Monday, November 10, 2008

सच्चे सुख की तलाश



महाभारत में सुखी जीवन जीने के लिए उत्तम उपाय बताए गए हैं। इसके अनुसार, जीवन के दुखों के बारे में चिंतन न करना ही दुखों के निवारण की औषधि है। दरअसल, सुख की अनुभूति तभी हो सकती है, जब दुखों के बारे में चिंतन न किया जाए। लेकिन यह संभव तभी हो सकता है, जब दुख के बारे में न सोचने का लगातार अभ्यास किया जाए। पंचतंत्र में कहा गया है, जो मनुष्य आने वाले संकट के बचाव का उपाय कर लेता है, वही सुखी रहता है। दरअसल हम दुख, मृत्यु, भय, अनहोनी और अशुभ बातों पर ही हमेशा विचार करते रहते हैं। मतलब यह हुआ कि दुख के विकल्पों के बारे में हम लगातार सोचते रहते हैं। लेकिन हमें सच्चा सुख तभी मिल पाएगा, जब हम दुख के बारे में सोचना छोड दें।
अब प्रश्न यह है कि प्रतिकूलता प्रकट करने वाले इन नकारात्मक विचारों के भाव हमारे मन से कैसे समाप्त हो पाएंगे? वास्तव में, जो व्यक्ति इस प्रश्न का समाधान पा लेते हैं, वे परमानंद पाने के अधिकारी बन जाते हैं। समाज में सुख और दुख को लेकर कई तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। इनमें एक आम धारणा यह है कि दुख और सुख भगवान की देन है। इसीलिए इसमें मनुष्य का कुछ भी वश नहीं चलता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार, मनुष्य अपने मन या इच्छा से कुछ भी नहीं कर पाता है, इसलिए सुख, दुख या आनंद पाने में वह ईश्वर के अधीन है। इसका अर्थ यह हुआ कि न वह निरंतर सुखी रह सकता है और न ही हमेशा दुखी! देखा जाए, तो ये सभी मान्यताएं हमारी नकारात्मक भावों के कारण ही सदियों से समाज में प्रचलित हैं। इसलिए सबसे पहले हमें नकारात्मक वृत्तियोंको अपने मन से हटाना होगा और सच तो यह हैकिइसे दूर करने के लिए साधना ही एक मात्र रास्ता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, नकारात्मक भावों, कर्मो और आदतों के हम इतने गुलाम होते हैं कि जीवन में सकारात्मक विचारों को स्थान ही नहीं दे पाते हैं! दरअसल, नकारात्मक विचारों की जड मानव मन में इतनी गहरी पैठी है कि उसे तुरंत समाप्त करना भी मुश्किल है। हम लोग पीढी-दर पीढी उसी विचार से जुडे होते हैं। दरअसल, नकारात्मक विचारों के उन्मूलन के लिए अभ्यास आवश्यक माना गया है। क्योंकि अभ्यास करने से ही अशुभ, अनहोनी, मृत्यु और पाप होने की आशंका से मुक्ति मिल सकती है। एक मजेदार बात यह है कि हमारे जीवन में कई नकारात्मक विचार मौजूद हैं। उन पर हम कभी गहराई से विचार नहीं करते हैं। वह यह है कि हम सुखी तो होना चाहते हैं, लेकिन आस-पास के लोग भी सुखी जीवन बिताएं, यह नहीं सोचते। यह विचार ही हमारी सुख की निरंतरता को खत्म करते हैं। जबकि हमारे विचार ऐसे होने चाहिए कि सभी व्यक्ति सुखी और निरोग रहें।
सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वेसन्तुनिरामयाकी धारणा हमारी संस्कृति की पहचान है। महर्षि दयानंद ने अपने विश्व कल्याण के दस नियमों (सूत्रों) में लिखा है-सब की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए। यह विचार ही मनुष्यता को पोषण दे सकता है। इससे ही विश्व समाज में फैली असमानता, स्वार्थ, द्वेष, क्रोध, वर्गभेद, जातिवाद और दूसरे अनेक विवादों से मुक्ति पाई जा सकती है।
तैत्तरीयउपनिषद् में कहा गया है-असीम में सुख है और सीमित विचारों में सुख का अभाव है, यानी सुख एवं आनंद के भाव असीमिततामें ही हैं। सुख की निरंतरता के लिए शाश्वत मन में शांति बनाए रखने की बात कही गई है। कहा गया है- न शान्ते:परमंसुखमंअर्थात् शांति से ही परम सुख की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए शांति भंग करने वाला किसी कर्म को नहीं करना चाहिए। वेद में पूरे ब्रह्माण्ड, हर जीव एवं लोक-लोकांतरों में शांति की प्रार्थना की गई है। चूंकि हम भी इस ब्रह्माण्ड की एक इकाई हैं, इसलिए हमारी प्रार्थनाएं भी हमेशा शांति के लिए ही होनी चाहिए।
[अखिलेश आर्येन्दु]

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