Saturday, November 29, 2008
परमहंस योगानंद
विनय बिहारी सिंह
योगी कथामृत (आटोबायोग्राफी आफ अ योगी) के विख्यात लेखक और महात्मा गांधी को क्रिया योग की दीक्छा देने वाले परमहंस योगानंद एक महान संत थे। योगी कथामृत दुनिया की सारी भाषाओं में अनूदित है। उर्दू में भी। परमहंस योगानंद ने सन १९२० में यूरोप और सारी दुनिया में क्रिया योग की जानकारी दी। उन्होंने अपना मुख्य केंद्र अमेरिका को बनाया। भारत में उन्होंने योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के नाम से और अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के नाम से उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं आज सारी दुनिया में आध्यात्म का प्रकाश फैला रही हैं। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाईएसएस) में क्रिया योग बताया जाता है जिसे महान संत श्यामा चरण लाहिड़ी ने सबसे पहले सिखाना शुरू किया। लाहिड़ी महाशय को उनके गुरु महावतार बाबा जी ने क्रिया योग की दीक्छा दी थी। लाहिड़ी महाशय ने क्रिया योग की दीक्छा स्वामी श्री युक्तेश्वर जी को दी। स्वामी श्री युक्तेश्वर ने इसे अपने दिव्य शिष्य परमहंस योगानंद को सिखाया और उनसे कहा कि पश्चिमी देशों के लोगों को इससे लाभान्वित करो। शुरू में परमहंस योगानंद जी कोई भी संगठन बनाने के पक्छ में नहीं थे। उनका कहना था कि संगठन बनाने से आरोप ही ज्यादा मिलते हैं। तब स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने कहा कि क्या आध्यात्मिक मलाई तुम अकेले ही खा लेना चाहते हो? परमहंस योगानंद जी ने गुरु की बात मानी और वाईएसएस और सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की। आज ये संगठन नहीं होते तो लाखों लोगों को क्रिया योग की दुर्लभ दीक्छा कैसे मिलती? स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने कहा- पश्चिम में समृद्धि तो है लेकिन आध्यात्म शिक्छा की कमी है। स्वामी श्री युक्तेश्वर जी ने बाइबिल और गीता में अनेक समानताओं के बारे में एक पुस्तक लिखी है- कैवल्य दर्शनम। यह पुस्तक वाईएसएस के केंद्रों में हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला और अन्य भाषाओं में उपलब्ध है। सन १९५२ में जब उन्होंने अमेरिका में अपना शरीर छोड़ा तो उनका शरीर शव गृह में एक महीने तक रखा रहा। लेकिन उसमें कोई विकृति नहीं आई । अमेरिका के शव गृह के इंचार्ज ने तब लिख कर दिया था जो आज भी वहां रखा हुआ है। शव गृह के इंचार्ज ने लिखा है कि यह अद्भुत उदाहरण है। एक महीने बाद भी शव का तरोताजा रहना, आश्चर्यजनक है। लेकिन यह सत्य है। मरने के बाद भी महान संत परमहंस योगानंद ने अपने शव के जरिए आध्यात्म का संदेश दिया। उन्होंने कहा- सिर्फ शुद्ध और सच्चा प्रेम ही मेरी जगह ले सकता है। परमहंस योगानंद ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। क्रिया योग में दीक्छा लेने के इच्छुक लोगों को वहां अपना नाम दर्ज कराना पड़ता है। तब उन्हें हर महीने ध्यान करने संबंधी एक लेसन या अध्याय डाक से भेजा जाता है। साल- डेढ़ साल के बाद अगर व्यक्ति ने लेसन में पूछे गए सवालों का ठीक ठीक जवाब दे दिया तो उसे क्रिया योग की दीक्छा के लिए अधिकृत कर दिया जाता है।
Friday, November 28, 2008
सहज भाषा में ईश्वर की बात कहते थे रामकृष्ण परमहंस
विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण परमहंस कहते थे- जैसे पांकाल मछली कीचड़ में ही रहती है फिर भी कीचड़ उसके शरीर से दूर रहता है वैसे ही मनुष्य को संसार में रह कर भी सांसारिक तनावों, झमेलों या वासनाओं का गुलाम नहीं बनना चाहिए। वे एक कहानी सुनाते थे। एक आदमी अपनी स्त्री को बहुत प्यार करता था। उसके बिना वह जी नहीं सकता था। एक दिन उसके गुरु ने एक दवा दी। कहा कि इसके खाते ही तुम्हारा शरीर कुछ देर के लिए मृत जैसा हो जाएगा। लेकिन तुम मरोगे नहीं। तुम्हें होश रहेगा। तुम सबकी बातें सुन सकोगे। फिर उन्होंने वैद्य को सिखाया कि तुम जाकर झूठमूठ यह कह दो कि इसे जिंदा करने के लिए किसी को अपनी जान देनी पड़ेगी। फिर देखो तुम्हारी पत्नी तुम्हें कितना प्यार करती है। तुम तो उसके बिना जी नहीं सकते। वही हुआ। दवा खा कर वह मृत जैसा हो गया। घर में रोना- पीटना मच गया। तब वैद्य आया और बोला कि यह तो जिंदा हो जाएगा लेकिन इसके बदले किसी को जान देनी पड़ेगी। उसकी पत्नी से पूछा गया कि क्या वह अपनी जान देने को तैयार है? पत्नी ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि यह तो मर ही गए। मैं मर जाऊंगी तो इन छोटे- छोटे बच्चों को कौन देखेगा? वे कहते थे कि संसार में सब काम करो लेकिन यह जान लो कि असली घर ईश्वर के पास है। वह सब देख रहा है। मनुष्य को उसने इच्छा शक्ति दे कर छोड़ दिया है। ईश्वर देखते रहते हैं कि मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति का इस्तेमाल कैसे करता है। रामकृष्ण परमहंस की बातें इतनी सरल होती थीं कि अनपढ़ व्यक्ति के दिल में भी वे उतर जाती थीं। वे कहते थे कि सब रुपए पैसे, परिजन और सांसारिक सुख के लिए रोते हैं। ईश्वर के लिए कौन रोता है। ईश्वर के लिए रोइए तब तो वह मिलेगा। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मनुष्य का जन्म सिर्फ ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हुआ है। लगातार प्रार्थना करिए-- हे भगवान, हे भगवान क्या आप दर्शन नहीं देंगे? मैं आपके लिए व्याकुल हूं। लगातार प्रार्थना से उनका दिल पिघल जाता है।
Thursday, November 27, 2008
भगवान शिव हैं कृपा निधान
विनय बिहारी सिंह
भगवान शिव या शंकर या महेश्वर या देवाधिदेव आशुतोष कृपा निधान हैं। समुद्र मंथन के समय जब हलाहल विष निकला तो उसका ताप इतना तीव्र था कि कोई वहां खड़ा नहीं हो सकता था। मानो पूरे ब्रह्मांड में आग लग गई हो। देवता भागे भागे भगवान शंकर के पास पहुंचे और कहा- भगवन, किसी तरह हमारी रक्छा कीजिए वरना पूरी सृष्टि जल कर राख हो जाएगी। समुद्र मंथन में जो विष निकला है, उसे आप ही धारण कर सकते हैं। कृपा सिंधु शंकर भगवान ने उस भयंकर विष को पी लिया और अपने गले में ही रख लिया। इसी के कारण उनका काम नीलकंठ पड़ गया। उन्होंने विष को गले से नीचे नहीं उतारा। ऐसा कौन कर सकता है? जो ब्रह्मांड का नियंत्रक हो। वेदों ने ब्रम्ह कहा है, पुराण ने जिन्हें विष्णु कहा है उसे ही शैव लोगों ने शिव कहा है। दूसरा उदाहरण- जब भगीरथ गंगा को धरती पर ले आए तो गंगा का वेग इतना प्रबल था कि समूची पृथ्वी तहस नहस हो जाती। तब भगीरथ ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि प्रभु गंगा का वेग आप ही कम कर सकते हैं। तब भगवान शिव ने अपनी जटा में गंगा को रोक लिया। इसीलिए गंगा को पवित्र नदी का दर्जा दिया जाता है। भगवान शंकर साधु चरित्र वाले मनुष्यों की रक्छा करते हुए, हमेशा ध्यान मग्न और प्रसन्नचित्त रहते हैं। बस उनका ध्यान करना चाहिए।
हाथ में माला मन में खोट
ऐसे लोग आपको अक्सर दिख जाएंगे जो हाथ में माला फेर रहे हैं और बात भी कर रहे हैं या किसी महिला की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं या बेटे को कह रहे हैं- जरा अमुख काम कर दो। संत कबीर ने पूजा पाठ के ऐसे ही पाखंडों पर जम कर चोट किया। जैसे-कर का मनका छाड़ि के मन का मनका फेर यानी कर (हाथ) में माला लेकर जाप करने करना छोड़ो। तुम्हारा मन भटक रहा है। मन की माला जपो। तब मन कहीं नहीं भटकेगा। कबीर दास ने एक और प्रवृत्ति पर चोट की। उन्होंने कहा-दाढ़ी बढ़ाय जोगी, होय गैले बकराकाम जराय जोगी होय गैले हिजड़ा।।यानी दाढ़ी बढ़ाने और यौन भाव खत्म करने से कोई सन्यासी नहीं हो जाता। इसके लिए ऋषि पातंजलि का योग सूत्र अपनाना पड़ता है यानी- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। सिर्फ बाहरी रूप सज्जा और काम भाव को जीतने से कुछ नहीं होता। वरना तो हिजड़े भी ऋषि हो जाते। सचमुच हमें कबीर को पढ़ते रहना चाहिए।
Wednesday, November 26, 2008
सूरदास अंधे नहीं थे
विनय बिहारी सिंह
विख्यात कवि सूरदास की रचनाओं को पढ़ कर यह बिल्कुल नहीं लगता कि वे अंधे थे। श्री कृष्ण और श्री राम के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उन्होंने जो पद लिखे हैं, उसे पढ़ कर भी यह बात साफ हो जाती है। वे लिखते हैं-(गोपी अपनी सखी से कह रही है-)
सजनी, निरखि हरि कौ रूप।
मनसि बचसि बिचारि देखौ अंग अंग अनूप।।
कुटिल केस सुदेस अलिगन, बदन सरद सरोज।
मकर कुंडल किरन की छबि, दुरत फिरत मनोज।।
अरुन अधर, कपोल, नासा, सुभग ईषद हास।
दसन की दुति तड़ित, नव ससि, भ्रकुटि मदन बिलास।।
अंग अंग अनंग जीते, रुचिर उर बनमाल।सूर सोभा हृदे पूरन देत सुख गोपाल।।
गोपी कह रही है कि हरि का रूप निहार कर मन और वाणी से विचार करके देख िक इनके अंग प्रत्यंग की छटा निराली है। सुंदर घुंघराले केश भौरों के समान हैं। मुख शरद ऋतु के कमल की भांति है और मकराकृत कुंडलों की ज्योति रेखा की शोभा देख कर कामदेव भी लज्जा से छिपता फिरता है। लाल लाल ओठ (होंठ) हैं, कपोल, नासिका और मंद मंद मुसकान बड़ी सुंदर है। दांतों की कांति विद्युत या द्वितीया के चंद्रमा की भांति है और भौंहें तो कामदेव की क्रीड़ा हैं। अंग प्रत्यंग ने कामदेव को जीत लिया है, सुंदर छाती पर वनमाला है। सूरदास कहते हैं कि गोपाल अपनी शोभा से हृदय को पूर्ण आनंद दे रहे हैं। इस वर्णन को पढ़ कर कौन कहेगा कि सूरदास अंधे हैं। एक एक अंग की शोभा का विस्तार से वर्णन क्या कोई जन्मांध व्यक्ति दे सकता है? बिल्कुल नहीं। सूरदास निश्चय ही अंधे नहीं थे। वे खूबसूरत आंखों वाले सुंदर गोरे व्यक्ति थे। हां, वे सांसारिक भोग विलास से विरक्त थे। इसलिए कुछ लोगों ने उन्हें अंधा कह दिया होगा।
Tuesday, November 25, 2008
एक सन्यासी से मुलाकात
Monday, November 24, 2008
संत नामदेव के गोविंद
निर्गुण संतों में अग्रिम संत नामदेव वस्तुत:उत्तर-भारत की संत परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं। मराठी संत-परंपरा में तो वह सर्वाधिक पूज्य संतों में हैं। मराठी अभंगों(विशेष छंद) के जनक होने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। उत्तर-भारत में विशेषकर पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि सिखों के प्रमुख पूज्य ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी वाणी संकलित हैं, जो प्रतिदिन अब भी बडी श्रद्धा से गाई जाती है। संत नामदेव संत कबीर, रैदास,नानक, दादू मलूककी निर्गुण भक्तिधाराके प्रवर्तक होने के कारण स्वयं भी मूर्ति पूजा,कर्मकांड, जाति-पांति व सांप्रदायिकता के कठोर निंदक रहे हैं। परमात्मा की प्राप्ति के लिए संत-सद्गुरु की कृपा को अनिवार्य मानते हैं:-
संत सूंलेना संत सूंदेना,
संत संगति मिली दुस्तर तिरना
संत की छाया संत की माया,
संत संगति मिलिगोविंद पाया॥
संत नामदेव का जन्म 26अक्तूबर,1270 ई.को महाराष्ट्र में नरसीबामनीनामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम दामाशेटथा और माता का नाम गोणाईथा। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पण्ढरपुरमानते हैं। दामाशेटबाद में पण्ढरपुरआकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे। इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था। अभी नामदेव पांच वर्ष के थे। तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए। बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है। नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा। मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं। कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया। बडा होने पर इनका विवाह राजाबाईनाम की कन्या से कर दिया गया। इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री। इनकी सेविका जानाबाईने भी श्रेष्ठ अभंगोंकी रचना की। पढंरपुरसे पचास कोस की दूरी पर औढियानागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबाखेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया। संत ज्ञानदेवऔर मुक्ताबाईके सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए। अवैदएवं योग मार्ग के पथिक बन गए। ज्ञानदेवसे इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेवइन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी,अयोध्या,मारवाड (राजस्थान) तिरूपति,रामेश्वरमआदि के दर्शन-भ्रमण किए। फिर सन् 1296में आलंदीमें ज्ञानदेवने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेवके बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली। इसके एक महीने बाद ज्ञानदेवके दूसरे भाई सोपानदेवऔर पांच महीने पश्चात मुक्तबाईभी समाधिस्थ हो गई। नामदेव अकेले हो गए। उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे। इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवालस्थान पर पहुंचे। फिर वहां घुमान(जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया। तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी,परिसाभागवते,जनाबाई,चोखामेला,त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी। बाद में अस्सी वर्ष की आयु में पढंरपुरमें विट्ठल के चरणों में आषाढ वदीत्रोदशीसंवत 1407तदानुसार3जुलाई 1350ई. को पण्ढरपुरमें ही समाधि ली। संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए। चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे। वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है। तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है। इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सभी जीवों का सृष्टाएवं रक्षक, पालनकत्र्ताबीठलराम ही है, जो इन सब में मूर्त भी है और ब्रह्मांड में व्याप्त अमूर्त्त भी है। इसलिए नामदेव कहते हैं:-
जत्रजाऊं तत्र बीठलमेला।
बीठलियौराजा रांमदेवा॥
सृष्टि में व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूति के और इस सृष्टि के रूप आकार वाले जीवों के अतिरिक्त उस बीठलका कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है। वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्मा की आंखों से ही देखा अनुभव किया जा सकता है। संत नामदेव का वारकरीपंथ आज तक उत्तरोत्तर विकसित हो रहा है।
मंदिर-मस्जिद, जात-पांत आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर गोविंद का नाम स्मरण करना ही नामदेव की सबसे बडी सीख है:-
सिमिरसिमिरगोविंद
भजुनामा तरसिभव सिंधु॥
अस्सी वर्ष की आयु तक इस संसार में गोविंद के
नाम का जप करते-कराते सन् 1350ई. में नामा स्वयं भी इस भवसागर से पार चले गए। इस धरती पर जीवों के रूप में विचरने वाले गोविंद की सेवा ही सच्ची परमात्मसेवा है।
डा. बलदेव वंशी
Saturday, November 22, 2008
क्या आप छींक रोक सकते हैं...
छींक कभी-कभी नाक में दम कर देती है
हमें छींक क्यों आती है. छींक आमतौर पर तब आती है जब हमारी नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती है. नाक से तुरंत हमारे मस्तिष्क को संदेश पहुंचता है और वह शरीर की मांसपेशियों को आदेश देता है कि इस पदार्थ को बाहर निकालें. जानते हैं छींक जैसी मामूली सी क्रिया में कितनी मांसपेशियां काम करती हैं....पेट, छाती, डायफ़्राम, वाकतंतु, गले के पीछे और यहां तक कि आंखों की भी. ये सब मिलकर काम करती हैं और पदार्थ बाहर निकाल दिया जाता है. कभी-कभी एक छींक से काम नहीं चलता तो कई छींके आती हैं. हां जब हमें ज़ुकाम होता है तब छींकें इसलिए आती हैं क्योंकि ज़ुकाम की वजह से हमारी नाक के भीतर की झिल्ली में सूजन आ जाती है और उससे ख़ुजलाहट होती है.
महाकवि कालिदास का ज्योतिष प्रेम
कवि कुलगुरु कालिदासकी विद्वताऔर बहुमुखी प्रतिभा ने विश्व के समस्त विद्वानों को आकृष्ट किया है। संस्कृत से इतर भाषाओं के विद्वान भी उनकी मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हैं। उनके ग्रंथों में चारों पुरुषार्थ (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष),अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, दर्शन, इतिहास, भूगोल एवं ज्योतिष के साथ-साथ अन्यान्य विषयों का भी समावेश मिलता है। महाकवि कालिदासने कई महाकाव्यों की रचना की, जिनमें सात प्रसिद्ध हैं-रघुवंशम्, कुमारसंभवम्,मेघदूतम्, ऋतुसंहारम्,अभिज्ञानशाकुंतलम्,विक्रमोर्वशीयम्तथा मालविकाग्निमित्रम्।इन ग्रंथों में यत्र-तत्र ज्योतिषीयप्रयोग महाकवि के ज्योतिष प्रेम को प्रकट करते हैं। महाकवि ने काव्य रचना के साथ जहां आवश्यकता हुई वहां स्पष्ट रूप से ज्योतिष संदर्भो को समायोजित किया। अपने ग्रंथों में महाकवि ने नक्षत्र, तारा, तिथि, मुहूर्त, अयन, ग्रह, दशा, रत्न, ग्रहशांति,शकुन, यात्रा, स्वप्न, राजयोग, ग्रहों की उच्चता,नीचता,वक्रत्व,मार्गत्व,ग्रहण, संक्रांति, ग्रहों का योग, काल विधान, पुनर्जन्म, भवितव्यताआदि का प्रसंगवशवर्णन किया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम्के मंगलाचरण में भगवान शंकर की अष्टमूर्तियोंमें सूर्य चंद्रमा रूपी मूर्ति का उल्लेख करते हुए ये द्वेकालंविधत्त:कहकर संपूर्ण काल विधान जो ज्योतिष शास्त्र का मूल उद्देश्य है, को स्पष्ट कर दिया। वस्तुत:तिथि, वार, नक्षत्र योग तथा करण जो पंचाङ्गहैं, सूर्य- चंद्रमा पर ही आधारित हैं। दिवा-रात्रि ही नहीं सृष्टि से लेकर प्रलय पर्यन्त सूर्य चंद्रमा ही काल का विधान कर रहे हैं। ये दोनों ज्योतिषशास्त्र के मेरुदंड हैं। इनमें भी चंद्रमा, सूर्य से ही पोषित हो रहा (प्रकाशित हो रहा है) का स्पष्ट उल्लेख रघुवंशम्के तृतीय सर्ग में है-पुपोषवृद्धिं हरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिवबालचन्द्रमा:।
किसी भी जातक की कुंडली में यदि पांच ग्रह निर्मल होकर अपने उच्च स्थान में स्थित हों, तो वह जातक निश्चित ही चक्रवर्ती सम्राट होता है,ज्योतिष शास्त्र के इस कथन को महाराजा रघु के जन्मकालकी ग्रह स्थिति (कुंडली) से महाकवि ने प्रमाणित किया है। ग्रहों की प्रतिकूलता में ग्रहशांतिअवश्यमेव लाभदायी होती है, तभी तो महर्षि कण्व शकुन्तला के प्रतिकूल ग्रहशांतिहेतु सोमतीर्थजाते हैं-दैवमस्या: प्रतिकूलंशमयितुंसोमतीर्थगत:। विवाह में शुभ मुहूर्त आवश्यक होता है। हिमालय पुत्री पार्वती से शिव का विवाह निश्चित हो गया तब मांङ्गलिककृत्य जो विवाह से पूर्व होते हैं, को मैना ने मैत्र मुहूर्त तथा उत्तराफाल्गुनीनक्षत्र में कराया। सप्तर्षिगणोंसे विवाह की तिथि पूछकर हिमालय ने स्वाती नक्षत्र में विवाह का दिन निश्चित किया। विवाह का श्रेष्ठ नक्षत्र स्वाती ज्योतिर्विदोंमें मान्य है। इतना ही नहीं वैवाहिक लग्न में सप्तम स्थान सर्वथा शुद्ध होना चाहिए।
विवाह के पश्चात् वधू प्रवेश तथा द्विरागमन में शुक्र सन्मुखप्रतिकूल रहता है। इसका उल्लेख कुमारसम्भवम्के तीसरे सर्ग में किया है। मालविकागिन्मित्रम्में विदूषक राजा से कहता है, चलिए हम लोग निकल चलें कहीं मंगलग्रह के समान वक्री गति से चलता हुआ वह पुन:पिछले राशि पर न आ जाए।
पुन:कहता है कि हे राजन्! ज्योतिषियों ने कहा है कि इस समय आपका नक्षत्र प्रतिकूल चल रहा है। दशाएं अनुकूल एवं प्रतिकूल होती रहती हैं। दोनों में सम रहना चाहिए।
सूर्य की संक्रांति तथा अयन की चर्चा रघुवंशम्के नवम सर्ग में दशरथ के मृगया प्रसंग में द्रष्टव्य है, जहां वर्णन है कि महाराजा दशरथ आखेट करते हुए सुदूर दक्षिण दिशा में चले गए। उस दिन उत्तरायण की स्थिति बन रही थी। सूर्य उत्तर की ओर मुडना चाह रहे थे, उसी समय महाराजा दशरथ ने भी अपना रथ उत्तर की ओर मोड दिया।
नक्षत्रों में अश्रि्वनी, कृत्तिका, पुनर्वसु,पुष्य,उत्तराफाल्गुनी,चित्रा,विशाखाका उल्लेख करते हुए किस नक्षत्र में कितने तारे हैं, का वैज्ञानिक वर्णन किया है। तिथियों में प्रतिपदा,अमावस्या,पूर्णिमा के साथ एकादशी का भी उल्लेख है। मेघदूतम्के उत्तर भाग में प्रबोधनी(देवोत्थान) एकादशी का उल्लेख करते हुए उस दिन यक्ष के शाप निवृत्ति की बात कही है। यही कारण है कि संस्कृत के अनेक विद्वानों ने यही कालिदासकी जन्मतिथि मानी है। मेघों के निर्माण में धुआं, प्रकाश, जल तथा वायु कारण है, का भी उल्लेख उनकी वैज्ञानिक दृष्टि का संकेत करता है। अषाढ माह में वर्षारंभ का उल्लेख मेघदूतम्के दूसरे श्लोक में किया है।
वर्षा के पश्चात अगस्त्य तारा का उदय होता है, का प्रामाणिक ज्योतिषीयवर्णन किया है। कभी वर्षा के समय यदि कू्रर ग्रह वर्षाकारकग्रहों के मध्य आ जाए तो वर्षा नहीं होती, अकाल पड जाता है, इसका उल्लेख रघुवंशम्में है। दो तीन ग्रहों के आपस में युति होने से परिणाम सुखद होता है इसका उल्लेख भी है। अङ्गस्फुरणसे होने वाले परिणामों का यत्र-तत्र वर्णन है। राजा दुष्यंत कण्व के आश्रम में प्रवेश करना चाहते हैं, उसी समय उनकी दाहिनी भुजा फडक उठती है, इसका परिणाम ज्योतिषशास्त्र में पत्नी लाभ कहा गया है। राजा विचार करते हैं कि भला आश्रम में यह कैसे संभव होगा तथापि भवितव्यताकहीं भी होकर रहती है। इस प्रकार वे भवितव्यतामें अपना अटल विश्वास प्रकट करते हैं। रघुवंशम्के चौदहवेंसर्ग में सीता जी का दाहिना नेत्र फडकता है इसे अपशकुन मान वह डर जाती हैं। स्वप्न दर्शन का भी फल होता है, इसका वर्णन रघुवंशम्महाकाव्य में प्राप्त होता है।
अपशकुनों का विस्तृत वर्णन कुमारसम्भवम्महाकाव्य में प्राप्त होता है। जब तारकासुरयुद्ध के लिए प्रस्थान करता है, उस समय गीधोंका झुंड दैत्यसेनाओंके समीप आकर ऊपर मंडराने लगता है, भयंकर आंधी चलने लगती है, आकाश मंडल जलते हुए अंगारों, रुधिरोंऔर हड्डियों के साथ बरसने लगता है तथा दिशाएं जलती हुई प्रतीत होने लगी, ऐसा लगता था जैसे दिशाएं धुंआउगल रही हैं। हाथी लडखडाने लगे, घोडे जमीन से गिरने लगे, सेनाओं में कम्पन होने लगा, कुत्ते इकट्ठे होकर मुख को ऊपर करके सूर्य में दृष्टि लगाकर कान के पर्दे को फाडने वाली भयंकर आवाज में रोने लगे। ऐसे अनेक अपशकुनों को देखकर भी तारकासुरने प्रस्थान किया और उसका परिणाम वह युद्ध में मारा गया। रघुवंशम्में बारहवें सर्ग में जब खर दूषण राम से युद्ध के लिए प्रस्थान करते हैं तो वे शूर्पनखाको आगे करके चले, उसकी नाक कटी थी, अत:यही अपशकुन हो गया, और खरदूषणका विनाश हुआ। रत्नों का भी प्रभाव मानव पर पडता है, इसके अनेक उदाहरण महाकवि ने दिए हैं। सूर्यकान्तमणिसूर्य की किरणों के स्पर्श से आग उगलती है जबकि चंद्रकान्तमणिचंद्र किरणों के स्पर्श से जल। रत्न विद्ध होने से कम प्रभावी होते हैं, जैसा कि शकुन्तला के सौंदर्य वर्णन में अनाविद्धं रत्नम्कहा है। पन्ना, माणिक्य, पद्मराग, पुखराज आदि रत्नों का यथास्थान प्रसंगवशउल्लेख आया है।
इन ज्योतिषीयवर्णनों को देखकर कहा जा सकता है कि महाकवि कालिदासजितने काव्यमर्मज्ञ थे, उतने ही ज्योतिषमर्मज्ञभी। हों भी क्यों न उन पर भगवान् महाकालेश्वर एवं भगवती महाकाली जगदंबा का वरदहस्तजो था।
डा. गिरिजा शंकर शास्त्री
Friday, November 21, 2008
वाल्मीकि रामायण, तुलसी रामायण!
दानवीर महाराज रघु
भगवान रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवान श्रीराम के प्रपितामह थे। उनके नाम से ही उनके वंश के क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते हैं। एक बार महाराज रघु ने एक बडा भारी यज्ञ किया। जब यज्ञ पूरा हो गया, तब महाराज ने ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों को अपना सारा धन दान कर दिया। महाराज इतने बडे दानी थे कि उन्होंने अपने आभूषण, सुंदर वस्त्र और सारे बर्तन तक दान कर दिए। महाराज के पास साधारण वस्त्र ही रह गए। वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे। यज्ञ में जब महाराज रघु सर्वस्व दान कर चुके, तब उनके पास ऋषि कौत्सनाम के एक ब्राह्मण कुमार आए। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के पात्र वाले जल से उनके पैर धोए। स्वागत-सत्कार हो जाने पर महाराज ने पूछा- आप मेरे पास कैसे पधारे? मैं क्या सेवा करूं?
कौत्सने कहा-महाराज मैं आया तो किसी काम से ही था, किंतु आपने तो पहले ही सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूंगा। महाराज रघु ने नम्रतापूर्वक प्रार्थना की, आप अपने आने का उद्देश्य जरूर बता दें। कौत्सने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरु दक्षिणा मांगने की प्रार्थना की। गुरुदेव बडे स्नेह से कहा- बेटा तूने यहां रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। मेरी गुरु दक्षिणा तो हो गई। तू संकोच मत कर। प्रसन्नता से घर जा। लेकिन कौत्सने जब गुरु दक्षिणा देने का हठ कर लिया, तब गुरुदेव को थोडा क्रोध आ गया। वे बोले-तूने मुझसे चौदह विद्याएं पढी हैं, अत:प्रत्येक विद्या के लिए एक करोड सोने की मोहरें लाकर दे। गुरु दक्षिणा के लिए चौदह करोड सोने की मोहरें लेने के लिए ही कौत्सअयोध्या आए थे।
महाराज ने कौत्सकी बात सुनकर कहा- जैसे आपने यहां तक आने की कृपा की है, वैसे ही मुझ पर थोडी-सी कृपा और करें। तीन दिन तक आप मेरी अग्निशालामें ठहरें। रघु के यहां से एक ब्राह्मण कुमार निराश लौट जाए, यह तो बडे दु:ख एवं कलंक की बात होगी! मैं तीन दिन में आपकी गुरु दक्षिणा का कोई-न-कोई प्रबंध अवश्य कर दूंगा। कौत्सने अयोध्या में रुकना स्वीकार कर लिया। महाराज ने अपने मंत्री को बुलाकर कहा-यज्ञ में सभी सामंत नरेश कर दे चुके हैं। उनसे दुबारा कर लेना न्याय नहीं है। लेकिन कुबेरजीने मुझे कभी कर नहीं दिया। वे देवता हैं, तो क्या हुआ? कैलाश पर्वत पर रहते हैं, इसलिए पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को उन्हें कर देना चाहिए। मेरे सब अस्त्र-शस्त्र मेरे रथ में रखवा दो। मैं कल सबेरे कुबेर पर चढाई करूंगा। आज रात मैं उस रथ पर ही सोऊंगा। जब तक ब्राह्मण कुमार को दक्षिणा न मिले, राजमहल में पैर नहीं रख सकता। उस रात महाराज रघु रथ में ही सोए। लेकिन बडे सवेरे उनका कोषाध्यक्ष उनके पास दौडा आया और कहने लगा-महाराज खजाने का घर सोने की मोहरों से ऊपर तक भरा पडा है। रात में उसमें मोहरों की वर्षा हुई है। महाराज समझ गए कि कुबेरजीने यह मोहरों की वर्षा की है। महाराज ने सब मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्ससे बोले-आप इस धन को ले जाएं। कौत्सने कहा, मुझे तो गुरु दक्षिणा के लिए चौदह करोड मोहरें चाहिए। उससे अधिक एक मोहर भी मैं नहीं लूंगा। महाराज ने कहा, लेकिन यह धन आपके लिए ही आया है। ब्राह्मण का धन हम अपने यहां नहीं रख सकते। आपको ही यह सब लेना पडेगा। कौत्सने बडी दृढता से कहा-महाराज मैं एक ब्राह्मण हूं। धन का मुझे करना क्या है! आप इसका चाहे जो करें। मैं तो एक भी मोहर अधिक नहीं लूंगा। कौत्सचौदह करोड मोहरें लेकर चले गए। शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मणों को दान कर दिया।
डा वीराचार्यशास्त्री
सच्चा वीर
आत्मबल है सहायक
वास्तव में, दूषित मनोवृत्तियांही कायरता की सूचक हैं, न कि वीरता की। दरअसल, वीर और पराक्रमी व्यक्ति वही होते हैं, जो अत्याचार करने वाले लोगों का विरोध करते हैं और निर्बल की सहायता करते हैं। ऐसे लोगों में उनका आत्मबल ही होता है, जो दूसरे लोगों में व्याप्त बुरी प्रवृत्तियों को समाप्त करने में सहायक होता है। यदि हम भी अपने भीतर परोपकार, दया, दानशीलताजैसे मनोभाव चाहते हैं, तो आत्मबल को विकसित करना अत्यंत आवश्यक है।
सत्य की राह
वीर व्यक्तियों में यह आत्मबल सत्य की राह पर चलने के कारण ही उत्पन्न होता है। और इसीलिए वे हमेशा सत्य का साथ देते हैं। अपने कहे गए सत्य वचनों को पूरा करने के लिए वे अपने जीवन की भी परवाह नहीं करते।
कौन उससे प्रसन्न है अथवा कौन उससे अप्रसन्न, इस बात की चिंता सत्य के पथिक नहीं करते। उनका एक ही उद्देश्य होता है, जरूरतमंदों की मदद करना। इस फेर में यदि कोई व्यक्ति उनसे अप्रसन्न हो जाता है, तो वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं।
सरल मार्ग का चुनाव
हम जीवनपर्यन्तइन दो विचारों पर मंथन करते रहते हैं कि कौन कार्य हमारे लिए अच्छा है और कौन बुरा? विवेकी जन वही मार्ग चुनते हैं, जो उनके लिए सरल और शुभ हो। ऐसे लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा इसी तरफ मोड देते हैं। उनकी यह ऊर्जा सकारात्मक होती है। सच तो यह है कि नकारात्मक प्रवृत्तियां, जैसे-भय, क्रोध, ईष्र्या आदि दर्शाने वाले मनोभाव हमें गलत राह की ओर ले जाते हैं, यानी वे विनाश की ओर ले जाने वाले साबित हो सकते हैं। गीता में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार बताया गया है। साथ ही, यह भी कहा गया है कि जो लोग आत्मोन्नतिके इच्छुक हैं, उन्हें इन तीनों दुर्गुणोंका त्याग कर देना चाहिए।
सदाचारी बनें
यदि हम चिंता, भय, क्रोध, ईष्र्या, शोषण आदि दुर्गुणोंके दास बन जाएं, तो हमारा जीवन नीरस ही नहीं, भार भी प्रतीत होने लगता है। यहां तक कि व्यक्ति नशे की शरण में जाने, वैरागी बनने, आत्महत्या करने आदि जैसे कुकृत्यों को अंजाम देने लगता है। यदि हम सदाचारी बनें, तो इससे न केवल स्वयं का भला होगा, बल्कि हम आसपास के लोगों की मदद भी करने में समर्थ हो सकते हैं। दूसरी ओर, यदि हमारा व्यवहार दुराचारी व्यक्ति के समान है, तो हम अपना तो सर्वनाश करेंगे ही, साथ ही साथ हमारे आस-पास का वातावरण भी दुखदायी हो जाएगा। सच ही कहा गया है कि जब बुराई की बेल बढती है, तो उसके विषैले फल संसार में अनेक प्रकार के दुष्परिणाम पैदा करते हैं।
जीव को दो प्रकार के दुखों का सामना करना पडता है- बाहरी और भीतरी। भौतिक अभिलाषाओं की पूर्ति न होने से बाहरी दुख उत्पन्न होते हैं और अन्तर्मन में उठने वाली अभिलाषाओं से भीतरी दुखों का सर्जन होता है। हमें अपने अंदर और बाहर उत्पन्न दुखों से संघर्षपूर्ण लडाई लडनी पडती है। सच तो यह है कि हमारा जीवन इस पृथ्वी पर एक संघर्षपूर्ण युद्ध के समान है। और हम इस युद्ध का सामना तभी कर पाएंगे, जब हम निडर और आत्मविश्वासी होंगे। जिस प्रकार मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, उसी प्रकार जीवन में संघर्ष भी अवश्यंभावी है।
श्रेष्ठ जन कहते हैं कि जीवन के संघर्षो का मुकाबला सदा जीतने के भाव से करना चाहिए। उनसे बच कर भागने के बजाय उनका दृढतापूर्वक सामना करना चाहिए, तभी सही मार्ग निकल सकता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन के शत्रुओं, जैसे-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को कम नहीं समझना चाहिए। यही हमारे मुख्य शत्रु हैं, जिन्हें हमें हराना है, ताकि हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। इन बुरी ताकतों को हराने के लिए संकुचित हठधर्मिता को छोडना होगा और सतत प्रयास करते रहना होगा, तभी हम सफलता की ओर कदम बढा सकेंगे।
लाजपत राय सभरवाल
Thursday, November 20, 2008
शरणागत वत्सल थे महर्षि सौभरि
महर्षि सौभरिसृष्टि के आदि महामान्य महर्षियोंमें हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणीसे ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा,अंगिरासे घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरिहुए। इसके अनुसार सौभरिबहुऋचाचार्यमहामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हुए। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरिएक हजार वर्ष तक यमुना हृदजहां ब्रज का कालीदहऔर वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिकसमस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। इधर अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धातावर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरिसे यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मानअयोध्यापतिको आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापतिके साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।
यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये। महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था कि आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरिकी ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणकद्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पो को अपना भोजन बनाने लगा। सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। शेषनाग जी ने शरणागत वत्सल महर्षि सौभरिकी छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। कालियनाग के साथ पीडित सर्प सौभरिजी की शरणागत हुए। मुनिवरने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षीगरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरखस्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरिअहि को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे। तपस्या करते बहुत काल हो जाने पर भगवान विष्णु एक दिवस सौभरिजी के पास आकर निर्देश देते हैं कि सृष्टि की प्रगति के लिए ऋषि जी गृहस्थ धर्म में प्रवेश करें और इसके लिए नृपश्रेष्ठ मान्धाताके अन्त:पुर की एक कन्या से पाणिग्रहण करें। इच्छा न होने के बावजूद सृष्टि कल्याण के लिए भगवान विष्णु के निर्देशानुसार महर्षि सम्राट मान्धाताके यहां पहुंचे तो उनकी पचासों कन्याओं ने उनको वर बनाने की इच्छा जताई। कन्याओं का पाणिग्रहण वेद रीति से सौभरिके साथ कर दिया तथा अपार दहेज देकर उनके आश्रम अहिवास (सुनरख) को विदा किया। योग माया ने महर्षि के निर्देश पर सभी के लिए अलग-अलग आवासों की व्यवस्था कर दी। महर्षि सौभरिपत्नियों के साथ योग बल से रहते थे। एक दिवस मान्धातापुत्रियों का कुशल-क्षेम जानने महर्षि के आश्रम आये। प्रत्येक पुत्री के प्रासाद में नृपको महर्षि मिलते तथा पुत्री सर्वथा आनन्दित। महर्षि ने राजा को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार को त्यागने का उपदेश किया। महर्षि सौभरिके गुणवान एवं रूपवानपांच सहस्रपुत्र-पुत्रियां हुए तथा पौत्र-प्रपौत्र भी हुए जो अहिवासीकहलाये। एक दिन महर्षि को लगा कि उनका काम पूरा हो गया है और सभी पत्िनयों एवं परिवार को बताकर पुन:तपस्या की ओर बढने की इच्छा हुई।
ऋषि पत्नियों ने भी महर्षि के साथ ही तपस्या में सहयोग करने का आग्रह किया। तपस्या में लीन हो प्रभु दर्शन कर समाधिस्थ हो गए। महर्षि का तपस्थलआज भी एक टीले के रूप में विद्यमान है जहां मंदिर में महर्षि सौभरिकी पूजा होती है। भक्त उदार मना महर्षि की आराधना कर मनचाहा मनोरथ प्राप्त करते हैं।
डा. कन्हैया लाल पाण्डेय
सूफी काव्य के अग्रदूत बाबा शेख फरीद
शेख फरीद भारतीय सूफी काव्य के प्रथम और प्रामाणिक हस्ताक्षर हैं। सूफी काव्य के बुनियादी संकल्प शेख फरीद की वाणी में नये उद्बोधन के साथ उभरते हैं। सूफी जीवन दर्शन सामाजिक जीवन के संतुलन पैदा करने वाली जीवन शैली थी। जिसका प्रचार-प्रसार हमें शेख फरीद के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्वमें मिलता है। उत्तरभारत की सूफी परंपरा शेख फरीद के जीवन के दर्शन से केवल प्रभावित ही नहीं रही, बल्कि इसका सही अनुसरण लोक-जीवन में भी मिलता है।
शेख फरीद जीवन के नैतिक मूल्यों की वकालत भी करते हैं तथा इसे आदर्श जीवन का मानदण्ड भी स्वीकार करते हैं। शेख फरीद की वाणी में ऐसे कई पहलू देखे जा सकते हैं। शेख फरीद का जीवन दर्शन केवल किताबी नहीं है, उसमें सही जिन्दगी की वह तस्वीर भी अंकित है जो आलोक-स्तंभ बनकर आस्था के नए स्वरों को जन्म देती है। जीवन की प्रत्येक सच्चाई को शेख फरीद गंभीरतापूर्वक लेते हैं। वे जीवन के धनात्मक मूल्यों के पक्षधर हैं। फरीद की वाणी में मानव जीवन का महाबिम्बविद्यमान है। इस महाबिम्बमें जन्म, शैशव, यौवन और बुढापे का चित्रण बडी खूबसूरती से हुआ है।
वहीं शेख फरीद की वाणी में स्वतंत्र मानव की वह छवि उभरती है, जिसके कारण वह नेक और उमदा इंसान बना हुआ है। शेख फरीद अकाल पुरखपर सौ-प्रतिशत विश्वास करते हैं। रब्बकी रजा उनके लिए अन्तिम फरमान है। वे ज्ञान और क्रिया में केवल विश्वास ही नहीं रखते बल्कि अपनी वाणी में यह भी साबित करते हैं कि भरोसे का खेल हर व्यक्ति के बस की बात नहीं है। अल्ला की जात पर ईमान रखने वाला व्यक्ति उन तमाम सीमाओं को लांघ जाता है, जिसकी अपेक्षा दुनिया में उससे की जाती है। शेख फरीद की स्थापनाओं में धर्म का असली चेहरा रौशन होता है। इस रोशनी में त्याग, सेवा, भाईचारा तथा जीवन के प्रति गहरी निष्ठा अपना कमाल दिखाती है। इस जागरण में आदमी की वह मनोदशा क्रियाशील होती है, जिसकी वजह से उसका मनोबल मानवीय शक्ति में रूपांतरण हो जाता है।
इसके अलावा फरीद वाणी में यह दास्तान बहुआयामी है। फरीद का अनुभव यथार्थवादी है। फरीद उस परम्परा का तत्काल समर्थन नहीं करते, जिसकी अर्थवत्तायुग के अनुरूप नहीं है। वह चाहते हैं कि परंपरा का सांस्कृतिक सम्प्रेषण सीधे लोक जीवन में हो जिसकी सार्थकता शाश्वत काल तक बनी रहे। शेख फरीद की वाणी में ऐसे जीने के कई साक्ष्य मिलते हैं। फरीद वाणी के विकास में यह विमर्श मूल्यवान भी है तथा सम्पूर्ण अखण्ड भी। वास्तव में शेख फरीद के जीवन दर्शन की यही सम्भावना और गहराई है। शेख फरीद की वाणी में हिन्दोस्तानभी हािजर और पंजाब भी। पंजाबी जन-जीवन के सूक्ष्म ब्यौरों से फरीद वाणी नई साहित्यिक विरासत को जन्म देती है।
दर्शन मीमांसा के कई महत्वपूर्ण संदर्भ फरीद वाणी में नव चेतना के साथ दर्ज हुए हैं। सूफी दर्शन का सरलीकरण फरीद वाणी की विशेषता है। कठिन से कठिन सूफी अनुभव फरीद वाणी में सरल बन जाता है। इसीलिए ओशोफरीद वाणी को शीतल-छांग की संज्ञा देते हैं। फरीद की वाणी में आनंद और सुख के श्लोक एक ऐसा सच्चा वातावरण पैदा करते हैं, जिसमें क्षण, दिन-रात तथा पूरा परिवेश नई दिशा को ग्रहण कर लेता है और मौन की करामात अन्तर्तममन पर बरस जाती है। यही विचार फरीद वाणी का केन्द्र है। फरीद वाणी की अन्तर्ध्वनियांसम्पूर्ण सत्य का उद्घाटन कर देती है।
छायारूपइस जगत को उस महान् अस्तित्व से जोड देती है, जिसका सरोकार उस सत्य से होता है जिसकी असलियत अंधेरे और प्रकाश के संघर्ष में जन्म ले रही होती है। शेख फरीद चाहते हैं कि उन अंधेरे रास्तों को सदा के लिए प्रकाशमान बना दिया जाए जो हर आदमी को स्वतंत्रता, आत्मविश्वास और सौहार्द से वंचित रखता है। फरीद चाहते हैं कि सच्चा इन्सान खुदा पर विश्वास रखे, अपने सत्य को पाने का विश्वास करे तथा तार्किक और बौद्धिक उलझनों में न उलझकर गहन समक्ष से उस सत्य को प्राप्त कर ले, जिसके लिए वह भटक रहा है। फरीद वाणी का यही जीवन्त महान् उपदेश है। बाबा शेख फरीद के पास भी लोगों को अजर और अमर बनाने की नैतिक शिक्षाओं की महान औषधि थी। यह औषधि मन और तन निरोग कर देती थी।
यही कारण है कि शेख फरीद का फलसफा पूरे हिन्दोस्तानमें भाईचारे के सन्देश के साथ फैला।
शेख फरीद समाज में ऐसा माहौल बनाना चाहते थे, जिसके माध्यम से नये दर्शनशास्त्र की मिसाल कायम हो सके। उन्हें यह अहसास था कि दुनिया में रहने वाले रब्बके बन्दे तभी शान्ति से रह सकते हैं यदि प्रेम की सरिता अविरल बहे। मन की तडप, प्रभु को पा लेने की इच्छा तभी स्थिर हो सकती है यदि सच्चे ईश्वर के प्रति न खत्म होने वाली ललक पैदा हो जाए। पंजाबी साहित्य में जो दीपक शेख फरीद जी ने बिरहा की अग्नि वाला जलाया, वह आज तक पंजाबी काव्य में अपनी आभा बिखेर रहा है। शेख फरीद भारतीय भाषाओं में बिरहा के भी पहले कवि हैं। पंजाब का यह सौभाग्य है कि हर बरस बाबा शेख फरीद का पर्व श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। बाबा शेख फरीद को याद करने का अर्थ है, उस सांझे भाईचारे को याद करना, जिसके कारण पंजाब न हिंदू और न मुसलमान बल्कि वह तो महान विरासत है जिसके कण-कण में बाबा शेख फरीद का महान संदेश छुपा हुआ है। बाबा शेख फरीद ने पंजाबियों को भरे-पूरे जीवन की जांच सिखलाई।
प्रो. हरमहेन्द्रसिंह बेदी
Wednesday, November 19, 2008
वैदिक विद्याओं के संपादक : महर्षि वेदव्यास
व्यासजीका जन्म द्वीप में होने से इनका नाम द्वैपायन पडा। श्यामवर्ण का शरीर होने से ये कृष्णद्वैपायन कहलाए। जन्म लेते ही इन्होंने अपनी माता से जंगल में जाकर तपस्या करने की इच्छा प्रकट की। प्रारंभ में इनकी माता ने इन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया, किन्तु अन्त में माता के स्मरण करते ही तत्काल उनके पास आने का वचन देकर इन्होंने माँ की अनुमति प्राप्त कर ली। ये तप करने के लिए हिमालय चले गए और वहाँ नर-नारायण की साधनास्थलीबदरीवनमें तपस्या की। इससे इनकी बादरायण नाम से प्रसिद्धि हो गई।
महर्षि व्यास अलौकिक शक्ति-संपन्न महाविद्वानहैं। लोगों को आलसी, अल्पायु, मंदमतिऔर पापरतदेखकर इन्होंने वेद का विभाजन किया। मनुष्यों की धारणा-शक्ति को कमजोर होते देख व्यासजीने वेद को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-इनचार भागों में विभाजित किया और एक-एक वैदिक संहिता अपने चार प्रमुख शिष्यों को पढाई। उन्होंने पैलको ऋग्वेद, वैशम्पायनको यजुर्वेद, जैमिनिको सामवेद तथा सुमन्तुको अथर्ववेदका संपूर्ण अध्ययन कराया। तत्पश्चात प्रत्येक संहिता की फिर अनेक शाखा-प्रशाखाएं हुई। इस प्रकार इन्हीं के द्वारा वैदिक वाङ्गमयका सम्पादन और विस्तार हुआ। व्यास का शाब्दिक अर्थ है विस्तार। वेदों का विस्तार इनके माध्यम से होने के कारण इनका नाम वेदव्यास पडा, जो कि इनके अन्य नामों की अपेक्षा सर्वाधिक लोकप्रिय भी है। समाज का कोई भी वर्ग वैदिक विद्याओं के ज्ञान से वंचित न रहे, इसलिए महर्षि वेदव्यासने महाभारत की रचना की। कहा जाता है कि स्वयं भगवान गणेश ने इस महान ग्रंथ को लिपिबद्ध किया था। इनके द्वारा प्रणीत महाभारत को मनीषी पंचम वेद मानते हैं। श्रीमद्भगवद्गीताइस महाभारत का ही अंश है। व्यासजीने महाभारत को सर्वप्रथम अपने पांचवें प्रमुख शिष्य लोमहर्षणजीको पढाया था।
वेदान्त-दर्शन के साथ अनादि पुराण को लुप्त होते देखकर श्रीवेदव्यासने अट्ठारह पुराणों का प्रणयन किया। उपनिषदों का सार-तत्व समझाने के लिए इन्होंने ब्रह्मसूत्र का निर्माण किया, जिनपर शंकराचार्य, वल्लभाचार्यआदि अनेक महाविद्वानोंने भाष्य-रचना कर अपना-अपना अलग मत स्थापित किया। व्यास-स्मृति के नाम से रचा हुआ इनका एक स्मृतिग्रंथभी उपलब्ध होता है। इस प्रकार भारतीय वाङ्गमयएवं हिन्दू संस्कृति पर वेदव्यासजीका बहुत बडा ऋण है। ये श्रुति-स्मृति-इतिहास-पुराण के प्रधान व्याख्याता हैं। सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में इनका विशिष्ट योगदान है। व्यास-जन्मतिथि आषाढी पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा के रूप में महापर्वबन गई है, जिसे प्रतिवर्ष अत्यंत श्रद्धा एवं उत्साह के साथ सनातन धर्मावलम्बी मनाते हैं। गुरु-शिष्य परम्परा को सुदृढ बनाने के उद्देश्य से व्यास-पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
संसार को श्रीमद्भगवद्गीताजैसा अनुपम आध्यात्मिक रत्न श्रीवेदव्यासकी कृपा से ही प्राप्त हुआ। इन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण के उस अमर उपदेश को अपनी महाभारत में ग्रंथित कर उसे संपूर्ण विश्व के लिए सुलभ बना दिया। प्राणियों के कल्याण की कामना से भक्ति-रस के सागर को महर्षि व्यास ने श्रीमद्भागवत महापुराणके 18हजार श्लोकों में बांध दिया है।
दिव्य तेज, असीम शक्ति एवं असाधारण गुणों से संपन्न महर्षि व्यास को मनीषियोंने त्रिदेवोंकी समकक्षताप्रदान की है-
अचतुर्वदनोब्रह्मा द्विबाहुपरोहरि:।
अभाललोचन:शम्भुर्भगवान्बदरायण:॥
श्रीव्यासदेव चतुर्मुख न होते हुए भी ब्रह्मा, दो भुजाओं वाले होते हुए भी दूसरे विष्णु तथा त्रिनेत्रधारीन होने पर भी साक्षात् शिव ही हैं।
इसीलिए इनकी स्तुति में यह कहा गया है-
नमोऽस्तुतेव्यास विशालबुद्धे
फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।
येन त्वयाभारततैलपूर्ण:
प्रज्वालितो ज्ञानमय: प्रदीप:॥
खिले हुए कमल की पंखुडी के समान बडे-बडे नेत्रों वाले महाबुद्धिमानव्यासदेव!आपने अपने महाभारतरूपीतेल के द्वारा दिव्य ज्ञानमय दीपक को प्रकाशित किया है, आपको नमस्कार है।
वस्तुत:वेद भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आचार-विचार, रीति-नीति, विज्ञान-कला आदि सभी कुछ वेद से ही अनुप्राणित है। हमारे जीवन और साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है, जिसका बीज वेद में न मिले। सही मायनों में वेद हमारी सभ्यता की आधारभूमिहै। महर्षि वेदव्यासने वेद के विभाजन का युगान्तकारीकार्य करके इस अथाह ज्ञान-राशि को लोकहित में संपादित कर दिया। महाभारत के माध्यम से वेदांशसमाज के सभी वर्गो तक पहुँचाया। ऐसे अवतारीमहापुरुष का अवतरण-दिवस सबके लिए गुरु पूर्णिमा के रूप में सत्प्रेरणाका महापर्वबन गया है।
Tuesday, November 18, 2008
सतत् यायावर स्वामी रामतीर्थ
अंतत:25वर्ष की आयु में नौकरी-चाकरी, घर परिवार छोडकर तीरथरामऋषिकेश के पास ब्रह्मपुरी में निवास करने लगता है। ऐसी लोकमान्यताहै कि इसी स्थान पर तीरथरामको दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति होती है। 28वर्ष की अवस्था में तीरथरामएक नया व्यक्तित्व ग्रहण करते हैं। वे तीरथरामसे स्वामी रामतीर्थ हो जाते हैं। वे परम्परागत संन्यास की सीमाओं में बंधना नहीं चाहते हैं। बस, शिखा और सूत्र गंगा जी में फेंककर संन्यास-भाव में आ जाते हैं। टेहरीके महराज ज्ञानाभासे प्रभावित होकर आपको देश-विदेश की यात्रा हेतु प्रेरित करते हैं। स्वामी रामतीर्थ जापान एवं अमेरिका की यात्रा करते हैं। इन देशों में वे लोगों को भारत के औपनिषदिक ज्ञान की झलक दिखाते हैं।
अमेरिका में उनका प्रवास लगभग दो वर्षो
तक रहता है। विदेश-यात्रा से लौटकर महाराज
टेहरीके विशेष आग्रह पर स्वामी रामतीर्थ टेहरीराज्य में गंगा जी के किनारे एक कुटी में निवास करने लगते हैं। एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्वामी रामतीर्थ गंगा-स्नान हेतु जाते हैं। स्नान क्रम में वे आगे ही बढते जाते हैं। अचानक वे एक भंवर में फंस जाते हैं और वहीं उनकी जलसमाधि बन जाती है। यह घटना 1906की है। इस समय स्वामी जी की आयु मात्र 33वर्ष है। स्वामी जी फारसी, संस्कृत और हिंदी के अच्छे कवि थे।
डा. वंशीधर त्रिपाठी
Monday, November 17, 2008
सच्चा आध्यात्मिक नायक स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी संत हुए हैं। 12जनवरी, 1863को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावशतलाश आरंभ कर दी। इसी क्रम में सन् 1881में प्रथम बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पडे। काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप जताया और कहा कि आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं। यह आत्मा जगत के सर्वाश में व्याप्त है। सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है। उन्होंने धर्म को मनुष्य, समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए स्वीकार किया और कहा कि धर्म मनुष्य के लिए है,मनुष्य धर्म के लिए नहीं। भारतीय जन के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए उन का नारा था -उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत।
31मई, 1883को वह अमेरिका गए।
11सितंबर, 1883में शिकागोके विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयो और बहनोकह कर संबोधित किया।
इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बडी देर तक तालियां बजाते रहे। वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया, उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दु:ख होता है।
अत:हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दु:ख न हो। अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887में भारत लौट आए। फिर बाद में 18नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है।
उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है? स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मात्र कर्मकांड की निर्जीव क्रियाओं से निकाल कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाने पर बल दिया। वह सच्चे मानवतावादी संत थे। अत:उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान और कल्याण को सर्वोपरि माना। इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड सिद्धांतों तथा सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने के आग्रह किए।
युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।
विवेकानंद ने शिक्षा को अध्यात्म से जोड कर कहा कि जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढे, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सके।
पराधीन भारतीय समाज को उन्होंने स्वार्थ, प्रमाद व कायरता की नींद से झकझोर कर जगाया और कहा कि मैं एक हजार बार सहर्ष नरक में जाने को तैयार हूं यदि इससे अपने देशवासियों का जीवन-स्तर थोडा-सा भी उठा सकूं।
इस प्रकार एक सच्चे भारतीय संत की मर्यादा के अनुरूप स्वामी विवेकानंद ने अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा भूख से लडने के लिए अपने समाज को तैयार किया तो राष्ट्रीय चेतना जगाने, सांप्रदायिकता मिटाने, मानवतावादी संवेदनशील समाज बनाने की एक आध्यात्मिक नायक की भूमिका निभाते हुए 4जुलाई सन् 1902में कुल 39वर्ष की आयु में अपनी इहलीला समाप्त की।
डा. बलदेव वंशी
Saturday, November 15, 2008
संत कबीर-रचा वंचितों का वेद
जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद।
कब मरिहोंकब पायहुं,पूरन परमानंद॥
बिना मृत्यु के परमात्मा से मिलन संभव नहीं है। यहां मरने का एक अर्थ अहंकार का मरना, दंभ को, मैं पन को मारना भी है।
कबीर ने काल और महाकाल के भय से मानव को मुक्त कर जीवन की महत्ता सिद्ध की है। निर्धन, दमित, उपेक्षित, दलित व्यक्ति को भी कबीर धनवान नहीं, बल्कि आत्मवानबनाते हैं और वह स्वयं को धनवानों से भी अधिक धनवान तथा महिमावान समझता है। सामाजिक गैर-बराबरी, जाति-पांति की विषमता से लडने की आंतरिक, वास्तविक क्षमताओं से कबीर व्यक्ति को जोडते हैं। उसमें आत्मा, आत्म-शक्ति जगाते हैं।
जीवन के प्रति अगाध विश्वासों से कबीर हमें भर देते हैं, ताकि अपसंस्कृति एवं अमानवीयताके विपरीत व्यक्ति अध्यात्म सत्ता से जुडे और आत्मीय-मानवीय विश्व का सु-नागरिक सिद्ध हो।
सच है-परमात्मा ही पूर्ण है। योग-ध्यान-आत्मा द्वारा उससे संयुक्त होकर ही शांति, आनंद और आत्म-तुष्टि का अनुभव किया जा सकता है। यही कारण है कि कबीर उस पूर्ण, परमात्मा से जुडने के मार्ग दिखाते हैं। परमात्मा के पूर्ण होने की वैदिक अवधारणा के आधार पर वे कहते हैं :
पूरे सोंपरिचय भया,सब दु:ख मेल्यादूरी।
निर्मल कीन्हींआत्मा, ताथैंसदा हुजूरी॥
सब प्रकार की हिंसा, हत्या, दु:ख-क्लेश से मुक्त होने और परमात्मा के हर समय, हर कहीं खुले दर्शन करने का एक ही मार्ग है-आत्मा की निर्मलता। निर्मल आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाने का मार्ग दिखाने वाले मसीहा हैं कबीर।
कबीर विद्वेषियोंने उन पर कई आक्षेप किए हैं। उन्हें वेद-विरोधी व नारी निंदक तक कहा गया है, जबकि ये दोनों बातें व्यर्थ भ्रमित करने वाली हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है, आत्मिक-आध्यात्मिक ज्ञान है, जो वेदनात्मकताएवं संवेदनात्मकताका आधार है। कबीर ज्ञानमार्गीमाने जाते हैं। उनका मार्ग भक्ति व कर्म से अधिक एवं मुखर ज्ञान का मार्ग है। कबीर यदि ज्ञान (वेद) से भी विरोध रखने वाले माने जाएंगे, तब उनके चिंतन का और कौन सा आधार है? कबीर की एक साखी संतों में प्रसिद्ध है।
वे कहते हैं :
वेद हमारा भेद है, हम वेदन के माहिं।
जिन वेदन में हम रहें, वेदौंजानतनाहिं॥
कह सकते हैं कि कबीर ने वंचितों का वेद रचा। नारी और शूद्र्र को वेद पाठ से वंचित कर दिए जाने पर कबीर ने स्वयं अपना वेद रचा, जो कि वंचकों के वेद से भिन्न है और इस अपने वेद में वे लोग स्वयं भी स्थित हैं। उनकी पीडाएं, आकांक्षाएं, आह्लाद-विषाद भी इसमें समाहित हैं।
इसी भांति नारी-निंदक मानी जाने वाली साखियोंको विद्वानों ने ठीक से अब तक समझने का प्रयास नहीं किया। जो कुछ पूर्व विद्वानों ने मान लिया, उसी को बडे-बडे विश्वविद्यालयों के स्व-नामधन्य विभागाध्यक्ष तक दोहराते जा रहे हैं। कबीर ग्रंथावली में कामी नर को अंग के अंतर्गत संकलित हैं उक्त साखियां,जो स्पष्ट ही कामी नर को संबोधित हैं, नारी को नहीं। पुरुष सत्तात्मकसमाज के मूल्य-पक्षधर नारी संबंधी कबीर के विचारों को अनदेखा क्यों कर रहे हैं? यही नहीं, वे तो कंचन एवं कामिनी के प्रति कहे गए कबीर के शब्दों को सारी नारी जाति पर आरोपित कर रहे हैं।
कामिनी नारी यदि लपटों-भरी आग है, तो कामी नर को उससे बचने की हिदायत कबीर दे रहे हैं, नहीं तो-अन्यत्र साखियोंमें कबीर वीर व सती नारी के प्रति खुले कंठ से पक्षधरता व्यक्त करते हैं। वे इस बात पर भी व्यंग्य करते हैं कि जहां समाज सती नारी को पूरी देह ढकने के लिए उपयुक्त वस्त्र प्रदान नहीं करता, वहीं वेश्या खासा पहनती है। ऐसे में यह प्रमाणित
हो जाता है कि सती, साधु, सत्य और ज्ञान के पक्षधर संत कबीर ने ज्ञान को परमात्मा के रूप में स्थापित किया है।
डॉ. बलदेव वंशी
सच्चे अर्थो में देवर्षि हैं नारद
देवर्षिनारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजीका सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद्भगवद्गीताके दशम अध्याय के 26वेंश्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। देवर्षियों में मैं नारद हूं। श्रीमद्भागवत महापुराणका कथन है, सृष्टि में भगवान ने देवर्षिनारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वततंत्र(जिसे <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:नारद-पाञ्चरात्र">नारद-पाञ्चरात्र भी कहते हैं) का उपदेश दिया जिसमें सत्कर्मो के द्वारा भव-बंधन से मुक्ति का मार्ग दिखाया गया है।
वायुपुराणमें देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षिनाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी,स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात,गर्भावस्था में ही अज्ञानरूपीअंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्तातथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियोंसे घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।
इसी पुराण में आगे लिखा है कि धर्म, पुलस्त्य,क्रतु, पुलह,प्रत्यूष,प्रभास और कश्यप-इनके पुत्रों को देवर्षिका पद प्राप्त हुआ। धर्म के पुत्र नर एवं नारायण, क्रतु के पुत्र बालखिल्यगण,पुलहके पुत्र कर्दम, पुलस्त्यके पुत्र कुबेर, प्रत्यूषके पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र नारद और पर्वत देवर्षि माने गए, किंतु जनसाधारण देवर्षिके रूप में केवल नारदजीको ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराणमें बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजीमें पूर्णत:घटित होते हैं।
महाभारत के सभापर्वके पांचवें अध्याय में नारदजीके व्यक्तित्व का परिचय इस प्रकार दिया गया है-देवर्षि नारद वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ, देवताओं के पूज्य, इतिहास-पुराणों के विशेषज्ञ, पूर्व कल्पों(अतीत) की बातों को जानने वाले, न्याय एवं धर्म के तत्त्वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान, संगीत-विशारद, प्रभावशाली वक्ता, मेधावी, नीतिज्ञ, कवि, महापण्डित, बृहस्पति जैसे महाविद्वानोंकी शंकाओं का समाधान करने वाले, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के यथार्थ के ज्ञाता, योगबलसे समस्त लोकों के समाचार जान सकने में समर्थ, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को जानने वाले, देवताओं-दैत्यों को वैराग्य के उपदेशक, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में भेद करने में दक्ष, समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सद्गुणों के भण्डार, सदाचार के आधार, आनंद के सागर, परम तेजस्वी, सभी विद्याओं में निपुण, सबके हितकारी और सर्वत्र गति वाले हैं। अट्ठारह महापुराणोंमें एक नारदोक्तपुराण बृहन्नारदीय पुराण के नाम से प्रख्यात है। मत्स्यपुराणमें वर्णित है कि श्री नारदजीने बृहत्कल्प-प्रसंगमें जिन अनेक धर्म-आख्यायिकाओं को कहा है, 25,000श्लोकों का वह महाग्रंथही नारदमहापुराणहै। वर्तमान समय में उपलब्ध नारदपुराण22,000श्लोकों वाला है। 3,000श्लोकों की न्यूनताप्राचीन पाण्डुलिपि का कुछ भाग नष्ट हो जाने के कारण हुई है। नारदपुराणमें लगभग 750श्लोक ज्योतिषशास्त्र पर हैं। इनमें ज्योतिष के तीनों स्कन्ध-सिद्धांत, होरा और संहिता की सर्वागीण विवेचना की गई है। नारदसंहिताके नाम से उपलब्ध इनके एक अन्य ग्रंथ में भी ज्योतिषशास्त्र के सभी विषयों का सुविस्तृतवर्णन मिलता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देवर्षिनारद भक्ति के साथ-साथ ज्योतिष के भी प्रधान आचार्य हैं। आजकल धार्मिक फिल्मों और धारावाहिकों में नारदजीका जैसा चरित्र-चित्रण हो रहा है, वह देवर्षिकी महानता के सामने एकदम बौना है। नारदजीके पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडाई-झगडा करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति सरासर अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरिके इन अंशावतारकी अवमानना के दोषी है। भगवान की अधिकांश लीलाओं में नारदजीउनके अनन्य सहयोगी बने हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारदजीवस्तुत:सही मायनों में देवर्षि हैं।
डा. अतुल टण्डन
Friday, November 14, 2008
भगवन्नाम के अमर प्रचारक चैतन्य महाप्रभु
श्रीकृष्ण चैतन्यदेवका पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542(सन् 1486ई.) के फाल्गुन मास की पूíणमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीपनामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तनकी महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।
पतितपावनीगंगा के तट पर स्थित नवद्वीपमें श्रीचैतन्यमहाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरिका नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्रीहरिनामका कीर्तन कराया है अत:यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारकहोगा।
वैष्णव इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। देवीपुराण-भगवन्नामही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीपग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में श्रीचैतन्य नाम से अवतरित होंगे। गरुडपुराण-कलियुग के प्रथम चरण में श्रीजगन्नाथजीके समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजीके किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले गौराङ्ग नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुगमें गंगाजीके तट पर श्रीहरिदयालु कीर्तनशीलगौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल-कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीपमें प्रकट होंगे। वस्तुत:जीवों की मुक्ति और भगवन्नामके प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही चैतन्य नाम से आविर्भाव होगा।
विक्रम संवत् 1566में मात्र 24वर्ष की अवस्था में श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्रीकेशवभारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य)महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजीका दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूíच्छत हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन 100श्लोकों से श्रीगौरकी स्तुति की थी, वह रचना चैतन्यशतक नाम से विख्यात है।
विक्रम संवत् 1572(सन् 1515ई.) में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवृन्दावनधामके निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्रीगौरांगसडक को छोडकर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु श्रीकृष्ण नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्रीचैतन्यदेवका पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड गया। महाप्रभु ने हरे कृष्ण हरे कृष्ण नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने कृष्ण-कृष्ण कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नामबोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीचैतन्यदेवकी ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। काíतक पूíणमा को श्रीमहाप्रभुवृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष काíतक पूíणमा को श्रीचैतन्यदेवका वृन्दावन-आगमनोत्सव मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परमपावनतीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्रीचैतन्यमहाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।
एक बार श्रीअद्वैतप्रभुके अनुरोध पर श्रीगौरांगमहाप्रभु ने उन्हें अपने उस महामहिमामयविश्वरूप का दर्शन कराया, जिसे द्वापरयुगमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय दिखाया था। श्रीनित्यानन्दप्रभुकी मनोभिलाषाथी कि उन्हें श्रीकृष्णचैतन्यदेवके परम ऐश्वर्यवान विराट स्वरूप का दर्शन प्राप्त हो। महाप्रभु ने उनको अपने अनन्त ब्रह्माण्डरूपीदिव्य रूप का साक्षात्कार करवाया। माता शचीदेवीने इनको श्रीकृष्णरूपमें देखा था। वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्दसरस्वती जैसे वेदान्ती भी इनके सत्संग से श्रीकृष्णनाम-प्रेमीबनकर भगवन्नामका संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु की सामीप्यता से बडे-बडे दुराचारी भी सन्त हो गए। इनके स्पर्श से अनेक असाध्य रोगी ठीक हो गए। श्रीगौरांगअवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं। इनमें श्रीचैतन्यचरितामृत, श्रीचैतन्यभागवत, श्रीचैतन्यमंगल, अमिय निमाइचरितआदि विशेष रूप से पठनीय हैं। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए हैं।
द्वापरयुगमें श्रीकृष्ण और राधा ने पृथक देह धारण करके श्रीवृन्दावनधाममें लीलाएं की थीं। एक दूसरे के सौन्दर्य-माधुर्य को बढाते हुए प्रिया-प्रियतम ने स्थावर-जंगम सबको आनन्द दिया। यह ध्यान रहे कि प्रेम के विषय श्रीकृष्ण हैं परन्तु प्रेम का आश्रय राधाजीहैं। परस्पर एकात्माहोते हुए भी वे दोनों सामान्य प्राणियों को दो भिन्न स्वरूप लगे। श्रीकृष्ण को राधा के प्रेम, अपने स्वरूप के माधुर्य तथा राधा के सुख को जानने की इच्छा हुई। श्रीकृष्ण के मन में आया कि जैसे मेरा नाम लेकर राधा भाव-विह्वल होती हैं, वैसे मैं भी अपने नाम-रस की मधुरिमा का आस्वादन करूंगा। मैं जब राधा-भाव ग्रहण करूंगा, तभी मुझे राधा के प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सकेगा। अस्तु राधा-भाव को अंगीकार करने के लिए ही श्रीगौरांगका अवतार हुआ था।
श्रीचैतन्यमहाप्रभु ने 32अक्षरों वाले तारकब्रह्महरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
कलिपावनावतार, प्रेममूíत,भावनिधिश्रीगौरांगदेवके उपदेशों का सार यह है-मनुष्य को निज कुल, विद्या, रूप, जाति और धनादिके अहंकार को त्यागकर सर्वस्व समर्पण के भाव से भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करना चाहिए। अन्त:करण की शुद्धि का यह सबसे सरल व सर्वोत्तम उपाय है। भक्त कीर्तन करते समय भगवत्प्रेममें इतना मग्न हो जाएं कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओंकी धारा बहने लगे, उसकी वाणी गदगद और शरीर पुलकित हो जाए। भगवन्नामके उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी संपूर्ण शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। भगवान का नाम स्वयं भगवान के ही तुल्य है। नाम, विग्रह, स्वरूप-तीनों एक हैं, अत:इनमें भेद न करें। नाम नामी को खींच लाता है। कलियुग में मुक्ति भगवन्नामके जप से प्राप्त होगी।
डा. अतुल टण्डन
Thursday, November 13, 2008
पूरक है जीवन और मृत्यु
मुंबई में एक प्रॉपर्टीव्यवसायी सारा जीवन बंधे-बंधाए ढर्रे पर जीता रहा। एक दिन व्यवसायी अपने एक संभावित अमीर ग्राहक को कोई जायदाद दिखाते हुए बोल रहा था- इस स्थान का मौसम इतना अच्छा है कि यहां कोई मरता ही नहीं है! और उसी समय कुछ लोग एक शव को अंतिम यात्रा पर ले जाते हुए दिख गए। जब सारे लोग निकल गए, प्रॉपर्र्टीदलाल थोडा हिचका और अपने को व्यवस्थित करते हुए बोला कि कब्रिस्तान की देखभाल करने वाला गरीब आदमी अंतत:भूख से मर गया।
यह माना जाता है कि भारतीय तर्क देने में बडे कुशल होते हैं। यदि कोई व्यक्ति तर्क प्रस्तुत करता है, तो वे हजारों तर्क ढूंढ लाते हैं। लेकिन मैं यहां तर्क नहीं दे रहा हूं, मैं बस चंद्रमा को दिखा रहा हूं। मेरी अंगुलियां तर्क नहीं हैं, बल्कि इशारे मात्र हैं। मेरी अंगुली को मत पकडो, चंद्रमा को देखो। और यही समय है, जब चंद्रमा को देखा जाना चाहिए।
एथेंसमें सुकरातको न्यायालय द्वारा कहा गया कि यदि तुम सत्य के बारे में बोलना शुरू कर दो, हम तुम्हें मुक्त कर सकते हैं। तुम्हें मौत की सजा नहीं दी जाएगी। सुकरातने इनकार कर दिया। और जो शब्द सुकरातने बोले, वे बहुत सुंदर हैं। सुकरातने कहा, यह मेरा धंधा है। मैं सत्य के बारे में बोलना बंद नहीं कर सकता। ऐसे ही जैसे कि श्वास लेता हूं, मैं सत्य के बारे में बोलता हूं। यह मेरा धंधा है। मैं जारी रखूंगा। मेरी चोट तेज होती चली जाएगी, क्योंकि मुझे बहुत सारा कचरा सतह पर लाना है। यह एक प्रकार की शल्य चिकित्सा है।
वैसे, यह देश मरणोपरांत जीवन जी रहा है। यह बहुत समय पहले मर चुका है। उस दिन से जब यह विचार आया कि हमारा स्वर्ण-युग जा चुका है। हमारा पतन हो रहा है। हम गहरे से गहरे अंधेरे कुएं में लगातार गिरते जा रहे हैं। इसने जीवन की सारी गुणवत्ता खो दी है। तभी से यह देश मरणोपरांत जीवन जी रहा है।
मेरा प्रयास है कि इस देश को असली मौत दी जाए, ताकि इसका असली जन्म संभव हो सके। सूली देने के बाद ही पुनर्जन्म संभव होता है। इसके अलावा, कोई चारा नहीं है। जीवन के वापस आने के लिए मौत ही एकमात्र रास्ता है, इसलिए मृत्यु से डरो मत! सच तो यह है कि जन्म और मृत्यु विपरीत नहीं होती है। वे एक-दूसरे के विरोध में नहीं हैं। वे तो दो पंखों की तरह हैं। वे एक-दूसरे को मदद करते हैं, वे परिपूरक हैं।
मैं तुम्हें संपूर्णता से जीना सिखाता हूं और मैं पूर्णता से मरना भी सिखाता हूं। पूर्णता असली धार्मिक व्यक्ति का स्वाद होना चाहिए। जब मैं कहता हूं कि असली धार्मिक व्यक्ति से मेरा मतलब कोई अलौकिक, कुछ उच्चतर पवित्र से नहीं है, मेरा सीधा-सा अर्थ निर्दोष जीवन से है, यानी साधारण जीवन से है। मैं साधारण प्रशंसा करता हूं, मैं साधारण की तारीफ करता हूं, मैं साधारण की पूजा करता हूं।
[ओशो]
मुंबई में एक प्रॉपर्टीव्यवसायी सारा जीवन बंधे-बंधाए ढर्रे पर जीता रहा। एक दिन व्यवसायी अपने एक संभावित अमीर ग्राहक को कोई जायदाद दिखाते हुए बोल रहा था- इस स्थान का मौसम इतना अच्छा है कि यहां कोई मरता ही नहीं है! और उसी समय कुछ लोग एक शव को अंतिम यात्रा पर ले जाते हुए दिख गए। जब सारे लोग निकल गए, प्रॉपर्र्टीदलाल थोडा हिचका और अपने को व्यवस्थित करते हुए बोला कि कब्रिस्तान की देखभाल करने वाला गरीब आदमी अंतत:भूख से मर गया।
यह माना जाता है कि भारतीय तर्क देने में बडे कुशल होते हैं। यदि कोई व्यक्ति तर्क प्रस्तुत करता है, तो वे हजारों तर्क ढूंढ लाते हैं। लेकिन मैं यहां तर्क नहीं दे रहा हूं, मैं बस चंद्रमा को दिखा रहा हूं। मेरी अंगुलियां तर्क नहीं हैं, बल्कि इशारे मात्र हैं। मेरी अंगुली को मत पकडो, चंद्रमा को देखो। और यही समय है, जब चंद्रमा को देखा जाना चाहिए।
एथेंसमें सुकरातको न्यायालय द्वारा कहा गया कि यदि तुम सत्य के बारे में बोलना शुरू कर दो, हम तुम्हें मुक्त कर सकते हैं। तुम्हें मौत की सजा नहीं दी जाएगी। सुकरातने इनकार कर दिया। और जो शब्द सुकरातने बोले, वे बहुत सुंदर हैं। सुकरातने कहा, यह मेरा धंधा है। मैं सत्य के बारे में बोलना बंद नहीं कर सकता। ऐसे ही जैसे कि श्वास लेता हूं, मैं सत्य के बारे में बोलता हूं। यह मेरा धंधा है। मैं जारी रखूंगा। मेरी चोट तेज होती चली जाएगी, क्योंकि मुझे बहुत सारा कचरा सतह पर लाना है। यह एक प्रकार की शल्य चिकित्सा है।
वैसे, यह देश मरणोपरांत जीवन जी रहा है। यह बहुत समय पहले मर चुका है। उस दिन से जब यह विचार आया कि हमारा स्वर्ण-युग जा चुका है। हमारा पतन हो रहा है। हम गहरे से गहरे अंधेरे कुएं में लगातार गिरते जा रहे हैं। इसने जीवन की सारी गुणवत्ता खो दी है। तभी से यह देश मरणोपरांत जीवन जी रहा है।
मेरा प्रयास है कि इस देश को असली मौत दी जाए, ताकि इसका असली जन्म संभव हो सके। सूली देने के बाद ही पुनर्जन्म संभव होता है। इसके अलावा, कोई चारा नहीं है। जीवन के वापस आने के लिए मौत ही एकमात्र रास्ता है, इसलिए मृत्यु से डरो मत! सच तो यह है कि जन्म और मृत्यु विपरीत नहीं होती है। वे एक-दूसरे के विरोध में नहीं हैं। वे तो दो पंखों की तरह हैं। वे एक-दूसरे को मदद करते हैं, वे परिपूरक हैं।
मैं तुम्हें संपूर्णता से जीना सिखाता हूं और मैं पूर्णता से मरना भी सिखाता हूं। पूर्णता असली धार्मिक व्यक्ति का स्वाद होना चाहिए। जब मैं कहता हूं कि असली धार्मिक व्यक्ति से मेरा मतलब कोई अलौकिक, कुछ उच्चतर पवित्र से नहीं है, मेरा सीधा-सा अर्थ निर्दोष जीवन से है, यानी साधारण जीवन से है। मैं साधारण प्रशंसा करता हूं, मैं साधारण की तारीफ करता हूं, मैं साधारण की पूजा करता हूं।
[ओशो]
बगलामुखी रहस्य
जिस प्रकार 50साल पहले का विज्ञान अभामंडलके विज्ञान को नहीं मानता था और आज के विज्ञान ने अभामंडलके अस्तित्व को स्वीकार लिया है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य का एक सूक्ष्म अभामंडलहोता है। मनुष्य के अभामंडलकी एक सीमा होती है परंतु सूक्ष्म अभामंडलकी कोई सीमा नहीं होती। हमलोगों ने अपने भगवान को अपने इष्ट को भी स्वर्णिम आभायुक्तदेखा है यानी भगवान भी स्वर्णिम आभायुक्तहै और जब हम गहन ध्यान में उतरकर अपने इस पितवर्णीयआभामंडलका विस्तार करते है तो ये सूक्ष्म आभामंडलसीधे हमारे इष्ट तक पहुंच जाते है।
विज्ञान कहता है कि जब हम पांच मिनट के पहले के शब्द को पकड सकते है तो पचास मिनट के पहले के शब्द को भी पकडा जा सकता है व कुछ और प्रयास किया जाय तो पचास साल के पहले के शब्दों को भी पकडा जा सकता हैं। यानी कि हम गीता को भी उसकी मूल ध्वनि में जो कि कृष्ण के द्वारा उच्चारित थी वापिस उस गीता को भी कृष्ण की मूल आवाज में सूना जा सकता हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम सूर्य के मंत्र का उच्चारण करते है तो उसकी ध्वनि तरंगें सूर्य से टकराती है और वापिस लौटती है यह वहीं लौटती है जहां से वे तरंगें प्रेषित कि गई थी और वापस लौटने में उन तरंगों में सूर्य की तेजस्वी, ओज और सूर्य का आशीर्वाद समाहित हो जाता है।
जो साधक बगलामुखीपीतांबराका ध्यान करता है उसका आभामंडलभी पीत वर्णीयहो जाता है व मुखमंडल में सौम्यता आ जाती है। प्रत्येक साधक को प्रार्थना करने के तुरंत बाद थोडी देर शांत भाव से उसी स्थान पर बैठे रहना चाहिए जिससे उस प्रार्थना की तरंगें आपके ऊपर गिरने शुरू हो जाए, ठीक उसी भांति जब आपका सूक्ष्म आभामंडलजब आपके इष्ट के आभामंडलसे संपर्क साधता है तो आप सीधे-सीधे अपने इष्ट से जुड जाते हैं और ऐसे स्थिति में कि गई साधना, किया गया ध्यान तुरंत फलदायीहोता हैं। [स्वामी आशुतोष आनंद जी]
Wednesday, November 12, 2008
चलें सत्य की ओर
असतो मा सदगमय , अर्थात हे प्रभु! हमें सत्य की ओर ले चलो। प्रार्थना की यह पंक्ति वेदों से ली गई है। क्या यह एक प्रार्थना है, याचना है अथवा हमारे अंतर्मन की कोई इच्छा है? आखिर इस पंक्ति द्वारा मनुष्य ईश्वर से क्या कहना चाहता है?
प्रार्थना के गूढार्थ
यदि हम इस पंक्ति की व्याख्या करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें कई तरह के गूढार्थ छिपे हुए हैं।
असतो मा सदगमय एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हम असत्य में जी रहे हैं, इसलिए सत्य की ओर उन्मुख होने की जरूरत है। हालांकि वास्तव में, हम अपने जीवन में सांसारिक सफलता पाने के लिए सत्य से कोसों दूर हो जाते हैं।
सत्य का स्वरूप
सांसारिक जीवन में सत्य के दो रूप होते हैं। एक सत्य वह है, जिसे हम भौतिक सत्य कहते हैं। कहने का मतलब यही है कि यदि हम अपने जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं, तो उससे मिलने वाली खुशी को सत्य मान बैठते हैं। वास्तव में, वह खुशी नहीं है, क्योंकि इससे हमारा अंतर्मन खुश नहीं होता है। दरअसल, हमारा अंतर्मन खुश होता है, ईश्वर की सच्ची प्रार्थना से। सच तो यह है कि ईश्वर से प्रीति लगाना ही अंतिम सत्य है, क्योंकि मोक्ष मिलने का एक मार्ग यह भी है।
सत्य की अनुभूति
बीज से पौधा बनने, पौधे से कली विकसित होने तथा कली से फूल बनने के दौरान पेड में कई प्रक्रियाएं होती हैं। मात्र तीन प्रक्रियाओं को देखना अज्ञानता है, असत्य है। सच तो यह है कि हम अपने जीवन में घटने वाली कई घटनाओं के प्रति जड होते हैं और इस जडता का कारण है हमारी अज्ञानता। जैसे ही हमारे अंदर ज्ञान का उदय होता है, जडता कम होती जाती है तथा हम सत्य की तलाश में जुट जाते हैं। ज्ञान की प्राप्ति ही सत्य है तथा अज्ञान असत्य है। ज्ञान से प्राप्त सत्य की तलाश असतो मा सद्गमयमें निहित है।
स्वयं को जानना है सार
सभी धर्मो में स्वयं को जानने की प्रक्रिया पर बल दिया गया है। तुम कौन हो और तुम कहां से आए हो? तुम्हारे आगमन का क्या प्रयोजन है? इस प्रकार की जिज्ञासाएं सभी धर्मो, मतों तथा संप्रदायों में व्याप्त हैं। प्रत्येक इनसान अपने-अपने तरीके से इसके समाधान का प्रयास भी करता है। इस प्रयास में कई महापुरुषों की वाणी हमारी मदद करती हैं। सुकरातकहते हैं, मैंने अपनी सारी जिंदगी अपने आपको ही जानने का प्रयत्न किया है। अपनी आत्मा की पूर्णता के लिए सर्वाधिक प्रयत्न किया और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि प्रभो!तुम मेरी अंतरात्मा को सौंदर्य से भर दो, मेरे बाह्य और अंतर को एक कर दो। मन और वाणी का भेद मिटा दो। उन्होंने लोगों को कोई नया ज्ञान नहीं दिया, बल्कि प्रत्येक इनसान में पहले से मौजूद ज्ञान को अनुभव करने में उनकी मदद की। उन्होंने कहा कि सबसे बडी बुराई है ईश्वर की तलाश करना, उस ईश्वर की, जो हम सभी के अंदर विद्यमान है। दरअसल, स्वयं को जानने से ईश्वर की तलाश पूरी होती है। स्वयं को जानना अथवा सेल्फ रिअलाइजेशनही वास्तविक ज्ञान है, सत्य है। इस प्रकार स्वयं को जानने की इच्छा ही असतो मा सद्गमयके मूल में निहित है, जो हमारी प्रार्थना का मूल तत्व है। हम चाहे अमृत की इच्छा करें अथवा प्रकाश की (मृत्योर्माऽअमृतंगमय/तमसो मा ज्योतिर्गमय),यह सभी एकमात्र सत्य को जानने की इच्छा ही है। स्वयं को जानने के प्रयास के बिना यह संभव ही नहीं है। असत्य के रूप में मृत्यु, अंधकार अथवा अज्ञान से मुक्ति के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से जानना अनिवार्य है। सच तो यह है कि पंक्तियों के मात्र उच्चारण से ही हम ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। इसको मन के स्तर पर स्वीकार करना और परिवर्तन के लिए इच्छा भी अनिवार्य है। मन में बिना पवित्र भावना के उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं है। अत:हमारी भावना भी शब्दों के अनुरूप होनी चाहिए। जो बोलें, वही चाहें। यदि न बोलें तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि भावना मात्र से उद्देश्य की पूर्ति संभव है। इसलिए किसी महात्मा ने सच ही कहा है कि हम अपने मन के भावों को प्रार्थना के अनुरूप रखें। यदि ईश्वर के प्रति हमारे मन के भाव सच्चे होंगे, तो प्रार्थना के शब्दों की आवश्यकता नहीं पडेगी। दरअसल, यही प्रार्थना की सफलता का मूल है।
[सीताराम गुप्ता]
Tuesday, November 11, 2008
कोलकाता स्टेशन पर टैक्सी वालों का आतंक
श्रद्धा व रोमांच से भरपूर अमरनाथ यात्रा
श्रद्धा व रोमांच से भरपूर अमरनाथ यात्रा से हर वर्ष लाखों श्रद्धालु सम्मोहित होते हैं और कठिन सफर तय करके हिमलिंगके दर्शन से खुद को धन्य महसूस करते हैं। बर्फीली हवाएं, तंग रास्ते, थका देने वाली उतराई-चढाई और सबसे बढकर आतंकवादियों की धमकियां भी श्रद्धालुओं की राह नहीं रोक पाती और आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंगदर्शन के लिए देश-विदेश से श्रद्धालुओं की भीड उमडी रहती है।
श्रीनगर के उत्तर-पूर्व में 135किलोमीटर दूर समुद्रतल से 13,600फुट की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफाभगवान शिव के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफामें बर्फ से प्रकृतिक शिवलिंगका निर्मित होना है। यहां से करीब 3000फुट की ऊंचाई पर है, पर्वत की चोटी। गुफाकी परिधि अंदाजन डेढ सौ फुट होगी। भीतर का स्थान कमोबेश चालीस फुट में फैला है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदे जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंगबनता है। चन्द्रमा के घटने-बढने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है।
आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंगठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफामें आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंगसे कई फुट दूर-दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही हिमखंड हैं। जनश्रुतिप्रचलित है कि इसी गुफामें माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथासुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गया था। गुफामें आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोडा दिखाई दे जाता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। वे भी अमरकथासुनकर अमर हुए हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोडा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं।
यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अद्र्धागिनी पार्वती को इस गुफामें एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोडा, माथे के चंदन को चंदनबाडीमें उतारा, अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोडा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफाका सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाधमें एक मुसलमान गडरिएको चला था। आज भी चौथाई चढावा उस मुसलमान गडरिएके वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफाएक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढते समय और भी कई छोटी-बडी गुफाएंदिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगामहोकर और दूसरा सोनमर्गबालटालसे लेकिन सुविधाजनक रास्ता पहलगामका ही है। पहलगामएक विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। पहलगामके बाद पहला पडाव चंदनबाडीहै, जो पहलगामसे आठ किलोमीटर की दूरी पर है। लिद्दरनदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है। चंदनबाडीसे आगे इसी नदी पर बर्फ का यह पुल सलामत रहता है। चंदनबाडीसे 14किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पडाव है। यह मार्ग खडी चढाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है।
पिस्सू घाटी समुद्रतल से 11,120फुट की ऊंचाई पर है। यात्री शेषनाग पहुंच कर ताजादम होते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। किंवदंतियोंके मुताबिक इस झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं।
शेषनाग से पंचतरणीआठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास टॉप पार करने पडते हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊंचाई क्रमश:13,500फुट व 14,500फुट है। महागुणासचोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। यहां पांच छोटी-छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पडा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाडों की ऊंची-ऊंची चोटियोंसे ढका है। अमरनाथ की गुफायहां से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफामें पहुंचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
Monday, November 10, 2008
सच्चे सुख की तलाश
महाभारत में सुखी जीवन जीने के लिए उत्तम उपाय बताए गए हैं। इसके अनुसार, जीवन के दुखों के बारे में चिंतन न करना ही दुखों के निवारण की औषधि है। दरअसल, सुख की अनुभूति तभी हो सकती है, जब दुखों के बारे में चिंतन न किया जाए। लेकिन यह संभव तभी हो सकता है, जब दुख के बारे में न सोचने का लगातार अभ्यास किया जाए। पंचतंत्र में कहा गया है, जो मनुष्य आने वाले संकट के बचाव का उपाय कर लेता है, वही सुखी रहता है। दरअसल हम दुख, मृत्यु, भय, अनहोनी और अशुभ बातों पर ही हमेशा विचार करते रहते हैं। मतलब यह हुआ कि दुख के विकल्पों के बारे में हम लगातार सोचते रहते हैं। लेकिन हमें सच्चा सुख तभी मिल पाएगा, जब हम दुख के बारे में सोचना छोड दें।
अब प्रश्न यह है कि प्रतिकूलता प्रकट करने वाले इन नकारात्मक विचारों के भाव हमारे मन से कैसे समाप्त हो पाएंगे? वास्तव में, जो व्यक्ति इस प्रश्न का समाधान पा लेते हैं, वे परमानंद पाने के अधिकारी बन जाते हैं। समाज में सुख और दुख को लेकर कई तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। इनमें एक आम धारणा यह है कि दुख और सुख भगवान की देन है। इसीलिए इसमें मनुष्य का कुछ भी वश नहीं चलता है।
कुछ विद्वानों के अनुसार, मनुष्य अपने मन या इच्छा से कुछ भी नहीं कर पाता है, इसलिए सुख, दुख या आनंद पाने में वह ईश्वर के अधीन है। इसका अर्थ यह हुआ कि न वह निरंतर सुखी रह सकता है और न ही हमेशा दुखी! देखा जाए, तो ये सभी मान्यताएं हमारी नकारात्मक भावों के कारण ही सदियों से समाज में प्रचलित हैं। इसलिए सबसे पहले हमें नकारात्मक वृत्तियोंको अपने मन से हटाना होगा और सच तो यह हैकिइसे दूर करने के लिए साधना ही एक मात्र रास्ता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, नकारात्मक भावों, कर्मो और आदतों के हम इतने गुलाम होते हैं कि जीवन में सकारात्मक विचारों को स्थान ही नहीं दे पाते हैं! दरअसल, नकारात्मक विचारों की जड मानव मन में इतनी गहरी पैठी है कि उसे तुरंत समाप्त करना भी मुश्किल है। हम लोग पीढी-दर पीढी उसी विचार से जुडे होते हैं। दरअसल, नकारात्मक विचारों के उन्मूलन के लिए अभ्यास आवश्यक माना गया है। क्योंकि अभ्यास करने से ही अशुभ, अनहोनी, मृत्यु और पाप होने की आशंका से मुक्ति मिल सकती है। एक मजेदार बात यह है कि हमारे जीवन में कई नकारात्मक विचार मौजूद हैं। उन पर हम कभी गहराई से विचार नहीं करते हैं। वह यह है कि हम सुखी तो होना चाहते हैं, लेकिन आस-पास के लोग भी सुखी जीवन बिताएं, यह नहीं सोचते। यह विचार ही हमारी सुख की निरंतरता को खत्म करते हैं। जबकि हमारे विचार ऐसे होने चाहिए कि सभी व्यक्ति सुखी और निरोग रहें।
सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वेसन्तुनिरामयाकी धारणा हमारी संस्कृति की पहचान है। महर्षि दयानंद ने अपने विश्व कल्याण के दस नियमों (सूत्रों) में लिखा है-सब की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए। यह विचार ही मनुष्यता को पोषण दे सकता है। इससे ही विश्व समाज में फैली असमानता, स्वार्थ, द्वेष, क्रोध, वर्गभेद, जातिवाद और दूसरे अनेक विवादों से मुक्ति पाई जा सकती है।
तैत्तरीयउपनिषद् में कहा गया है-असीम में सुख है और सीमित विचारों में सुख का अभाव है, यानी सुख एवं आनंद के भाव असीमिततामें ही हैं। सुख की निरंतरता के लिए शाश्वत मन में शांति बनाए रखने की बात कही गई है। कहा गया है- न शान्ते:परमंसुखमंअर्थात् शांति से ही परम सुख की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए शांति भंग करने वाला किसी कर्म को नहीं करना चाहिए। वेद में पूरे ब्रह्माण्ड, हर जीव एवं लोक-लोकांतरों में शांति की प्रार्थना की गई है। चूंकि हम भी इस ब्रह्माण्ड की एक इकाई हैं, इसलिए हमारी प्रार्थनाएं भी हमेशा शांति के लिए ही होनी चाहिए।
[अखिलेश आर्येन्दु]
We Visit Kashmir
by Paramhansa Yogananda
CHAPTER 21
"You are strong enough now to travel. I will accompany you to Kashmir," Sri Yukteswar informed me two days after my miraculous recovery from Asiatic cholera.
That evening our party of six entrained for the north. Our first leisurely stop was at Simla, a queenly city resting on the throne of Himalayan hills. We strolled over the steep streets, admiring the magnificent views.
"English strawberries for sale," cried an old woman, squatting in a picturesque open market place.
Master was curious about the strange little red fruits. He bought a basketful and offered it to Kanai and myself, who were near-by. I tasted one berry but spat it hastily on the ground.
"Sir, what a sour fruit! I could never like strawberries!"
My guru laughed. "Oh, you will like them÷in America. At a dinner there, your hostess will serve them with sugar and cream. After she has mashed the berries with a fork, you will taste them and say: 'What delicious strawberries!' Then you will remember this day in Simla."
Sri Yukteswar's forecast vanished from my mind, but reappeared there many years later, shortly after my arrival in America. I was a dinner guest at the home of Mrs. Alice T. Hasey (Sister Yogmata) in West Somerville, Massachusetts. When a dessert of strawberries was put on the table, my hostess picked up her fork and mashed my berries, adding cream and sugar. "The fruit is rather tart; I think you will like it fixed this way," she remarked.
I took a mouthful. "What delicious strawberries!" I exclaimed. At once my guru's prediction in Simla emerged from the fathomless cave of memory. It was staggering to realize that long ago Sri Yukteswar's God-tuned mind had sensitively detected the program of karmic events wandering in the ether of futurity.
Our party soon left Simla and entrained for Rawalpindi. There we hired a large landau, drawn by two horses, in which we started a seven-day trip to Srinagar, capital city of Kashmir. The second day of our northbound journey brought into view the true Himalayan vastness. As the iron wheels of our carriage creaked along the hot, stony roads, we were enraptured with changing vistas of mountainous grandeur.
"Sir," Auddy said to Master, "I am greatly enjoying these glorious scenes in your holy company."
I felt a throb of pleasure at Auddy's appreciation, for I was acting as host on this trip. Sri Yukteswar caught my thought; he turned to me and whispered:
"Don't flatter yourself; Auddy is not nearly as entranced with the scenery as he is with the prospect of leaving us long enough to have a cigaret."
I was shocked. "Sir," I said in an undertone, "please do not break our harmony by these unpleasant words. I can hardly believe that Auddy is hankering for a smoke."1 I looked apprehensively at my usually irrepressible guru.
"Very well; I won't say anything to Auddy." Master chuckled. "But you will soon see, when the landau halts, that Auddy is quick to seize his opportunity."
The carriage arrived at a small caravanserai. As our horses were led to be watered, Auddy inquired, "Sir, do you mind if I ride awhile with the driver? I would like to get a little outside air."
Sri Yukteswar gave permission, but remarked to me, "He wants fresh smoke and not fresh air."
The landau resumed its noisy progress over the dusty roads. Master's eyes were twinkling; he instructed me, "Crane up your neck through the carriage door and see what Auddy is doing with the air."
I obeyed, and was astounded to observe Auddy in the act of exhaling rings of cigaret smoke. My glance toward Sri Yukteswar was apologetic.
"You are right, as always, sir. Auddy is enjoying a puff along with a panorama." I surmised that my friend had received a gift from the cab driver; I knew Auddy had not carried any cigarets from Calcutta.
We continued on the labyrinthine way, adorned by views of rivers, valleys, precipitous crags, and multitudinous mountain tiers. Every night we stopped at rustic inns, and prepared our own food. Sri Yukteswar took special care of my diet, insisting that I have lime juice at all meals. I was still weak, but daily improving, though the rattling carriage was strictly designed for discomfort.
Joyous anticipations filled our hearts as we neared central Kashmir, paradise land of lotus lakes, floating gardens, gaily canopied houseboats, the many-bridged Jhelum River, and flower-strewn pastures, all ringed round by the Himalayan majesty. Our approach to Srinagar was through an avenue of tall, welcoming trees. We engaged rooms at a double-storied inn overlooking the noble hills. No running water was available; we drew our supply from a near-by well. The summer weather was ideal, with warm days and slightly cold nights.
We made a pilgrimage to the ancient Srinagar temple of Swami Shankara. As I gazed upon the mountain-peak hermitage, standing bold against the sky, I fell into an ecstatic trance. A vision appeared of a hilltop mansion in a distant land. The lofty Shankara ashram before me was transformed into the structure where, years later, I established the Self-Realization Fellowship headquarters in America. When I first visited Los Angeles, and saw the large building on the crest of Mount Washington, I recognized it at once from my long-past visions in Kashmir and elsewhere.
A few days at Srinagar; then on to Gulmarg ("mountain paths of flowers"), elevated by six thousand feet. There I had my first ride on a large horse. Rajendra mounted a small trotter, whose heart was fired with ambition for speed. We ventured onto the very steep Khilanmarg; the path led through a dense forest, abounding in tree-mushrooms, where the mist-shrouded trails were often precarious. But Rajendra's little animal never permitted my oversized steed a moment's rest, even at the most perilous turns. On, on, untiringly came Rajendra's horse, oblivious to all but the joy of competition.
Our strenuous race was rewarded by a breath-taking view. For the first time in this life, I gazed in all directions at sublime snow-capped Himalayas, lying tier upon tier like silhouettes of huge polar bears. My eyes feasted exultingly on endless reaches of icy mountains against sunny blue skies.
I rolled merrily with my young companions, all wearing overcoats, on the sparkling white slopes. On our downward trip we saw afar a vast carpet of yellow flowers, wholly transfiguring the bleak hills.
Our next excursions were to the famous royal "pleasure gardens" of the Emperor Jehangir, at Shalimar and Nishat Bagh. The ancient palace at Nishat Bagh is built directly over a natural waterfall. Rushing down from the mountains, the torrent has been regulated through ingenious contrivances to flow over colorful terraces and to gush into fountains amidst the dazzling flower-beds. The stream also enters several of the palace rooms, ultimately dropping fairy like into the lake below. The immense gardens are riotous with color÷ roses of a dozen hues, snapdragons, lavender, pansies, poppies. An emerald enclosing outline is given by symmetrical rows of chinars,2 cypresses, cherry trees; beyond them tower the white austerities of the Himalayas.
Kashmir grapes are considered a rare delicacy in Calcutta. Rajendra, who had been promising himself a veritable feast on reaching Kashmir, was disappointed to find there no large vineyards. Now and then I chaffed him jocosely over his baseless anticipation.
"Oh, I have become so much gorged with grapes I can't walk!" I would say. "The invisible grapes are brewing within me!" Later I heard that sweet grapes grow abundantly in Kabul, west of Kashmir. We consoled ourselves with ice cream made of rabri, a heavily condensed milk, and flavored with whole pistachio nuts.
We took several trips in the shikaras or houseboats, shaded by red-embroidered canopies, coursing along the intricate channels of Dal Lake, a network of canals like a watery spider web. Here the numerous floating gardens, crudely improvised with logs and earth, strike one with amazement, so incongruous is the first sight of vegetables and melons growing in the midst of vast waters. Occasionally one sees a peasant, disdaining to be "rooted to the soil," towing his square plot of "land" to a new location in the many-fingered lake.
In this storied vale one finds an epitome of all the earth's beauties. The Lady of Kashmir is mountain-crowned, lake-garlanded, and flower-shod. In later years, after I had toured many distant lands, I understood why Kashmir is often called the world's most scenic spot. It possesses some of the charms of the Swiss Alps, and of Loch Lomond in Scotland, and of the exquisite English lakes. An American traveler in Kashmir finds much to remind him of the rugged grandeur of Alaska and of Pikes Peak near Denver.
As entries in a scenic beauty contest, I offer for first prize either the gorgeous view of Xochimilco in Mexico, where mountains, skies, and poplars reflect themselves in myriad lanes of water amidst the playful fish, or the jewel-like lakes of Kashmir, guarded like beautiful maidens by the stern surveillance of the Himalayas. These two places stand out in my memory as the loveliest spots on earth.
Yet I was awed also when I first beheld the wonders of Yellowstone National Park and of the Grand Canyon of the Colorado, and of Alaska. Yellowstone Park is perhaps the only region where one can see innumerable geysers shooting high into the air, performing year after year with clockwork regularity. Its opal and sapphire pools and hot sulphurous springs, its bears and wild creatures, remind one that here Nature left a specimen of her earliest creation. Motoring along the roads of Wyoming to the "Devil's Paint Pot" of hot bubbling mud, with gurgling springs, vaporous fountains, and spouting geysers in all directions, I was disposed to say that Yellowstone deserves a special prize for uniqueness.
The ancient majestic redwoods of Yosemite, stretching their huge columns far into the unfathomable sky, are green natural cathedrals designed with skill divine. Though there are wonderful falls in the Orient, none match the torrential beauty of Niagara near the Canadian border. The Mammoth Caves of Kentucky and the Carlsbad Caverns in New Mexico, with colorful iciclelike formations, are stunning fairylands. Their long needles of stalactite spires, hanging from cave ceilings and mirrored in underground waters, present a glimpse of other worlds as fancied by man.
Most of the Hindus of Kashmir, world-famed for their beauty, are as white as Europeans and have similar features and bone structure; many have blue eyes and blonde hair. Dressed in Western clothes, they look like Americans. The cold Himalayas protect the Kashmiris from the sultry sun and preserve their light complexions. As one travels to the southern and tropical latitudes of India, he finds progressively that the people become darker and darker.
After spending happy weeks in Kashmir, I was forced to return to Bengal for the fall term of Serampore College. Sri Yukteswar remained in Srinagar, with Kanai and Auddy. Before I departed, Master hinted that his body would be subject to suffering in Kashmir.
"Sir, you look a picture of health," I protested.
"There is a chance that I may even leave this earth."
"Guruji!" I fell at his feet with an imploring gesture. "Please promise that you won't leave your body now. I am utterly unprepared to carry on without you."
Sri Yukteswar was silent, but smiled at me so compassionately that I felt reassured. Reluctantly I left him.
"Master dangerously ill." This telegram from Auddy reached me shortly after my return to Serampore.
"Sir," I wired my guru frantically, "I asked for your promise not to leave me. Please keep your body; otherwise, I also shall die."
"Be it as you wish." This was Sri Yukteswar's reply from Kashmir.
A letter from Auddy arrived in a few days, informing me that Master had recovered. On his return to Serampore during the next fortnight, I was grieved to find my guru's body reduced to half its usual weight.
Fortunately for his disciples, Sri Yukteswar burned many of their sins in the fire of his severe fever in Kashmir. The metaphysical method of physical transfer of disease is known to highly advanced yogis. A strong man can assist a weaker one by helping to carry his heavy load; a spiritual superman is able to minimize his disciples' physical or mental burdens by sharing the karma of their past actions. Just as a rich man loses some money when he pays off a large debt for his prodigal son, who is thus saved from dire consequences of his own folly, so a master willingly sacrifices a portion of his bodily wealth to lighten the misery of disciples. 3
By a secret method, the yogi unites his mind and astral vehicle with those of a suffering individual; the disease is conveyed, wholly or in part, to the saint's body. Having harvested God on the physical field, a master no longer cares what happens to that material form. Though he may allow it to register a certain disease in order to relieve others, his mind is never affected; he considers himself fortunate in being able to render such aid.
The devotee who has achieved final salvation in the Lord finds that his body has completely fulfilled its purpose; he can then use it in any way he deems fit. His work in the world is to alleviate the sorrows of mankind, whether through spiritual means or by intellectual counsel or through will power or by the physical transfer of disease. Escaping to the superconsciousness whenever he so desires, a master can remain oblivious of physical suffering; sometimes he chooses to bear bodily pain stoically, as an example to disciples. By putting on the ailments of others, a yogi can satisfy, for them, the karmic law of cause and effect. This law is mechanically or mathematically operative; its workings can be scientifically manipulated by men of divine wisdom.
The spiritual law does not require a master to become ill whenever he heals another person. Healings ordinarily take place through the saint's knowledge of various methods of instantaneous cure in which no hurt to the spiritual healer is involved. On rare occasions, however, a master who wishes to greatly quicken his disciples' evolution may then voluntarily work out on his own body a large measure of their undesirable karma.
Jesus signified himself as a ransom for the sins of many. With his divine powers,4 his body could never have been subjected to death by crucifixion if he had not willingly cooperated with the subtle cosmic law of cause and effect. He thus took on himself the consequences of others' karma, especially that of his disciples. In this manner they were highly purified and made fit to receive the omnipresent consciousness which later descended on them.
Only a self-realized master can transfer his life force, or convey into his own body the diseases of others. An ordinary man cannot employ this yogic method of cure, nor is it desirable that he should do so; for an unsound physical instrument is a hindrance to God-meditation. The Hindu scriptures teach that the first duty of man is to keep his body in good condition; otherwise his mind is unable to remain fixed in devotional concentration.
A very strong mind, however, can transcend all physical difficulties and attain to God-realization. Many saints have ignored illness and succeeded in their divine quest. St. Francis of Assisi, severely afflicted with ailments, healed others and even raised the dead.
I knew an Indian saint, half of whose body was once festering with sores. His diabetic condition was so acute that under ordinary conditions he could not sit still at one time for more than fifteen minutes. But his spiritual aspiration was undeterrable. "Lord," he prayed, "wilt Thou come into my broken temple?" With ceaseless command of will, the saint gradually became able to sit daily in the lotus posture for eighteen continuous hours, engrossed in the ecstatic trance.
"And," he told me, "at the end of three years, I found the Infinite Light blazing within my shattered form. Rejoicing in the joyful splendour, I forgot the body. Later I saw that it had become whole through the Divine Mercy."
A historical healing incident concerns King Baber (1483-1530), founder of the Mogul empire in India. His son, Prince Humayun, was mortally ill. The father prayed with anguished determination that he receive the sickness, and that his son be spared. After all physicians had given up hope, Humayun recovered. Baber immediately fell sick and died of the same disease which had stricken his son. Humayun succeeded Baber as Emperor of Hindustan.
Many people imagine that every spiritual master has, or should have, the health and strength of a Sandow. The assumption is unfounded. A sickly body does not indicate that a guru is not in touch with divine powers, any more than lifelong health necessarily indicates an inner illumination. The condition of the physical body, in other words, cannot rightfully be made a test of a master. His distinguishing qualifications must be sought in his own domain, the spiritual.