Friday, November 21, 2008

सच्चा वीर

एक वृद्ध अमेरिकी व्यक्ति अपने पोते-पोतियों को अपने मन की बात बता रहा था। उसने बच्चों को बताया, उसके मन के अंदर एक संघर्ष चल रहा है। एक पक्ष है-भय, क्रोध, ईष्र्या, शोक, पश्चाताप, लोभ, द्वेष, हीनता, अभिमान, अहंकार आदि का। दूसरा पक्ष है-आनंद, हर्ष, शांति, प्रेम, आशा, विनम्रता, परोपकारिता, सहानुभूति, दानशीलता,उदारता, सत्यता, विश्वास आदि का। संभव है कि ऐसा संघर्ष तुम्हारे अंदर और अन्य व्यक्तियों में भी चल रहा होगा। कुछ क्षण के लिए बच्चे सोच में डूब गए। तब एक बच्चा बोला- दादा जी! अंत में किस पक्ष की जीत होगी? वृद्ध व्यक्ति बोला, हम जिसे जिताना चाहेंगे, यानी जैसे मनोभावोंको हम स्वयं में बढावा देंगे, उसी की जीत होगी।
आत्मबल है सहायक
वास्तव में, दूषित मनोवृत्तियांही कायरता की सूचक हैं, न कि वीरता की। दरअसल, वीर और पराक्रमी व्यक्ति वही होते हैं, जो अत्याचार करने वाले लोगों का विरोध करते हैं और निर्बल की सहायता करते हैं। ऐसे लोगों में उनका आत्मबल ही होता है, जो दूसरे लोगों में व्याप्त बुरी प्रवृत्तियों को समाप्त करने में सहायक होता है। यदि हम भी अपने भीतर परोपकार, दया, दानशीलताजैसे मनोभाव चाहते हैं, तो आत्मबल को विकसित करना अत्यंत आवश्यक है।
सत्य की राह
वीर व्यक्तियों में यह आत्मबल सत्य की राह पर चलने के कारण ही उत्पन्न होता है। और इसीलिए वे हमेशा सत्य का साथ देते हैं। अपने कहे गए सत्य वचनों को पूरा करने के लिए वे अपने जीवन की भी परवाह नहीं करते।
कौन उससे प्रसन्न है अथवा कौन उससे अप्रसन्न, इस बात की चिंता सत्य के पथिक नहीं करते। उनका एक ही उद्देश्य होता है, जरूरतमंदों की मदद करना। इस फेर में यदि कोई व्यक्ति उनसे अप्रसन्न हो जाता है, तो वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं।
सरल मार्ग का चुनाव
हम जीवनपर्यन्तइन दो विचारों पर मंथन करते रहते हैं कि कौन कार्य हमारे लिए अच्छा है और कौन बुरा? विवेकी जन वही मार्ग चुनते हैं, जो उनके लिए सरल और शुभ हो। ऐसे लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा इसी तरफ मोड देते हैं। उनकी यह ऊर्जा सकारात्मक होती है। सच तो यह है कि नकारात्मक प्रवृत्तियां, जैसे-भय, क्रोध, ईष्र्या आदि दर्शाने वाले मनोभाव हमें गलत राह की ओर ले जाते हैं, यानी वे विनाश की ओर ले जाने वाले साबित हो सकते हैं। गीता में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार बताया गया है। साथ ही, यह भी कहा गया है कि जो लोग आत्मोन्नतिके इच्छुक हैं, उन्हें इन तीनों दुर्गुणोंका त्याग कर देना चाहिए।
सदाचारी बनें
यदि हम चिंता, भय, क्रोध, ईष्र्या, शोषण आदि दुर्गुणोंके दास बन जाएं, तो हमारा जीवन नीरस ही नहीं, भार भी प्रतीत होने लगता है। यहां तक कि व्यक्ति नशे की शरण में जाने, वैरागी बनने, आत्महत्या करने आदि जैसे कुकृत्यों को अंजाम देने लगता है। यदि हम सदाचारी बनें, तो इससे न केवल स्वयं का भला होगा, बल्कि हम आसपास के लोगों की मदद भी करने में समर्थ हो सकते हैं। दूसरी ओर, यदि हमारा व्यवहार दुराचारी व्यक्ति के समान है, तो हम अपना तो सर्वनाश करेंगे ही, साथ ही साथ हमारे आस-पास का वातावरण भी दुखदायी हो जाएगा। सच ही कहा गया है कि जब बुराई की बेल बढती है, तो उसके विषैले फल संसार में अनेक प्रकार के दुष्परिणाम पैदा करते हैं।
जीव को दो प्रकार के दुखों का सामना करना पडता है- बाहरी और भीतरी। भौतिक अभिलाषाओं की पूर्ति न होने से बाहरी दुख उत्पन्न होते हैं और अन्तर्मन में उठने वाली अभिलाषाओं से भीतरी दुखों का सर्जन होता है। हमें अपने अंदर और बाहर उत्पन्न दुखों से संघर्षपूर्ण लडाई लडनी पडती है। सच तो यह है कि हमारा जीवन इस पृथ्वी पर एक संघर्षपूर्ण युद्ध के समान है। और हम इस युद्ध का सामना तभी कर पाएंगे, जब हम निडर और आत्मविश्वासी होंगे। जिस प्रकार मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, उसी प्रकार जीवन में संघर्ष भी अवश्यंभावी है।
श्रेष्ठ जन कहते हैं कि जीवन के संघर्षो का मुकाबला सदा जीतने के भाव से करना चाहिए। उनसे बच कर भागने के बजाय उनका दृढतापूर्वक सामना करना चाहिए, तभी सही मार्ग निकल सकता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन के शत्रुओं, जैसे-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को कम नहीं समझना चाहिए। यही हमारे मुख्य शत्रु हैं, जिन्हें हमें हराना है, ताकि हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। इन बुरी ताकतों को हराने के लिए संकुचित हठधर्मिता को छोडना होगा और सतत प्रयास करते रहना होगा, तभी हम सफलता की ओर कदम बढा सकेंगे।
लाजपत राय सभरवाल