका नगर में सम्मान हुआ। फूल- मालाओं उसे लाद दिया गया। उसकी तारीफ में बहुत कुछ कहा गया। वह तो आनंद में हिलोरें ले रहा था। तभी उसे संत की बात याद आई। वह उनका दिया कागज हमेशा रखता था। उसने कागज खोल कर देखा। उस पर लिखा था- यह भी बीत जाएगा। उसे लगा- अरे हां। यह सुख भी तो क्षणिक ही है। तब उसने अपने सम्मान को बहुत साधारण घटना माना और खुश हुआ कि उसे इस बात का चैतन्य हुआ। संत ने कहा था कि इस दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील है, बदलने वाला है. सिर्फ एक ही शक्ति अपरिवर्तनशील या स्थाई है- वह है हमारा परमपिता यानी ईश्वर। उस व्यक्ति को यह सब याद आया। कुछ दिन बीत गए। अचानक एक समारोह में भोजन करने के कारण उसे फूड प्वाइजनिंग हो गई। उसके पेट में भयानक दर्द हुआ। डाक्टरों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी। घंटे भर बाद उसे कै हुई और तब उसे राहत मिली। वह अभी अस्पताल में ही था कि उसे खबर मिली कि उसके बेटे को अफीम रखने के जुर्म में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है और डर है कि उस पर ऐसा मामला दर्ज होगा कि वह जीवन भर जेल में सड़ जाएगा। उसे बड़ा दुख हुआ। तभी फिर उसने संत का दिया हुआ कागज पढ़ा। उस पर वही लिखा हुआ था- यह भी बीत जाएगा। पढ़ कर उसे बड़ी राहत मिली। उसे लगा- हां, वह फिर स्वस्थ हो जाएगा और उसका बेटा अगर निर्दोष है तो छूट जाएगा। वही हुआ। यह व्यक्ति कुछ ही दिनों में पूरी तरह स्वस्थ हो गया और उसका बेटा भी छूट गया। जीवन में न सुख से अपने को भूल जाना चाहिए और दुख से बेहाल हो जाना चाहिए। गीता में तो कहा ही है- सुखदुखे समे कृत्वा...। सुख और दुख में संतुलित रहें। इसका मतलब यह नहीं कि हमें खुश नहीं होना चाहिए। खुश होना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यहां कहने का मतलब है कि हम लोग खुशी से तो फूले नहीं समाते औऱ दुख में तुरंत टूट जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। संतुलन जरूरी है।