विनय बिहारी सिंह
रामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्री म उच्च कोटि के संत थे। आप चौंक सकते हैं- श्री म कौन सा नाम है? दरअसल उनका नाम था- महेंद्रनाथ गुप्त। लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनका नाम प्रचारित हो। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे और वे चाहते थे कि लोग उनके गुरु के बारे में जानें, उनके बारे में नहीं। जब सबने कहा कि आखिरकार किताब के लेखक के तौर पर कोई नाम तो जाना चाहिए। तो उन्होंने अपना नाम रख लिया- म। लेकिन प्रकाशन प्रभारी को सिर्फ म अच्छा नहीं लगा इसलिए किताब के लेखक के नाम के पहले श्री लगा दिया गया- श्री म। लेकिन उन्हें प्यार व श्रद्धा से लोग मास्टर महाशय कहते थे। कलकत्ता के अमहर्स्ट स्ट्रीट में वे रहते थे। श्री म वैसे तो गणित के श्रेष्ठ अध्यापक थे और आजीविका के लिए उन्होंने रिटायर होने के बाद भी पढ़ाना जारी रखा लेकिन उनका ज्यादातर समय साधना में ही बीतता था। वे मां काली के अनन्य भक्त थे। परमहंस योगानंद जब बच्चे थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया। उन्हें लगा कि अब मां से भेंट तो नहीं हो सकेगी। लेकिन जगन्माता से तो भेंट हो सकती है। क्यों न श्री म या मास्टर महाशय से इसके लिए प्रार्थना की जाए। वे एक दिन मास्टर महाशय के घर पहुंचे औऱ उनसे प्रार्थना की कि क्या वे जगन्माता का दर्शन नहीं करा देंगे? काफी संकोच के बाद श्री म यानी मास्टर महाशय राजी हो गए। उसी दिन जब परमहंस योगानंद जी अपने घर की छत पर बने अपने ध्यान करने वाले छोटे से कमरे में ध्यानमग्न थे तो जगन्माता ने दर्शन दिए। तब रात के १० बजे थे। अचानक अद्भुत प्रकाश चमका और जगन्माता के दर्शन हुए। अपनी मशहूर पुस्तक योगी कथामृत में परमहंस योगानंद ने इस घटना का रोचक उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है- जगन्माता (शायद काली माता) अत्यंत सुंदर थीं। जगन्माता ने कहा- मेरे बेटे मैं तो तुम्हें हमेशा प्यार करती हूं और करती रहूंगी। अगले ही दिन वे सुबह- सुबह मास्टर महाशय के घर पहुंचे और उनसे पूछा- जगन्माता ने मेरे बारे में क्या कहा? मास्टर महाशय ने उनसे कहा- आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं छोटे सर। क्या जगन्माता ने आपके घर पर कल रात १० बजे आपको दर्शन नहीं दिया? आपसे बातें नहीं कीं? परमहंस योगानंद जी समझ गए कि मास्टर महाशय उच्च कोटि के संत हैं। मास्टर महाशय कोई भी बात कहते थे तो यह नहीं कहते थे कि यह उनका विचार है। वे हमेशा यही कहते थे कि- ऐसा मेरे गुरु ने कहा था। क्या अद्भुत भक्ति है। वे जब चाहे जगन्माता से बातें कर सकते थे। परमहंस योगानंद जी कई बार उनके साथ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में गए और वहां अलौकिक अनुभूतियां पाईं। मास्टर महाशय ने डूब कर रामकृष्ण वचनामृत लिखा है। इसका हिंदी में अनुवाद किया है हिंदी के मशहूर कवि- लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने। निराला जी ने खुद ही मां सरस्वती की जो वंदना लिखी है वह अत्यंत लोकप्रिय है- वर दे वीणा वादिनी, वर दे। मास्टर महाशय ने कुछ चमत्कार भी किए। जैसे एक बार वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के सामने परमहंस योगानंद की छाती पर हल्का सा थपथपाया और अचानक सभी आवाजें आनी बंद हो गईं। कारें, ट्राम और अन्य वाहन मानो बिना शब्द के चल रहे थे। परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि उन्हें चारो तरफ दिखाई देने लगा। यानी उनके सिर के पीछे क्या हो रहा है वह भी दिखाई देने लगा। उनके बाएं और दाएं भी। अद्भुत अनुभव था। परमहंस योगानंद के कुछ मित्र उनकी ओर देखते हुए गुजरे लेकिन ऐसे मानों उन्हें पहचानते न हों। परमहंस योगानंद जी को इस हालत में परम शांति का अनुभव हुआ था। परमहंस योगानंद ने बड़े होकर समूचे विश्व में योग का प्रचार किया। उन्होंने भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया और अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की। ये दोनों संस्थाएं आज भी चल रही हैं और यहां योग्य भक्तों को क्रिया योग की दीक्षा दी जाती है।