Saturday, November 22, 2008
महाकवि कालिदास का ज्योतिष प्रेम
कवि कुलगुरु कालिदासकी विद्वताऔर बहुमुखी प्रतिभा ने विश्व के समस्त विद्वानों को आकृष्ट किया है। संस्कृत से इतर भाषाओं के विद्वान भी उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। उनके ग्रंथों में चारों पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष),अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, दर्शन, इतिहास, भूगोल एवं ज्योतिष के साथ-साथ अन्यान्य विषयों का भी समावेश मिलता है। महाकवि कालिदासने कई महाकाव्यों की रचना की, जिनमें सात प्रसिद्ध हैं-रघुवंशम्, कुमारसंभवम्,मेघदूतम्, ऋतुसंहारम्,अभिज्ञानशाकुंतलम्,विक्रमोर्वशीयम्तथा मालविकाग्निमित्रम्।इन ग्रंथों में यत्र-तत्र ज्योतिषीयप्रयोग महाकवि के ज्योतिष प्रेम को प्रकट करते हैं। महाकवि ने काव्य रचना के साथ जहां आवश्यकता हुई वहां स्पष्ट रूप से ज्योतिष संदर्भो को समायोजित किया। अपने ग्रंथों में महाकवि ने नक्षत्र, तारा, तिथि, मुहूर्त, अयन, ग्रह, दशा, रत्न, ग्रहशांति,शकुन, यात्रा, स्वप्न, राजयोग, ग्रहों की उच्चता,नीचता,वक्रत्व,मार्गत्व,ग्रहण, संक्रांति, ग्रहों का योग, काल विधान, पुनर्जन्म, भवितव्यताआदि का प्रसंगवशवर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम्के मंगलाचरण में भगवान शंकर की अष्टमूर्तियोंमें सूर्य चंद्रमा रूपी मूर्ति का उल्लेख करते हुए ये द्वेकालंविधत्त:कहकर संपूर्ण काल विधान जो ज्योतिष शास्त्र का मूल उद्देश्य है, को स्पष्ट कर दिया। वस्तुत:तिथि, वार, नक्षत्र योग तथा करण जो पंचाङ्गहैं, सूर्य- चंद्रमा पर ही आधारित हैं। दिवा-रात्रि ही नहीं सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त सूर्य चंद्रमा ही काल का विधान कर रहे हैं। ये दोनों ज्योतिषशास्त्र के मेरुदंड हैं। इनमें भी चंद्रमा, सूर्य से ही पोषित हो रहा (प्रकाशित हो रहा है) का स्पष्ट उल्लेख रघुवंशम्के तृतीय सर्ग में है-पुपोषवृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिवबालचन्द्रमा:।
किसी भी जातक की कुंडली में यदि पांच ग्रह निर्मल होकर अपने उच्च स्थान में स्थित हों, तो वह जातक निश्चित ही चक्रवर्ती सम्राट होता है,ज्योतिष शास्त्र के इस कथन को महाराजा रघु के जन्मकालकी ग्रह स्थिति (कुंडली) से महाकवि ने प्रमाणित किया है। ग्रहों की प्रतिकूलता में ग्रहशांतिअवश्यमेव लाभदायी होती है, तभी तो महर्षि कण्व शकुन्तला के प्रतिकूल ग्रहशांतिहेतु सोमतीर्थजाते हैं-दैवमस्या: प्रतिकूलंशमयितुंसोमतीर्थगत:। विवाह में शुभ मुहूर्त आवश्यक होता है। हिमालय पुत्री पार्वती से शिव का विवाह निश्चित हो गया तब मांङ्गलिककृत्य जो विवाह से पूर्व होते हैं, को मैना ने मैत्र मुहूर्त तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र में कराया। सप्तर्षिगणोंसे विवाह की तिथि पूछकर हिमालय ने स्वाती नक्षत्र में विवाह का दिन निश्चित किया। विवाह का श्रेष्ठ नक्षत्र स्वाती ज्योतिर्विदोंमें मान्य है। इतना ही नहीं वैवाहिक लग्न में सप्तम स्थान सर्वथा शुद्ध होना चाहिए।
विवाह के पश्चात् वधू प्रवेश तथा द्विरागमन में शुक्र सन्मुखप्रतिकूल रहता है। इसका उल्लेख कुमारसम्भवम्के तीसरे सर्ग में किया है। मालविकागिन्मित्रम्में विदूषक राजा से कहता है, चलिए हम लोग निकल चलें कहीं मंगलग्रह के समान वक्री गति से चलता हुआ वह पुन:पिछले राशि पर न आ जाए।
पुन:कहता है कि हे राजन्! ज्योतिषियों ने कहा है कि इस समय आपका नक्षत्र प्रतिकूल चल रहा है। दशाएं अनुकूल एवं प्रतिकूल होती रहती हैं। दोनों में सम रहना चाहिए।
सूर्य की संक्रांति तथा अयन की चर्चा रघुवंशम्के नवम सर्ग में दशरथ के मृगया प्रसंग में द्रष्टव्य है, जहां वर्णन है कि महाराजा दशरथ आखेट करते हुए सुदूर दक्षिण दिशा में चले गए। उस दिन उत्तरायण की स्थिति बन रही थी। सूर्य उत्तर की ओर मुडना चाह रहे थे, उसी समय महाराजा दशरथ ने भी अपना रथ उत्तर की ओर मोड दिया।
नक्षत्रों में अश्रि्वनी, कृत्तिका, पुनर्वसु,पुष्य,उत्तराफाल्गुनी,चित्रा,विशाखाका उल्लेख करते हुए किस नक्षत्र में कितने तारे हैं, का वैज्ञानिक वर्णन किया है। तिथियों में प्रतिपदा,अमावस्या,पूर्णिमा के साथ एकादशी का भी उल्लेख है। मेघदूतम्के उत्तर भाग में प्रबोधनी(देवोत्थान) एकादशी का उल्लेख करते हुए उस दिन यक्ष के शाप निवृत्ति की बात कही है। यही कारण है कि संस्कृत के अनेक विद्वानों ने यही कालिदासकी जन्मतिथि मानी है। मेघों के निर्माण में धुआं, प्रकाश, जल तथा वायु कारण है, का भी उल्लेख उनकी वैज्ञानिक दृष्टि का संकेत करता है। अषाढ माह में वर्षारंभ का उल्लेख मेघदूतम्के दूसरे श्लोक में किया है।
वर्षा के पश्चात अगस्त्य तारा का उदय होता है, का प्रामाणिक ज्योतिषीयवर्णन किया है। कभी वर्षा के समय यदि कू्रर ग्रह वर्षाकारकग्रहों के मध्य आ जाए तो वर्षा नहीं होती, अकाल पड जाता है, इसका उल्लेख रघुवंशम्में है। दो तीन ग्रहों के आपस में युति होने से परिणाम सुखद होता है इसका उल्लेख भी है। अङ्गस्फुरणसे होने वाले परिणामों का यत्र-तत्र वर्णन है। राजा दुष्यंत कण्व के आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं, उसी समय उनकी दाहिनी भुजा फडक उठती है, इसका परिणाम ज्योतिषशास्त्र में पत्नी लाभ कहा गया है। राजा विचार करते हैं कि भला आश्रम में यह कैसे संभव होगा तथापि भवितव्यताकहीं भी होकर रहती है। इस प्रकार वे भवितव्यतामें अपना अटल विश्वास प्रकट करते हैं। रघुवंशम्के चौदहवेंसर्ग में सीता जी का दाहिना नेत्र फडकता है इसे अपशकुन मान वह डर जाती हैं। स्वप्न दर्शन का भी फल होता है, इसका वर्णन रघुवंशम्महाकाव्य में प्राप्त होता है।
अपशकुनों का विस्तृत वर्णन कुमारसम्भवम्महाकाव्य में प्राप्त होता है। जब तारकासुरयुद्ध के लिए प्रस्थान करता है, उस समय गीधोंका झुंड दैत्यसेनाओंके समीप आकर ऊपर मंडराने लगता है, भयंकर आंधी चलने लगती है, आकाश मंडल जलते हुए अंगारों, रुधिरोंऔर हड्डियों के साथ बरसने लगता है तथा दिशाएं जलती हुई प्रतीत होने लगी, ऐसा लगता था जैसे दिशाएं धुंआउगल रही हैं। हाथी लडखडाने लगे, घोडे जमीन से गिरने लगे, सेनाओं में कम्पन होने लगा, कुत्ते इकट्ठे होकर मुख को ऊपर करके सूर्य में दृष्टि लगाकर कान के पर्दे को फाडने वाली भयंकर आवाज में रोने लगे। ऐसे अनेक अपशकुनों को देखकर भी तारकासुरने प्रस्थान किया और उसका परिणाम वह युद्ध में मारा गया। रघुवंशम्में बारहवें सर्ग में जब खर दूषण राम से युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं तो वे शूर्पनखाको आगे करके चले, उसकी नाक कटी थी, अत:यही अपशकुन हो गया, और खरदूषणका विनाश हुआ। रत्नों का भी प्रभाव मानव पर पडता है, इसके अनेक उदाहरण महाकवि ने दिए हैं। सूर्यकान्तमणिसूर्य की किरणों के स्पर्श से आग उगलती है जबकि चंद्रकान्तमणिचंद्र किरणों के स्पर्श से जल। रत्न विद्ध होने से कम प्रभावी होते हैं, जैसा कि शकुन्तला के सौंदर्य वर्णन में अनाविद्धं रत्नम्कहा है। पन्ना, माणिक्य, पद्मराग, पुखराज आदि रत्नों का यथास्थान प्रसंगवशउल्लेख आया है।
इन ज्योतिषीयवर्णनों को देखकर कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदासजितने काव्यमर्मज्ञ थे, उतने ही ज्योतिषमर्मज्ञभी। हों भी क्यों न उन पर भगवान् महाकालेश्वर एवं भगवती महाकाली जगदंबा का वरदहस्तजो था।
डा. गिरिजा शंकर शास्त्री
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