Tuesday, January 6, 2009

जरूरी है प्रकृति से तालमेल

विनय बिहारी सिंह


सचमुच प्रकृति के साथ हमारा तालमेल बहुत जरूरी है। सुदूर जंगल के पास चिड़ियों की आवाज, शुद्ध हवा- पानी और सबसे बढ़ कर एकांत मनुष्य को ईश्वर के करीब ला देता है। वहां न कोई तनाव था और न ही भागदौड़। जो मिल जाता था, खा लिया और खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते रहे। लगा महानगरों में हम कितना कृत्रिम जीवन जी रहे हैं। पिछले दिनों उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के द्वारहाट में जाने का मौका मिला। हरियाली से ओतप्रोत विराट पर्वत मालाओं के बीच रहना अत्यंत सुखद अनुभव था। एक दिन सुदूर एक जंगल प्रांत में गया तो लगा कि एकाएक अकेले हो जाना कितना कुछ सिखा देता है। साधु- संतों ने ठीक ही कहा है- हम अकेले आए हैं और अकेले ही जाएंगे। हमारे साथ न तो हमारा कुटुंब जाएगा और न दोस्त रिश्तेदार। सुदूर जंगल प्रांत में अकेले चलते हुए लगा कि मेरे एक मील पीछे और एक मील आगे कोई नहीं है। मैं नितांत अकेले चल रहा हूं। मेरे साथ सिर्फ जंगल के पंछी और पेड़ पौधे हैं। वैग्यानिक (ग्य इसी तरह हो पा रहा है) जगदीश चंद्र बसु ने जब कहा है कि पेड़- पौधों में भी मनुष्य की तरह संवेदना होती है। उनकी बात लगातार मेरे दिमाग में कौंध रही थी। खूबसूरत पेड़ों के पास कुछ पल खड़े रह कर चारो तरफ की पर्वतमालाओं को देखना भी कितना सुखद अनुभव है। संतों ने कहा है कि जब आप अकेले रहते हैं तो आपके साथ ईश्वर होते हैं। मनुष्य देह नहीं है, मन नहीं है, बुद्धि भी नहीं है। वह तो है शुद्ध सच्चिदानंद। अपने दुख ईश्वर को समर्पित कर दें और निश्चिंत हो जाएं। आपका भार ईश्वर ने ले लिया तो चिंता किस बात की। लेकिन समर्पण सच्चा होना चाहिए। यह नहीं कि समर्पण भी किया और भीतर ही भीतर डर भी रहे हैं कि कहीं कुछ घटित न हो जाए। यह तो बनावटी समर्पण है। एक बार पूरे दिल और दिमाग से हम ईश्वर को अपना भार दे देते हैं तो कितना आनंद आता है, यह उस सुदूर जंगल में अकेले घूमते हुए जाना। बेफिक्र होकर अनजानी दिशा में जाना और कभी न देखे हुए पौधों की पत्तियों और तनों को परखना। नीचे कई हजार फुट की घाटी में स्थित अत्यंत पतली नदी को देखना और प्रकृति के सामने, विराट पहाड़ के सामने खुद का अस्तित्व खोजना नए अनुभव थे।