Saturday, January 31, 2009

मन को कैसे चमकाएं?

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- जैसे लोटे को रोज मांजना पड़ता है, चमकाना पड़ता है, उसी तरह अपने मन को भी साफ- सुथरा करना पड़ता है, वरना उस पर गंदा पड़ता जाएगा और उसका आकर्षण खत्म हो जाएगा। उनके कहने का तात्पर्य यह था कि जैसे साफ कपड़े पहन कर हम बेहतर अनुभव करते हैं। अच्छा खाना खा कर हमारा मन आनंदित हो जाता है, ठीक वैसे ही मन की अच्छी सफाई हो तो मनुष्य भीतर से प्रफुल्लित हो जाता है। उसे गहरी शांति मिलती है। किसी ने उनसे पूछा कि मन की सफाई कैसे हो? तो उन्होंने कहा- थोड़ी देर एकांत में चुपचाप बैठिए और मान लीजिए की इस दुनिया- जहान और झंझटों से आपको कोई मतलब नहीं है। आप तो बस ईश्वर के बेटे हैं। आप ईश्वरीय आनंद में डूबे रहिए। पांच मिनट, दस मिनट या तीन मिनट भी अगर आप इसे करते हैं तो आपको भारी राहत मिलेगी। सबसे बड़ी चीज है ईश्वर से प्रेम। घृणा का जवाब घृणा से मिलता है और प्रेम का जवाब प्रेम से मिलता है। इसीलिए तो कबीर दास ने कहा है-प्रेम न खेतो नीपजेप्रेम न हाट बिकाय प्रेम न खेत में पैदा होता है और न बाजार में बिकता है। प्रेम तो आपके भीतर पैदा होता है। वह जबर्दस्ती तो पैदा ही नहीं किया जा सकता। वह अपने आप ही पैदा हो जाता है। तो ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे हो? उसे तो आपने देखा नहीं है? इसका जवाब है- पैदा होने के पहले आप कहां थे? और मरने के बाद आप कहां जाएंगे? यह जो बीच के समय में इस पृथ्वी पर रह रहे हैं, यहां भी आपकी सांसें निश्चित हैं। एक निश्चित संख्या में आपने सांस पूरी कर ली, बस आपका बुलावा किसी दूसरे लोक के लिए हो जाएगा। यह चमत्कार किसका है?? निश्चित रूप से ईश्वर का ही है। इसलिए ईश्वर हमसे प्रेम करता ही है। हमारे पैदा होने पर माता की देह में दूध पैदा कर देता है। हम वह पीकर बड़े होते हैं और बड़ा- बड़ा ग्यान बघारते हैं। फिर अंत में हमारी सांस खत्म हो जाती है और हमारा शरीर मुर्दा हो जाता है। तब हमारी सारी हेकड़ी कहां चली जाती है? ईश्वर हमें प्रेम करता है मां- बाप के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, मित्र के रूप में, एक रोगी को सहानुभूति और दवा के रूप में। भूखे के पास वह भोजन के रूप में आता है। करने वाला वही है। हम नाहक घमंड कर बैठते हैं कि हमने यह किया, वह किया।

Thursday, January 29, 2009

जप में बहुत बड़ी शक्ति

विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण परमहंस से एक व्यक्ति ने पूछा था- हम संसारी लोगों का ध्यान ज्यादा देर तक नहीं लगता। आंख बंद करते हैं तो एक मिनट तक तो ध्यान कर पाते हैं लेकिन उसके बाद मन भटकने लगता है। तब क्या हम लोगों को जप करना चाहिए? तब रामकृष्ण परमहंस ने कहा- हां। जप में बहुत शक्ति है। जैसे- कोई नाव रस्सी से बंधी है तो अगर कोई रस्सी पकड़ ले तो नाव ( भगवान) तक पहुंच सकता है। जप वही रस्सी है। एकाग्र होकर जप करना चाहिए। किस देवता पर एकाग्रचित्त हों? इसका जवाब है- जो आपको पसंद हो। कहां ध्यान करें? इसका जवाब रामकृष्ण परमहंस ने दिया था- या तो हृदय में या दोनों भृकुटियों के बीच में। दोनों भृकुटियों के बीच को ही गीता में नासिकाग्र कहा गया है। नासिकाग्र पर ध्यान करना चाहिए। मान लीजिए यह भी संभव नहीं है। तो किसी भी देवता का ध्यान कर जाप कीजिए। कुछ नहीं तो सिर्फ- राम, राम, राम का हीजाप कीजिए। कुछ संतों ने कहा है कि सांस लीजिए तो मन ही मन रा.... कहिए औऱ सांस छोड़ते वक्त म..... कहिए। यह भी अजपा जाप है। इससे आपका मन शांत होगा। रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- ईश्वर में भक्ति हो और मनुष्य जाप करता रहे तो उसका काम बन जाएगा। वे कहते थे- जाप आपके भीतर कई क्षमताएं पैदा कर देता है।

Wednesday, January 28, 2009

लोकनाथ ब्रह्मचारी

विनय बिहारी सिंह

लोकनाथ ब्रह्मचारी १८वीं शताब्दी में ढाका (बांग्लादेश) जिले में रहे और विलक्षण संत के रूप में ख्याति प्राप्त की। उस समय ढाका भारत का ही अंग था। उन्होंने वैसे तो कई दुखी लोगों की मदद की। लेकिन एक घटना बांग्लादेश में आज भी याद की जाती है। यह तो कहने की जरूरत नहीं कि सच्चे संत लोक कल्याण के लिए चमत्कार करते रहे हैं। आइए पहले उस विवरण को जानें। उनके बारे में गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि उनके एक सहपाठी ने इस घटना का जिक्र किया था। इस सहपाठी को मलेरिया ने धर दबोचा। वे महीनों खाट पर पड़े रहे। बहुत इलाज हुआ लेकिन बुखार था कि ठीक ही नहीं हो रहा था। वे दिन पर दिन कमजोर होते जा रहे थे। तब किसी ने कहा कि आप लोकनाथ ब्रह्मचारी के पास जाइए। शायद वे कुछ चमत्कार कर दें। मरता क्या न करता। उनके सहपाठी अपने पिता के साथ ब्रह्मचारी के पास पहुंचे। उनके पिता ने कहा- महात्मा जी इस लड़के का बुखार उतर ही नहीं रहा है। लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा- तो मैं क्या करूं। डाक्टर को दिखाओ। लड़के के पिता ने कहा- बहुत सारे डाक्टरों को दिखाया लेकिन बुखार उतर नहीं रहा है। लेकिन लोकनाथ ब्रह्मचारी चुपचाप बैठे रहे। लड़के की आंखों से आंसू गिरने लगे। देख कर संत को दया आई। उन्होंने कहा- जाओ इस आश्रम के बगल वाले पोखरे में नहा कर आओ। लड़के को बुखार था लेकिन संत का आदेश कैसे टाले। वह गया और पोखरे से नहा कर आ गया। लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा अब भात और दही खा लो। आश्रम में भात औऱ दही दोनों थे। थाल में परोस कर आया। लड़के ने बुखार के बावजूद खाया। फिर लोकनाथ ब्रह्मचारी ने कहा- अब घर जाओ। घर पहुंचने के बाद लड़के का बुखार उतर गया। फिर जीवन में उसे दुबारा मलेरिया नहीं हुआ। लोग चकित थे। बुखार में नहा कर दही भात खाना तो भयानक है। लेकिन लोकनाथ ब्रह्मचारी ने यह चमत्कार कर दिया।

Friday, January 23, 2009

हां, ढोंगी साधुओं की भरमार है, लेकिन दिव्य संतों को हम क्यों भूलें


विनय बिहारी सिंह

कुछ मित्रों ने रमण महर्षि पर लिखे मेरे लेख पर टिप्पणी की है, कुछ फोन भी आए हैं। सबका कहना है कि आजकल ढोंगी साधु इतने हो गए हैं कि अब साधु- संतों से घिन आने लगी है। हां मित्रों, यह सच है कि नकली या कहें इंद्रिय लोलुप या भेड़िए साधु के रूप में खूब मिल जाएंगे। आजकल जहां देखिए वही वही नजर आ रहे हैं। लेकिन इस वजह से क्या हम उन संतों को भूल जाएं जिन्होंने इस पृथ्वी को पवित्र किया है? हां, रमण महर्षि ऐसे ही संत थे। ऐसे संतों के बारे में दुबारा- तिबारा पढ़ कर कई चीजें दिमाग में कौंधती हैं, जो एक तरह से अच्छी बात कही जाएगी। एक तो साधना करने वाले दिखाते- बताते नहीं हैं कि वे बहुत पहुंचे हुए संत हैं। दूसरे रबड़ी- मलाई के लिए वे लोलुप व्यक्ति की तरह चक्कर नहीं लगाते रहते। वे धन के लिए चंदा या कपड़ा या और कुछ नहीं मांगते। सच्चे संतों के बारे में मैंने जो भी अध्ययन किया है, उससे यही निकला है कि संत तो जन कोलाहल से दूर कहीं किसी गुफा में या एकांत में बैठ कर साधना करते हैं और उन्हें संसार से कुछ भी नहीं चाहिए। कोई भी इच्छा, मैं फिर से दुहरा रहा हूं- कोई भी इच्छा उनके मन में नहीं होती और उन्हें कुछ नहीं चाहिए। कुछ भी नहीं। वे सिर्फ औऱ सिर्फ ईश्वर से प्रेम करते हैं और इस कारण दुखी, पीडि़त और असहायों की करुणा के कारण मदद करते हैं। न उन्हें रहने के लिए मकान चाहिए, न गाड़ी और न कपड़े। रमण महर्षि जीवन भर एक लंगोटी पहन कर रहे। नंगे बदन। जाड़े में भक्त उन्हें गर्म चादर ओढ़ा देते थे। लेकिन वह तब, जब रमणाश्रम बना और लोगों ने उन्हें वहां रहने की प्रर्थना की। उसके पहले वे जाड़ा, गर्मी और बरसात में एक लंगोटी पहने साधना करते रहते थे। उन्होंने कितने लोगों का कल्याण किया, बीमारियां ठीक कीं, भय, तनाव और क्रोध खत्म किया इसका कोई हिसाब नहीं है। और वह भी मुस्कराते हुए। और रमण महर्षि तो आज हैं नहीं। उनके शरीर छोड़े अनेक वर्ष हो गए। हम उन्हें सिर्फ याद ही कर सकते हैं। यहां तो प्रचार वगैरह वाली भी कोई बात नहीं है। पाल ब्रंटन ने उन पर किताब लिख कर जो कर दिया है उसके एक टुकड़े बराबर भी हम नहीं कर सकते। पुरानी बातों को याद करने की वजह सिर्फ यही है कि हम एक बार फिर मूल्यांकन करें कि आज जो साधु वेश में अनेक भ्रष्ट लोग घूमा करते हैं, वे खुद को ही कलंकित कर रहे हैं। लोग इतने बेवकूफ नहीं कि उनकी असलियत थोड़ी देर में न भांप लें। और सच कहें तो ऐसे नकली लोगों ने ही अनेक लोगों को नास्तिक बना दिया है। एक मित्र ने फोन किया है कि कोई क्या करे जब बार- बार नकली और दुष्ट साधुओं से ही पाला पड़े। मेरा कहना है- आप साधुओं से दूर रहिए। उन पर भरोसा मत कीजिए। लेकिन रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि, और उनसे पहले आदि शंकराचार्य आदि की लिखी किताबें जरूर पढिए। वे असली संत थे। उनकी किताबें पढ़ कर आपको लगेगा कि ये संत खुद ही बोल रहे हैं। उनकी शिक्षा तो कभी नहीं मर सकती। और वे क्या साधु- संत नहीं थे? और क्या संसार भर के साधु- संत भ्रम हैं। उनमें ईसा मसीह, सेंट फ्रांसिस, सेंट पाल और सेंट जेम्स प्रमुख हैं। ये दिव्य संत मनुष्य जाति का कल्याण कर गए हैं। क्या हम उन्हें याद न करें?

Thursday, January 22, 2009

रमण महर्षि

विनय बिहारी सिंह

तमिलनाडु में मदुरै से ३० मील दूर तिरुचुली में दिसंबर १८७९ में जन्मे रमण महर्षि ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर तिरुवन्नामलई में चले गए और वहीं गहन साथना की। वे तिरुवन्नामलई के पर्वतों को साक्षात भगवान शिव कहते थे। उन्होंने तिरुवन्नामलई की वीरुपाक्ष गुफा में अनेक वर्षों तक साधना की। रमण महर्षि के पास जो पांच मिनट भी बैठ जाता था, उसे गहरी शांति मिलती थी। यूरोप के एक लेखक पाल ब्रंटन ने उनकी ख्याति के बारे में सुना तो उनकी उत्सुकता बढ़ी। वे पहुंच गए रमण महर्षि के पास। वहां उनके साथ जो घटना घटी, उसने उनकी आंखें खोल दी। वे रात को एक मचान पर सोने की तैयारी कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि मचान पर एक जहरीला सांप चढ़ रहा है। उन्हें लगा कि आज उनकी मृत्यु निश्चित है। तभी रमण महर्षि का एक सेवक वहां आया औऱ सांप से आदमी की तरह बोला- ठहरो बेटा। यह अद्भुत घटना थी। सांप जहां का तहां रुक गया। सेवक ने सांप को प्यार से समझाया- ये हमारे मेहमान हैं। इनको डंस कर तुम क्या आश्रम की बदनामी करना चाहते हो? क्या बिगाड़ा है इन्होंने तुम्हारा? पुचकार कर सेवक ने कहा- आओ, नीचे उतर जाओ, पाल ब्रंटन साहब को सोने दो। और क्या गजब कि सांप ने आग्याकारी बच्चों की तरह बात मान ली और नीचे उतर गया। फिर सांप पहाड़ों की तरफ गया और गायब हो गया। पाल ब्रंटन के लिए यह चकित करने वाली घटना थी। उन्होंने आश्रम के सेवक से पूछा- आखिर तुमने यह चमत्कार किया कैसे? सेवक ने कहा- यह मैंने नहीं, रमण महर्षि ने चमत्कार किया। उनका कहना है कि जीव- जंतु किसी से भी अगर हम गहरे प्यार से बोलेंगे तो वह जरूर सुनेगा। लेकिन शर्त यह है कि आपका व्यक्तित्व सदा से प्यार की तरंगे फेंकने वाला हो। यह नहीं कि सांप देखा, तब प्यार की तरंग बनाने लगे। आपका समूचा व्यक्तित्व ही प्यार से ओतप्रोत होना चाहिए। तब कोई भी हिंसक जीव या जंतु आपकी बात टाल नहीं सकता। यह सुन कर पाल ब्रंटन, रमण महर्षि के दीवाने हो गए। उन्होंने उनके आश्रम में रह कर व्यापक शोध किया और रमण महर्षि पर जो किताब लिखी, वह विश्व प्रसिद्ध हो गई। उनकी लिखी किताबें- द सेक्रेट पाथ, सर्च इन सेक्रेट इंडिया और अ मैसेज फ्राम अरुणाचला आज भी लोकप्रिय हैं।

Tuesday, January 20, 2009

यही जीवन है

विनय बिहारी सिंह

कल केला बेचने वाले ने कहा- सर, कल रात सामने की बिल्डिंग के दरबान ने हम लोगों से दो घंटे तक बातचीत की। बिल्कुल मजे से बात हुई। आज यहां केला बेचने आया तो पता चला- उस दरबान की मौत हो गई। बताइए, यह कैसे हो गया? मुझे लगा कि भीतर से वह इस घटना से हिल गया है। नौजवान लड़का है। इस तरह का उसका यह पहला अनुभव है। मैंने कहा- यही जीवन है भाई। किसी संत कवि ने कहा है- पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जाति। पानी के बुलबुले जैसा मनुष्य की नियति है। क्या पता पानी का बुलबुला कब फूट जाए। फिर भी बेईमानी करने के लिए कुछ लोग किसी हद तक गिरे जा रहे हैं। किसी का नुकसान कर, किसी को कष्ट देकर भी अपना भला हो रहा है तो वे खुश हो जाते हैं। उन्हें नहीं पता कि एक दिन यह सारा बेईमानी का पैसा धरा रह जाएगा। इसके जवाब में वे कहेंगे- धरा कैसे रह जाएगा? मेरे बाल- बच्चे इसका उपभोग करेंगे। लेकिन भाई, आप तब कहां रहेंगे, सोचा है? कैसे बाल बच्चे? उनके भी बाल- बच्चे होंगे। फिर उन बाल- बच्चों के भी बाल- बच्चे होंगे, फिर उनके बच्चे। औऱ इस तरह आप भुला दिए जाएंगे। क्योंकि सात पीढ़ी या आठ पीढ़ी के पूर्वजों को कौन याद रखता है? हमारा मोल मिट्टी के बराबर है। इसलिए- १०० प्रतिशत अगर अपने प्रति सोचते हैं तो क्यों न कल से अपने लिए ९९ प्रतिशत ही सोचें और एक प्रतिशत दूसरे जरूरतमंद लोगों के लिए सोचें। सिर्फ एक पैसा। तब हमारा विस्तार हो जाएगा। हम सिर्फ अपने में नहीं सिमटे रहेंगे।

जमाना अच्छाई का नहीं है? तो किसका है?

विनय बिहारी सिंह

आप अक्सर सुनते हैं- अरे बहुत दयालु मत बनो, यह जमाना अच्छाई का नहीं है। सुन कर हैरानी होती है। अरे तो जमाना अच्छाई का नहीं है तो क्या हमेशा बुरा काम करें? क्या मतलब है इस जुमले का? मान लीजिए कि सभी यही सोचने लगें कि यह जमाना भलाई करने वालों के लिए नहीं है, तो हर आदमी बुरा काम करने लगेगा। फिर? तब क्या यह धरती कैसी होगी? अगर हम किसी पर भरोसा नहीं करें, सबको शक की निगाह से देखें, भला काम करने से परहेज करें तो कैसा माहौल बनेगा? हालांकि मौजूदा माहौल भी कम जटिल नहीं है। फिर भी इस पृथ्वी पर अच्छे लोग हैं और वे लगातार अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें हम, आप भले ही नहीं जानते या पहचानते, लेकिन वे अनजान रह कर अच्छा काम करने में आनंद पाते हैं। ऐसा कभी हुआ ही नहीं है कि यह पृथ्वी सिर्फ बुरे लोगों से ही भर गई हो। लंका में भी विभीषण जैसा व्यक्ति मौजूद था। विभीषण ने राम- रावण युद्ध में निर्णायक भूमिका अदा की। कैसे कह दें कि यह जमाना सिर्फ चोरों, डकैतों और लुटेरों का है। हां, ऐसे भ्रष्ट, बेईमान और अनैतिक लोग देश, समाज औऱ भावी पीढ़ी के भविष्य की चिंता न कर घनघोर अन्याय कर रहे हैं। यह सच है। लेकिन उनसे भी बड़े वे हैं जो लाचार लोगों के दुख, दर्द और परेशानी में मदद कर संतोष पाते हैं। सुख पाते हैं। और मजा यह कि वे अपना प्रचार नहीं चाहते। बेनाम रह कर सेवा करना चाहते हैं। इसी में उनको मजा आता है। हां, बहुत कम संख्या है ऐसे लोगों की। लेकिन है। ऐसे लोग चुनिंदा होते ही हैं। हम उनको नजरअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि समाज उन्हीं की सेवा से बचा हुआ है। हमें ऐसे लोगों से भी सीख लेनी चाहिए। जब डकैत ने बीमार होने का नाटक कर बाबा खड़ग सिंह से कहा कि बाबा, बीमार आदमी को घोड़ा दे देंगे क्या? मैं चल नहीं पा रहा हूं। तो बाबा खड़ग सिंह ने उसे घोड़े पर बैठा दिया। डकैत ने अचानक घोड़े को एड़ लगाई और घोड़े को ले भागा। तब बाबा खड़ग सिंह ने डकैत को बुला कर कहा- देख बेटा, आज जो तुमने किया, भविष्य में कभी मत करना। वरना लोगों के भीतर बीमारों के प्रति हमदर्दी खत्म हो जाएगी। यह कथा- हमें सीख देती है। बाबा खड़ग सिंह ने फिर घोड़ा खरीदा और फिर वे सेवा में जुट गए। आप हर बार धोखा नहीं खा सकते। धोखा आपको सीख देती है। हां, सतर्क अवश्य रहिए। वरना आपके सीधेपन का फायदा उठाने वाले इस दुनिया में कम नहीं हैं। लेकिन दुखियारे, बेसहारा भी कम नहीं हैं भाई।

Sunday, January 18, 2009

गांधी जी ने मरते वक्त कहा था- हे राम

विनय बिहारी सिंह

महात्मा गांधी को जब गोली लगी थी तो वे गिर पड़े थे और उनके मुंह से निकला था- हे राम। अपने जीवन काल में उन्होंने अपने प्रिय जनों से कहा था- मेरी हार्दिक इच्छा है कि जब मरूं तो मेरे मुंह से राम का नाम ही निकले। वे जीवन भर ईश्वर के भक्त हो कर रहे। हर सुबह और शाम वे पूजा करते थे। हर रोज सार्वजनिक रूप से प्रार्थना सभा का आयोजन किया जाता था। वे मानते थे कि सबका मालिक भगवान ही है। अनेक लोगों को उनका भजन याद है- ईश्वर, अल्ला तेरे नाम। सबको सन्मति दे भगवान।
एक बार महात्मा गांधी का एपेंडिक्स का आपरेशन होना था। डाक्टर चाहते थे कि उन्हें बेहोश करने की दवा दी जाए। तब आपरेशन किया जाए. गांधी जी ने कहा- नहीं । मैं बिना बेहोशी की दवा खाए, पबरे होशो हवास में आपरेशन कराना चाहता हूं। कोई सामान्य आदमी होता तो डाक्टर राजी नहीं होते। लेकिन बात महात्मा गांधी की थी। डाक्टरों को राजी होना पड़ा। गांधी जी का पेट चीरा गया और वे आराम से आपरेशन कराते रहे। चिल्लाना तो दूर, वे उल्टे मुस्कराते रहे। कितनी सहन शक्ति थी गांधी जी मे।ोोमो

Friday, January 16, 2009

थोड़ी देर के लिए प्रेम से सराबोर रहिए

विनय बिहारी सिंह

सुबह से लेकर सोने तक हमारे मन में न जाने कितने तरह के विचार आते औऱ जाते हैं। गौर कीजिए तो आश्चर्य होता है। ये विचार हमारे दिमाग को थका देते हैं। इसीलिए रात को हमे सोने की जरूरत पड़ती है। हम दिन भर के कामकाज के बाद शारीरिक रूप से तो थकते ही हैं, मानसिक रूप से भी थक जाते हैं। रात भर गहरी नींद में सो कर फिर से हम तरोताजा हो जाते हैं। क्या जगे रहने के दौरान हमारे जीवन में कोई ऐसा क्षण आता है कि हम प्रेम
से सराबोर होते हों। हममें से कई लोगों के जीवन में ऐसा क्षण आता ही नहीं कि हम ईश्वर कें प्रेम से सराबोर हो सकें। संत महात्माओं ने कहा है कि हर रोज दिन में कुछ क्षण एेसे निकालिए कि आपके दिमाग में कोई विचार ही न हो। सिवाय ईश्वर के प्रेम के। मानो आप १ मिनट या २ मिनट ईश्वर के प्रेम से नहा रहे हों। सब कुछ ईश्वर में डूब गया है। आपका अस्तित् भीईश्वर में डूब गया है। एेसा रोज करने से आप पाएंगे कि आपके भीतर एक नई ताजगी एख नया उमंग पैदा रहा है। यह अद्भुत प्रयोग एक बार सबको करना चाहिए। आशीर्वाद यहीं से शुरू होता है।

हृदय बहुत संवेदनशील अंग है ध्यान इसे सुधारता है

विनय बिहारी सिंह
अपोलो अस्पताल कोलकाता के मशहूर डाक्टर राबिन चक्रवर्ती कहते हैं कि हर्ट इज वेरी टेंपरामेंटल आर्गन। यानी हृदय बहुत ही संवेदनशील अंग है। कैसे? जब हम दुखी रहते हैं तो हमारा दिल अलग तरीके से धड़कता है। जब हम क्रोध में होते हैं तो अलग तरीके से धड़कता है। खुश हैं तो अलग तरीके से धड़कता है। उत्साहित हैं तो अलग तरीके से। संत- महात्माओं ने कहा है कि ध्यान हमारे हृदय को नियंत्रित कर देता है। यानी ध्यान ऐसी औषधि है जिससे मनुष्य को गहरी शांति, स्वास्थ्य और ईश्वर की कृपा मिलती है। हमारा मन चंचल है। वह कहीं एक जगह ठहरता नहीं है। कभी यहां तो कभी वहां। मन जितना चंचल रहता है, हमारा हृदय उसी के अनुरूप धड़कता है। इसलिए हृदय को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है प्राणायाम और ध्यान।
जब तक हम जवान हैं, हृदय की परवाह नहीं करते हैं। जो मरजी खाते हैं, पीते हैं औऱ तनाव में रहते हैं। कई लोगों को तो छोटी- छोटी बातों में तनाव मोल लेने की आदत होती है। खाना ठीक नहीं बना तो तनाव हो गया। किसी ने कुछ कह दिया तो तनाव हो गया। बस या ट्रेन छूट गई तो तनाव हो गया। लेकिन संतों ने कहा है कि धैर्य रखिए, शांत मन से परिस्थितियों का सामना कीजिए। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि कहना आसान है औऱ तनाव को रोकना मुश्किल। तनाव कह कर तो आता नहीं है। वह तो कब आपको दबोच लेता है, पता ही नहीं चलता। लेकिन संतों का कहना है कि नहीं। अगर आप सतर्क रहेंगे तो ऐसा नहीं होगा। ज्योंही तनाव होना शुरू हुआ कि आप मन को कमांड करेंगे- तनाव नहीं करना है। तनाव मत करो। उस समय आप अपने जीवन के अच्छे अनुभवों को सोचना शुरू कर दीजिए। जीवन के अच्छे प्रसंगों को सोचने लगिए। धीरे- धीरे आप तनाव से दूर रहना सीख जाएंगे।

Thursday, January 15, 2009

मनुष्य न शरीर है, न मन

विनय बिहारी सिंह

एक बार रमण महर्षि के पास एक दुखी आदमी शांति की खोज में गया। इस आदमी की पत्नी की मृत्यु हो गई थी, जिसके साथ उसने १६- १७ साल अत्यंत प्रेम के साथ बिताए थे। वह व्यथित था। बेचैन था। उसने रमण महर्षि से मन शांत होने का उपाय पूछा। महर्षि मुस्कराए और बोले- जब तक हमारी देहात्मिका बुद्धि है, ऐसा दुख हमें सताता रहेगा। हम यह मान बैठे हैं कि हम शरीर हैं। जबकि सच्चाई यह है कि मनुष्य न शरीर है, न मन और न बुद्धि। हां शरीर मनुष्य का है, मन मनुष्य का है या बुद्धि मनुष्य की है लेकिन मनुष्य शरीर, मन या बुद्धि नहीं है। हम सब तो आत्मा हैं और गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि आत्मा अजर- अमर है। वह न जन्मती है और न मरती है। उन्होंने कहा- जब हम सोते हैं तो हम पूरी तरह अग्यान जैसी अवस्था में रहते हैं। उस समय सोया हुआ व्यक्ति नहीं कहता कि मैं सो रहा हूं। जगने के बाद ही कहता है कि हां, मैं गहरी नींद में सोया। मानो जगना जीवन है औऱ सोना मृत्यु।
उस आदमी से रमण महर्षि ने कहा- जब तुम्हारी पत्नी जीवित थी तो क्या वह तुम्हारे साथ आफिस जाती थी। उस आदमी ने कहा- नहीं। तब रमण महर्षि ने कहा- तुम्हारे साथ वह आफिस नहीं जाती थी, लेकिन तुम्हारे दिमाग में रहता था कि पत्नी घर पर है। अब तुम कहते हो- वह दुनिया में नहीं है। तो यह तुम्हारा अहं है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। हर आदमी को कभी न कभी जाना है। मृत्यु अवश्यंभावी है। तुम्हारी पत्नी के रूप में उसे इतने ही दिन रहना था। तुम भी एक दिन इस दुनिया से चले जाओगे। दुनिया की यह रीति है। शोक क्यों? ईश्वर की शरण में जाओ। वहीं परम सांति और आनंद है।

Wednesday, January 14, 2009

विष्णु और शिव की संतान हैं अयप्पा


विनय बिहारी सिंह

शैव मत के लोग कहते हैं कि भगवान यानी शिव। शिव का ही दूसरा नाम शंकर, रुद्र और महादेव इत्यादि है। उधर वैष्णव मत के लोग कहते हैं कि भगवान यानी विष्णु या कृष्ण या राम। क्योंकि राम और कृष्ण विष्णु के ही अवतार कहे जाते हैं। एक समय में शैव और वैष्णवों में काफी विरोध था। शैव शिव के अलावा किसी का नाम नहीं सुन सकते थे औऱ वैष्णव कृष्ण के अलावा। इस तनाव को खत्म करने के लिए दक्षिण भारत के ऋषियों ने एक कथा की याद दिलाई। कथा है- जब समुद्र मंथन के समय अमृत निकला तो राक्षसों का ध्यान बंटाने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया। इस रूप पर भगवान शंकर मोहित हो गए। तब दोनों के संपर्क से अयप्पा का जन्म हो गया। अयप्पा का जब जन्म हुआ तो उन्हें घनघोर जंगल के बीचोबीच पाया गया। उनके गले में रत्नों की माला थी। उधर से एक राजा शिकार से लौट रहे थे। उन्होंने अयप्पा को देख कर जान लिया कि यह कोई असाधारण बालक है।
अयप्पा जब १४ साल के हुए तो उनकी मां के पेट में दर्द होना शुरू हुआ। जब यह दर्द होता था तो मां छटपटाने लगती थीं। किसी वैद्य ने बताया कि मादा चीते का दूध अगर मिल जाए तो एक औषधि तैयार हो सकती है। अयप्पा ने सुना तो वे जंगल में निकल गए। वहां से लौटे तो सबने देखा- अयप्पा एक चीते की पीठ पर बैठे हुए हैं और उनके पीछे- पीछे बाकी चीते भी चल रहे हैं। यह दृश्य दंग करने वाला था। यानी मादा चीतों का एक झुंड अयप्पा ने राजमहल में उपस्थित कर दिया। चीते के दूध में औषधि खा कर अयप्पा की मां पूरी तरह स्वस्थ हो गईँ।
इन्हीं अयप्पा का मंदिर आज दक्षिण भारत में बहुत लोकप्रिय है। यह सबरीमाला में है। अयप्पा मंदिर में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। लोगों में यह विश्वास है कि अयप्पा भगवान से जो भी मन्नत मांगी जाती है वह पूरी हो कर रहती है। वजह यह है कि वे शिव और विष्णु दोनों के पुत्र हैं।
दरअसल यह शिव और विष्णु को एक कर देने की कथा है। यानी जो शिव हैं, वही विष्णु भी हैं। सच्चिदानंद तो एक ही हैं। वही माता, पिता, बंधु और सखा हैं। वही जगत में व्याप्त हैं। वही हमारे अंदर भी व्याप्त हैं।

Tuesday, January 13, 2009

बुरा सोचना भी क्यों घातक है?

विनय बिहारी सिंह

गांधी जी के तीन बंदर अब भी कई लोगों को याद होंगे। एक बंदर कान बंद करके बैठा है। यानी- बुरा मत सुनो। दूसरा मुंह बंद करके बैठा है। यानी- बुरा मत कहो। और तीसरा बंदर आंख बंद करके बैठा है। यानी- बुरा मत देखो। एक जमाने में गांधी जी के तीन बंदर बच्चों में खूब लोकप्रिय थे।
तो बुरा सोचना कैसे घातक है? सोचने से क्या कोई असर पड़ता है? जवाब है- हां। जैसा आप सोचते हैं, वह लौट कर फिर आप के ही पास आता है। मान लीजिए आपने किसी के प्रति सोचा कि वह मर क्यों नहीं जाता। तो आप पाएंगे कि कुछ दिनों बाद आपकी तबियत खराब हो गई है। वह सोचना उल्टे आप पर ही पड़ गया। इसीलिए संन्यासियों ने कहा है कि किसी के बारे में आप बुरा न सोचें। आप जिसके बारे में सोचेंगे उसका तो अहित नहीं होगा, बल्कि आपका ही अहित हो जाएगा। हमारा सोचने और बोलने के स्पंदन वायुमंडल में हमेशा मौजूद रहता है। कई साधु तो यह भी कहते हैं कि अगर आप अपने गलत सोचे हुए को काटना चाहते हैं तो ईश्वर से प्रार्थना कीजिए- हे प्रभु, अब मैं किसी का बुरा नहीं सोचूंगा। मुझे क्षमा कीजिए। अगर आप दिल से कहेंगे तो यह प्रार्थना भारी असरदार होगी।
सुनने में यह बात आपको विचित्र लग सकती है। लेकिन वैग्यानिक रूप से यह बात सच है। अनेक लोग इसको आजमा चुके हैं। आप भी अगर अपने जीवन में घटने वाली घटनाओं पर गौर करें तो आपको महसूस होने लगेगा।
इसके अलावा आपने अगर किसी के बारे में बुरे शब्दों का इस्तेमाल किया तो वह वायुमंडल के ईथर में गूंजता रहेगा। ठीक उसी तरह जैसे किसी रेडियो से प्रसारित कोई बात या संगीत वायुमंडल में रहती है और ज्योंही रेडियो से आप इसे ट्यून करते हैं यह आवाज जोर- जोर से आपको सुनाई देने लगती है। चूंकि रेडियो एक वैग्यानिक सूत्र के आधार पर तैयार किया गया है, इसलिए आप उससे कहीं भी प्रसारित होने वाली बातें या संगीत सुन लेते हैं। लेकिन आपके शरीर का रेडियो उतना विकसित नहीं है। इसलिए वायुमंडल में सूक्ष्म रूप से मौजूद हमारे विचार हम महसूस नहीं कर पाते। लेकिन ऋषि- मुनियों का सूक्ष्म रेडियो काफी पुष्ट था। हजारो मील दूर होने वाली बातचीत वे तुरंत सुन लेते थे। बिना किसी यंत्र के। अपनी साधना से वे इतने उच्च स्तर पर पहुंचे होते थे कि उनका कोई शिष्य भी हजारों मील दूर क्या सोच रहा है, वे जान लेते थे। उनका दर्शन करने वाला आदमी क्या सोच रहा है, यह भी वे जान लेते थे।
इसीलिए हमें किसी का बुरा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने जीवन में और ज्यादा अच्छा क्या कर सकते हैं, यही सोचना चाहिए। सबका भला हो।

Saturday, January 10, 2009

क्या अंतर है मनुष्य और जानवरों में


विनय बिहारी सिंह

क्या कभी हम सोचते हैं कि हममें और जानवरों में क्या अंतर है? अगर हां, तो आइए एक बार फिर सोचें। जानवर भी शौच करते हैं, भोजन करते हैं, स्नान करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सोते हैं और बच्चे पैदा करते हैं। ठीक यही काम हम लोग भी करते हैं। बल्कि एक कदम आगे बढ़ कर हम भोजन में स्वाद ढूंढ़ने लगते हैं और कई बार ढेर सारा समय और पैसा खर्च कर मनचाहा स्वाद पाते हैं। कुछ दिन बाद फिर वही स्वाद हमें सताने लगता है। जानवर जब मरते हैं तो उनका चमड़ा मनुष्य के काम आता है। लेकिन मनुष्य जब मरता है तो उसका चमड़ा काम नहीं आता। वह बदबू मारने लगता है। तब हम जानवरों से कैसे श्रेष्ठ हैं? ईश्वर ने हमें सोचने, समझने और विवेक की शक्ति दी है। इच्छा शक्ति दी है। फिर भी हम नहीं समझ पाते कि हमारा इस पृथ्वी पर जन्म क्यों हुआ है। हम इंद्रियों के दास बन जाते हैं। आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हमें अपना गुलाम बना लेते हैं। इंद्रियां हमें जैसे नचाती हैं, हम वैसे ही नाचते हैं। तो हमारा जन्म इस जगत में क्यों हुआ है? ऋषि- मुनियों ने कहा है कि अनेक जन्मों के बाद हमारा मनुष्य योनि में जन्म इसीलिए हुआ है कि ताकि हम ईश्वर को जान सकें और उसे पा सकें। लेकिन इसके लिए उन्होंने जो मार्ग बताया है, उस पर श्रद्धा से चलना पड़ेगा। अपने जीवन को संतुलित करना पड़ेगा। इस जगत में सब कुछ ईश्वर के ही अधीन है। हर व्यक्ति, जीव- जंतु उसी से शक्ति पाता है। लेकिन कुछ लोग अपनी शक्ति पर घमंड कर बैठते हैं। मैं शक्तिशाली हूं, ऐसा समझ बैठते हैं। अहंकार के कारण उन्हें समझ में नहीं आता कि जिस शक्ति पर वे इतना इतरा रहे हैं, उसे ईश्वर ने दिया है। तो हम विवेक, श्रद्धा और भक्ति से ईश्वर को पाने के लिए पृथ्वी पर आए हैं। इस तरह हम पशुओं से अलग हैं। हममें अगर प्रेम, भाईचारा और परहित नहीं है तो फिर पशु और हम एक नहीं हो जाएंगे?

Friday, January 9, 2009

दिमाग के रसायनों को बदल देता है ध्यान



विनय बिहारी सिंह


हाल के शोध से पता चला है कि आक्सिटोसिन नामक रसायन मनुष्य के दिमाग में प्रेम तत्व उत्पन्न करता है। कैसे? यूरोप के वैग्यानिकों ने कहा है कि अगर एक कमरे में किसी अपरिचित स्त्री- पुरुष को रख दिया जाए और उन्हें आक्सिटोसिन की संतुलित खुराक दे दी जाए तो उनके बीच प्रेम हो जाएगा। भले ही वे खुराक लेने के पहले इस मूड में न हों। उनका कहना है कि मस्तिष्क में पहुंचने वाले रसायन और मेड्युला आब्लांगाटा (जो मस्तिष्क के नीचे यानी हमारी गरदन और सिर के जोड़ के पास स्थित है) के प्रभाव से यह चमत्कार होता है। इसके पहले वैग्यानिकों ने कहा था कि जिस चीज के बारे में आप ज्यादा सोचेंगे, आप खुद भी उसी तरह के बनते जाएंगे। इसीलिए ऋषि- मुनियों ने कहा है कि हमेशा ईश्वर के बारे में सोचिए। कामकाज करते समय सोचिए कि आप यह सब ईश्वर के लिए कर रहे हैं। अनेक वैग्यानिक कह ही चुके हैं कि ध्यान से आपके दिमाग में अल्फा किरणें बढ़ती हैं। अल्फा किरणें आपके तनाव को फ्यूज कर देती हैं। अल्फा किरणों मनुष्य को शांत, बुद्धिमान और तनाव रहित बनाती हैं। आप जितना अधिक ध्यान करेंगे यानी मेडिटेशन करेंगे उतना ही आप ईश्वर के करीब पहुंचेंगे। नतीजा यह होगा कि आपका जीवन ज्यादा सुव्यवस्थित होगा। ध्यान करने से आपका भौतिक जीवन भी समृद्ध होता है। आध्यात्मिक जीवन तो समृद्ध होता ही है।

Thursday, January 8, 2009

अगर ईश्वर भी कह दे कि मेरे पास समय नहीं है, तब?


विनय बिहारी सिंह


यूरोप के दार्शनिक और अध्यात्मवादी एंड्रू कोहन का कहना है कि जहां द्वैत है, वहीं द्वंद्व है। यानी जहां दो चीजें हैं, वहीं टकराव और तनाव है। इसे जरा और विस्तार से समझें। दो चीजें यानी- सुख- दुख या हानि- लाभ, रात- दिन या शत्रु- मित्र। उनका कहना है कि सब कुछ तो ईश्वर ही है। एंड्रू कोहन की विचारधारा वही है जो रामकृष्ण परमहंस की थी। यानी अद्वैतवाद। प्रत्येक मनुष्य की उत्पत्ति ईश्वर से हुई है, वह ईश्वर में ही रह रहा है और उसका विलय ईश्वर में ही होगा। यही बात हर वस्तु पर भी लागू होती है, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव। अगर यह कहें कि निर्जीव वस्तु कैसे ईश्वर से आई है तो इसका उत्तर यह होगा कि जितनी भी चीजें हमें दिखाई देती हैं- वे सभी ईश्वर ने ही निर्मित की हैं। अब आप पूछेंगे कि तो फिर जो चीजें नहीं दिखाई देतीं वे किसने बनाई हैं- जैसे हवा, हमारा मन, हमारी भावनाएं। ये सब तो दिखाई नहीं देतीं। तो इन्हें किसने बनाया है? इसका भी जवाब वही होगा- ईश्वर ने ही इन्हें भी बनाया है। तो ईश्वर ने क्या- क्या बनाया है? इसका उत्तर है- समूचा ब्रह्मांड ही ईश्वर ने बनाया है। जब संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर ने बनाया है तो जाहिर है ब्रह्मांड की सभी वस्तुएं भी ईश्वर ने ही बनाई हैं। अब आइए बात करें परमहंस योगानंद जी की। सन १९२० से लेकर १९५२ तक यूरोप में योग की उन्होंने वैग्यानिक व्याख्या की और योग के प्रति प्रबल आकर्षण पैदा किया। परमहंस जी कहते थे- ईश्वर के पास ब्रह्मांड की समस्त वस्तुएं हैं लेकिन एक चीज वह हमेशा खोजता है, वह है- मनुष्य का प्यार। जब कोई उन्हें सच्चे मन से प्यार करता है तो वे उसके पास दौड़े चले आते हैं। यानी ईश्वर भी हमसे कुछ खोजते हैं। वे हमें बार- बार कहते हैं- मेरे बच्चों, एक बार मेरे पास आओ। लेकिन हम कहते हैं- नहीं, अभी नहीं। अभी तो हमें अपना कैरियर बनाना है, बच्चे को नौकरी दिलानी है। या बेटी की शादी करनी है। अभी नहीं। जब सब कर लूंगा तो भगवन तुम्हें प्यार करूंगा। लेकिन मान लीजिए भगवान भी कह दें- ठीक है तो फिर मेरे पास भी तुम्हारे लिए समय नहीं है। तब? तब तो हमारा जीवन ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन भगवान अत्यंत दयालु हैं। वे ऐसा नहीं करते। वे कहते हैं- ठीक है मेरे बच्चे मैं हमेशा तुम्हारे प्यार की प्रतीक्षा करूंगा। सचमुच सबकुछ ईश्वर से ही आया है औऱ ईश्वर में ही विलीन हो जाएगा। फिर भी हम ईश्वर को तभी याद करते हैं जब दुख या तकलीफ में होते हैं। सुख में उनको कौन याद करता है। क्यों न हम भगवान को ईश्वर को रोज याद करें। कम से कम सोते समय या जागते समय। ईश्वर इसी से प्रसन्न हो जाएंगे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- मनुष्य का जन्म ही ईश्वर को पाने के लिए हुआ है। वरना खाना, शौच करना, सोना औऱ बच्चे पैदा करना तो पशुओं को भी अच्छी तरह आता है। फिर मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह जाएगा?


Wednesday, January 7, 2009

यहां मिलते हैं विग्यान और आध्यात्म

विनय बिहारी सिंह

यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया के फिजिक्स के प्रोफेसर मणि घोष ने एक पुस्तक लिखी है- कास्मिक डिटेक्टिव। उन्होंने कुछ पाश्चात्य वैग्यानिकों के साथ लेजर टेक्नालाजी में महत्वपूर्ण अविष्कार किए हैं। इसी वजह से आज चिकित्सा जगत में लेजर आपरेशन हो पा रहे हैं। इस पुस्तक के लिखने के पीछे अपनी सोच जाहिर करते हुए उन्होंने कहा है- मनुष्य अपनी चेतना ब्रह्मांडीय चेतना से से प्राप्त करता है। उन्होंने कहा है- बहुत से लोग कहते हैं कि ईश्वर उनके लिए अपरिचित है। लेकिन ईश्वर के बिना हमारा परिचय पूरा नहीं हो पाता। यहां विग्यान (तकनीकी कारणों से ग्य ऐसे ही लिखना पड़ रहा है।) और आध्यात्म एक में मिल जाते हैं। ऋषियों ने कहा है कि न तो हम शरीर हैं और न मन या बुद्धि। हम तो विशुद्ध चेतना हैं। ब्रह्मांडीय चेतना। जो पांच तत्व- अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल और आकाश ब्रह्मांड में हैं, वही हमारे भीतर भी हैं। लेकिन हम ये पांच तत्व भी नहीं हैं। जब हम गहरे ध्यान में जाते हैं तो इन पांच तत्वों के भी पार चले जाते हैं जहां शुद्ध चैतन्य है। जब तक हम कुछ न कुछ सोचते रहते हैं, तब तक आंखें बंद रहने पर भी ठीक से ध्यान नहीं हो पाता। खुली आंखों से जो सोचते हैं, वही आंखें बंद करके सोचने लगते हैं। ऋषियों ने कहा है कि हमें सोचना बंद कर सिर्फ ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह हम अपने भीतर जाएंगे और आत्मा से साक्षात्कार करेंगे। वैग्यानिक मणि घोष ने जो विचार व्यक्त किए हैं, वह हजारों साल पहले हमारे ऋषि- मुनियों ने कहा है और अगर कोई वैग्यानिक इस तथ्य को रेखांकित करता है तो इस बात की पुष्टि होती है कि हम यह गलती करते हैं कि सिर्फ अपने शारीरिक सुखों के बारे में सोचते हैं। हमें ईश्वर के बारे में भी सोचना चाहिए। इसीलिए शायद पातंजलि ने कहा है- योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। यानी चित्त की वृत्तियों को रोक देना ही योग है।

Tuesday, January 6, 2009

जरूरी है प्रकृति से तालमेल

विनय बिहारी सिंह


सचमुच प्रकृति के साथ हमारा तालमेल बहुत जरूरी है। सुदूर जंगल के पास चिड़ियों की आवाज, शुद्ध हवा- पानी और सबसे बढ़ कर एकांत मनुष्य को ईश्वर के करीब ला देता है। वहां न कोई तनाव था और न ही भागदौड़। जो मिल जाता था, खा लिया और खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते रहे। लगा महानगरों में हम कितना कृत्रिम जीवन जी रहे हैं। पिछले दिनों उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के द्वारहाट में जाने का मौका मिला। हरियाली से ओतप्रोत विराट पर्वत मालाओं के बीच रहना अत्यंत सुखद अनुभव था। एक दिन सुदूर एक जंगल प्रांत में गया तो लगा कि एकाएक अकेले हो जाना कितना कुछ सिखा देता है। साधु- संतों ने ठीक ही कहा है- हम अकेले आए हैं और अकेले ही जाएंगे। हमारे साथ न तो हमारा कुटुंब जाएगा और न दोस्त रिश्तेदार। सुदूर जंगल प्रांत में अकेले चलते हुए लगा कि मेरे एक मील पीछे और एक मील आगे कोई नहीं है। मैं नितांत अकेले चल रहा हूं। मेरे साथ सिर्फ जंगल के पंछी और पेड़ पौधे हैं। वैग्यानिक (ग्य इसी तरह हो पा रहा है) जगदीश चंद्र बसु ने जब कहा है कि पेड़- पौधों में भी मनुष्य की तरह संवेदना होती है। उनकी बात लगातार मेरे दिमाग में कौंध रही थी। खूबसूरत पेड़ों के पास कुछ पल खड़े रह कर चारो तरफ की पर्वतमालाओं को देखना भी कितना सुखद अनुभव है। संतों ने कहा है कि जब आप अकेले रहते हैं तो आपके साथ ईश्वर होते हैं। मनुष्य देह नहीं है, मन नहीं है, बुद्धि भी नहीं है। वह तो है शुद्ध सच्चिदानंद। अपने दुख ईश्वर को समर्पित कर दें और निश्चिंत हो जाएं। आपका भार ईश्वर ने ले लिया तो चिंता किस बात की। लेकिन समर्पण सच्चा होना चाहिए। यह नहीं कि समर्पण भी किया और भीतर ही भीतर डर भी रहे हैं कि कहीं कुछ घटित न हो जाए। यह तो बनावटी समर्पण है। एक बार पूरे दिल और दिमाग से हम ईश्वर को अपना भार दे देते हैं तो कितना आनंद आता है, यह उस सुदूर जंगल में अकेले घूमते हुए जाना। बेफिक्र होकर अनजानी दिशा में जाना और कभी न देखे हुए पौधों की पत्तियों और तनों को परखना। नीचे कई हजार फुट की घाटी में स्थित अत्यंत पतली नदी को देखना और प्रकृति के सामने, विराट पहाड़ के सामने खुद का अस्तित्व खोजना नए अनुभव थे।

Saturday, January 3, 2009

वह मरने जा रहा था, तभी कौंधी उम्मीद की किरण

विनय बिहारी सिंह
कहने की जरूरत नहीं कि आत्महत्या करने वाले लोग जीवन से निराश हो चुके होते हैं। लेकिन पिछले दिनों एक ऐसे युवक गौतम से मुलाकात हुई जो आत्महत्या करने जा रहा था तभी लोगों ने उसे ट्रेन के सामने कूदने से बचा लिया। वह बार- बार कह रहा था कि उसे जीने में अब कोई दिलचस्पी नहीं है। अचानक एक सन्यासी ने उसके जीवन की धारा बदल दी। आज वह जीना चाहता है, बहुत खुश है और निराश लोगों के जीवन में प्रकाश लाना चाहता है। ट्रेन में उससे मुलाकात सुखकर थी। बाद में याद आया- उसका पता- ठिकाना ले लेना चाहिए था। उसने बस इतना ही बताया कि वह मुंबई में रहता है। कोलकाता में एक रिश्तेदार के घर बालीगंज में आया हुआ है। एक और रिश्तेदार दमदम में रहते हैं, उन्हीं से मिल कर आ रहा है। दमदम से सियालदह तक आत्महत्या पर चर्चा इसलिए हो सकी क्योंकि दमदम में सुबह- सुबह ही प्लेटफार्म नंबर एक पर एक युवक ने आत्महत्या कर ली थी। उसका सिर अलग औऱ धड़ अलग हो चुका था। दृश्य हृदयविदारक था। गौतम ने मुझसे कहा- बड़े काकू (बड़े चाचा जी) जीवन तो जीने के लिए है। इस आदमी ने आत्महत्या कर भारी गलती की है। मैंने भी आत्महत्या करनी चाही थी। लेकिन मुझे अब जीने की राह मिल गई है। आज गौतम एक छोटा सा व्यवसाय करता है और अपना परिवार चलाता है। चार साल पहले तक वह बेरोजगार था। नौकरियां ढूंढ़- ढूंढ़ कर थक चुका था। हर जगह निराशा, अपमान और तिरस्कार। घर के लोग भी उसकी तरफ से निराश हो चले थे। जिस लड़की से वह शादी करना चाहता था, उसने उससे नाता तोड़ कर किसी और से शादी कर ली। और भी कई घटनाएं हुईं, जिन्होंने उसके दिल पर कई घाव कर दिए। उसे लगा- चारो तरफ अंधकार है, एक ही उपाय है- मरना। गौतम भारी अवसाद में एक दिन तेज रफ्तार से आती ट्रेन के सामने कूदना ही चाहता था कि पीछे से एक तगड़े लेकिन बुजुर्ग व्यक्ति ने उसे पकड़ लिया औऱ डांटा- क्यों मरना चाहते हो? मरोगे तो ट्रेन लेट होगी, मैं आफिस नहीं पहुंच पाऊंगा। बाद में उससे पूछा गया कि कैसे उसे पता चला कि यह युवक आत्महत्या करने जा रहा है? तो उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा- कूदने के पहले जैसी मुद्रा होती है, वह ठीक उसी तरह खड़ा था। तो गौतम को बचा लिया गया। तभी उसकी मुलाकात एक सन्यासी से हुई। उन्होंने उससे कुछ प्रश्न किया।पहला सवाल था- क्यों निराश हो?गौतम- जीवन में कहीं कोई उम्मीद की किरण नहीं है। जीने से क्या फायदा?सन्यासी- तुम इस पृथ्वी पर क्यों आए?गौतम- धरती का सुख भोगने। सन्यासी- गलत। तुम पृथ्वी पर आए हो, ईश्वर को पाने के लिए। ईश्वर में ही असली सुख है। भौतिक वस्तुएं जुटाओ लेकिन उनका गुलाम मत बनो। गौतम- पास में फूटी कौड़ी नहीं है। अच्छी- अच्छी बातें तब अच्छी लगती हैं, जब पेट भरा हो औऱ जेब में पैसा हो।सन्यासी- तुमने हार क्यों मानी?गौतम- कहीं कोई नौकरी नहीं है। कुछ नहीं बचा अब मेरे जीवन में।सन्यासी- तुम किसी बड़ी कंपनी का माल लेकर उसे घूम- घूम कर बेच भी तो सकते हो? परिश्रम करने में बुराई क्या है? तुम्हारा मुख्य उद्देश्य है ईश्वर से दोस्ती करना। वह तुम्हारी परीक्षा ले रहा है। गौतम- मैंने क्या गलती की है? ईश्वर मेरे जैसे सीधे- साधे व्यक्ति की क्यों परीक्षा ले रहा है?सन्यासी- हो सकता है इस कठिनाई से ईश्वर तुम्हें कुछ सिखाना चाहते हों। गौतम- क्या मेरा जीवन पटरी पर आएगा?सन्यासी- बिल्कुल तुम कोशिश तो करो। जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए। कोशिश करते रहो। लगे रहो। १०० बार फेल हुए तो १००० बार और कोशिश करो। इसी में तो मजा है। हां, क्षेत्र वही चुनो, जहां कुछ कर सकने का माद्दा हो तुममे।यही पंक्तियां गौतम को लग गईं। वह फिनाइल बेचने लगा। आज उसके पास एक छोटी सी दुकान है।मैंने पूछा- ईश्वर को याद करते हो?गौतम बोला- ईश्वर ही मेरे जीवन के केंद्र हैं। मैं रोज सुबह- शाम पूजा औऱ ध्यान करता हूं। ऊपर वाला मेरी रक्षा करता है।

Thursday, January 1, 2009

नए साल का नया संकल्प




विनय बिहारी सिंह


बहुत अच्छा लगता है जब कोई व्यक्ति नए साल में अपना कोई व्यसन छोड़ देने का संकल्प लेता है। व्यसन यानी सिगरेट, पान, चाय या ज्यादा तली- भुनी चीजें- जैसे समोसे वगैरह। कुछ लोग संकल्प लेते हैं कि मैं अनावश्यक बातों की चिंता नहीं करूंगा, जैसे कुछ लोगों की आदत होती है कि वे सोचते रहते हैं- अगर अमुक बात हो जाए तो मेरे लिए बड़ी मुश्किल होगी। जबकि देखा जाता है कि वैसी कोई बात ही नहीं हुई जिसकी वे आशंका कर रहे थे। यानी वे व्यर्थ में ही चिंता किए जा रहे थे। मनोचिकित्सकों ने भी कहा है कि फिजूल की चिंता करने वाले हमेशा भीतर ही भीतर डरे, घबराए या चिंतित रहते हैं और अनजाने में ही अपने मानसिक स्वास्थ्य को चौपट करके रखते हैं। तो नए साल में लोग यह संकल्प भी लेते हैं कि मैं अनावश्यक चिंताएं नहीं करूंगा। बुजुर्गों ने कहा ही है-

चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर।

मान लीजिए जर्दे वाला पान खाना छोड़ना है। किसी को इसकी लत है। तो यह नशा छोड़ना उसके लिए पहाड़ सिर पर उठाने जैसा लगता है। यह सोचना उसके लिए मुश्किल है कि पान के बगैर वह रहेगा कैसे? एक बार दृढ़ हो कर अच्छी बातों का संकल्प लेने और उसका पालन करने का मजा ही कुछ और है। अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से जब वह पान छोड़ ही देता है तो उसे लगता है- - हे भगवान, यह पान तो मेरा शत्रु ही था। इससे सारे दांत खराब हो रहे थे और घिस भी रहे थे। मुंह की कोमल झिल्ली नष्ट हो रही थी, वगैरह वगैरह। यानी जितना नशा करने में आनंद है उससे कई गुना ज्यादा हर नशे से दूर रहने में है। कोई भी व्यसन हमें बांधता है, हमें गुलाम बनाता है। क्यों न हम आज से इसी तरह का कोई संकल्प लें कि अपने भीतर से अमुक कमी को दूर करना है, अमुक व्यसन को छोड़ना है। यह संकल्प भी कि हर महीने कोई न कोई अच्छी आदत खुद में जोड़ते जाना है। इन सब बातों का अपना ही आनंद है।