Wednesday, December 31, 2008

रामकृष्ण वचनामृत के लेखक- श्री म




विनय बिहारी सिंह

रामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्री म उच्च कोटि के संत थे। आप चौंक सकते हैं- श्री म कौन सा नाम है? दरअसल उनका नाम था- महेंद्रनाथ गुप्त। लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनका नाम प्रचारित हो। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे और वे चाहते थे कि लोग उनके गुरु के बारे में जानें, उनके बारे में नहीं। जब सबने कहा कि आखिरकार किताब के लेखक के तौर पर कोई नाम तो जाना चाहिए। तो उन्होंने अपना नाम रख लिया- म। लेकिन प्रकाशन प्रभारी को सिर्फ म अच्छा नहीं लगा इसलिए किताब के लेखक के नाम के पहले श्री लगा दिया गया- श्री म। लेकिन उन्हें प्यार व श्रद्धा से लोग मास्टर महाशय कहते थे। कलकत्ता के अमहर्स्ट स्ट्रीट में वे रहते थे। श्री म वैसे तो गणित के श्रेष्ठ अध्यापक थे और आजीविका के लिए उन्होंने रिटायर होने के बाद भी पढ़ाना जारी रखा लेकिन उनका ज्यादातर समय साधना में ही बीतता था। वे मां काली के अनन्य भक्त थे। परमहंस योगानंद जब बच्चे थे तभी उनकी मां का देहांत हो गया। उन्हें लगा कि अब मां से भेंट तो नहीं हो सकेगी। लेकिन जगन्माता से तो भेंट हो सकती है। क्यों न श्री म या मास्टर महाशय से इसके लिए प्रार्थना की जाए। वे एक दिन मास्टर महाशय के घर पहुंचे औऱ उनसे प्रार्थना की कि क्या वे जगन्माता का दर्शन नहीं करा देंगे? काफी संकोच के बाद श्री म यानी मास्टर महाशय राजी हो गए। उसी दिन जब परमहंस योगानंद जी अपने घर की छत पर बने अपने ध्यान करने वाले छोटे से कमरे में ध्यानमग्न थे तो जगन्माता ने दर्शन दिए। तब रात के १० बजे थे। अचानक अद्भुत प्रकाश चमका और जगन्माता के दर्शन हुए। अपनी मशहूर पुस्तक योगी कथामृत में परमहंस योगानंद ने इस घटना का रोचक उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है- जगन्माता (शायद काली माता) अत्यंत सुंदर थीं। जगन्माता ने कहा- मेरे बेटे मैं तो तुम्हें हमेशा प्यार करती हूं और करती रहूंगी। अगले ही दिन वे सुबह- सुबह मास्टर महाशय के घर पहुंचे और उनसे पूछा- जगन्माता ने मेरे बारे में क्या कहा? मास्टर महाशय ने उनसे कहा- आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं छोटे सर। क्या जगन्माता ने आपके घर पर कल रात १० बजे आपको दर्शन नहीं दिया? आपसे बातें नहीं कीं? परमहंस योगानंद जी समझ गए कि मास्टर महाशय उच्च कोटि के संत हैं। मास्टर महाशय कोई भी बात कहते थे तो यह नहीं कहते थे कि यह उनका विचार है। वे हमेशा यही कहते थे कि- ऐसा मेरे गुरु ने कहा था। क्या अद्भुत भक्ति है। वे जब चाहे जगन्माता से बातें कर सकते थे। परमहंस योगानंद जी कई बार उनके साथ दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में गए और वहां अलौकिक अनुभूतियां पाईं। मास्टर महाशय ने डूब कर रामकृष्ण वचनामृत लिखा है। इसका हिंदी में अनुवाद किया है हिंदी के मशहूर कवि- लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने। निराला जी ने खुद ही मां सरस्वती की जो वंदना लिखी है वह अत्यंत लोकप्रिय है- वर दे वीणा वादिनी, वर दे। मास्टर महाशय ने कुछ चमत्कार भी किए। जैसे एक बार वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के सामने परमहंस योगानंद की छाती पर हल्का सा थपथपाया और अचानक सभी आवाजें आनी बंद हो गईं। कारें, ट्राम और अन्य वाहन मानो बिना शब्द के चल रहे थे। परमहंस योगानंद जी ने लिखा है कि उन्हें चारो तरफ दिखाई देने लगा। यानी उनके सिर के पीछे क्या हो रहा है वह भी दिखाई देने लगा। उनके बाएं और दाएं भी। अद्भुत अनुभव था। परमहंस योगानंद के कुछ मित्र उनकी ओर देखते हुए गुजरे लेकिन ऐसे मानों उन्हें पहचानते न हों। परमहंस योगानंद जी को इस हालत में परम शांति का अनुभव हुआ था। परमहंस योगानंद ने बड़े होकर समूचे विश्व में योग का प्रचार किया। उन्होंने भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया और अमेरिका में सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना की। ये दोनों संस्थाएं आज भी चल रही हैं और यहां योग्य भक्तों को क्रिया योग की दीक्षा दी जाती है।

Tuesday, December 30, 2008

ये संत- महात्मा करते क्या हैं?




विनय बिहारी सिंह


कई मित्रों ने सवाल किया है कि संत- महात्मा करते क्या हैं? वे समाज का भला तो करते नहीं? आज इसी पर विचार किया जाए। लेकिन यहां उन कथित बाबाओं, संतों वगैरह की बात नहीं हो रही जो धर्म या आध्यात्म को धन और ख्याति के बाजार में उतरने की सीढ़ी मानते हैं। उनकी संख्या आज बहुत ज्यादा हो चली है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि धर्म, अध्यात्म या संसार के सभी धर्म ग्रंथ व्यर्थ हैं। आज भी इन धर्म ग्रंथों की प्रासंगिकता है। यहां उनकी बात हो रही है जो परमार्थ के लिए संत हैं या बीते समय में रहे हैं।


-वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीर।


परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर।।


(वृक्ष कभी अपना फल नहीं खाता, न ही नदी अपना जल संचित करती है। साधु परमार्थ के कारण ही शरीर धारण करता है)।


इससे तो साफ हो गया कि साधु- संतों का काम क्या है। आध्यात्म तो विग्यान है (तकनीकी कारणों से ग्य ऐसे ही लिख पा रहा हूं)। हमारे दिमाग में १०० बिलियन न्यूरांस होती हैं। जब हम नींद में होते हैं इनमें से ज्यादातर सुषुप्ता अवस्था में होती हैं। लेकिन ज्योंही हम जग जाते हैं, ये सक्रिय हो जाती हैं। जागते ही हमारा दिमाग चारो तरफ दौड़ने लगता है। सच्चे साधु- संतों ने हमें सिखाया है कि दिमाग को कैसे शांत रख सकते हैं। आइंस्टाइन ने हमें बताया था- इनर्जी इज इक्वल टू मैटर। यानी पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है। इसी तरह ऊर्जा को भी पदार्थ में बदला जा सकता है। फिर आइंस्टाइन ने ही कहा- अगर किसी ऊर्जा को माइनस २७३ डिग्री सेल्सियस तक ले जाया जाए तो वह जिरो इनर्जी यानी ऊर्जा विहीन की स्थिति होगी। इसे ही हम टोटल केल्विन स्टेट कहते हैं। ध्यान या मेडिटेशन के जरिए, हम इसी टोटल केल्विन स्टेट तक पहुंचते हैं। तब हमारा मन एकाग्रचित्त हो जाता है। संत- महात्मा हमें इसी टोटल केल्विन स्टेट तक पहुंचने का वैग्यानिक तरीका बताते थे। इससे क्या फायदा होता है? इसे बताने की जरूरत है क्या? मन जब शांत रहेगा तो हमारा दिमाग ज्यादा रचनात्मक होगा। झगड़ा- फसाद औऱ तनाव से मुक्त होने का तरीका साधु- संत पैसा लेकर नहीं बताते थे। वे तो इसे मुफ्त में बांटते थे। व्यक्ति से ही तो समाज, देश औऱ दुनिया बनती है।

Monday, December 29, 2008

गंध बाबा



विनय बिहारी सिंह


गंध बाबा के नाम से प्रसिद्ध विशुद्धानंद परमहंस सूर्य विग्यान के प्रवर्तक माने जाते हैं। वे तत्काल कोई भी गंध पैदा कर सकते थे। गुलाब, चमेली, केवड़ा और ऐसे ही अनंत फूलों का गंध पैदा करने में उन्हें एक सेकेंड लगता था। वे सिर्फ गंध ही नहीं, फल, मिठाई या कुछ भी हवा से पैदा कर देते थे। लेकिन ठहरिए। हवा से नहीं, सूर्य की किरणों से पैदा करते थे क्योंकि सूर्य विग्यान में वे पारंगत थे। तो फिर रात को सूर्य की किरणें कहां रहती हैं? उनका कहना था सूर्य की किरणों का प्रभाव रात में भी रहता ही है। सूर्य विग्यान, चंद्र विग्यान, नक्षत्र विग्यान, वायु विग्यान और शब्द विग्यान पर उनकी पुस्तकें आज भी मिल सकती हैं। वे एक वस्तु को दूसरे में बदलने में माहिर थे। यानी आपके सामने अगर एक गिलास रखा है तो उसे वे बड़े मेज में बदल सकते थे। गंध बाबा यानी विशुद्धानंद सरस्वती १८वीं शताब्दी में पैदा हुए और उनका निधन १९३७ में हुआ था। यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि उनकी जन्मतिथि कैसे पता चलेगी? जैसा कि अनेक संतों के साथ यह रहस्य है, गंध बाबा की प्रामाणिक जन्म तिथि कहीं उपलब्ध नहीं है। उनके एक प्रसिद्ध भक्त गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि एक बार वे सिद्धियों के बारे में उन्हें (गोपीनाथ कविराज को) समझा रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने अपनी तर्जनी उंगली को इतना लंबा और मोटा कर दिया कि वे अवाक् रह गए। गोपीनाथ कविराज काफी दिनों तक वाराणसी में रहे औऱ बाद में वे कोलकाता के पास मध्यमग्राम नामक इलाके में बस गए औऱ अंतिम समय तक वहीं रहे। वे गंध बाबा के बहुत करीबी शिष्य थे और उच्च कोटि के साधक थे। उन्होंने भी विस्तार से अपने गुरु के बारे में लिखा है। गंध बाबा का कहना था कि मान लीजिए कपूर बनाना है। तो सूर्य की श्वेत रश्मियों के ऊपर क म त र शब्द स्थापित कर देने से कपूर तत्काल आपके सामने हाजिर हो जाएगा। लेकिन कपूर में तो म या त शब्द है ही नहीं? इस पर वे मुस्करा देते थे। यानी यह रहस्य है। बहरहाल गंध बाबा कहते थे कि यह सब चमत्कार ईश्वर की शक्तियों का मामूली अंश है। कोई भी यह चमत्कार कर सकता है, बशर्ते कि उसमें एकाग्रता और अत्यंत गहरी आस्था हो।

Friday, December 26, 2008

संत नामदेव



विनय बिहारी सिंह


संत नामदेव अपने समय के विलक्षण संत थे। उनका जन्म तो महाराष्ट्र के सतारा जिले के गांव नारस वामनी में हुआ था। लेकिन उनके जन्म के बाद ही उनके माता- पिता सोलापुर जिले के पंढरपुर में बसने चले गए। पिता दर्जी का काम करते थे। पंढरपुर में ही भगवान का एक मंदिर था- जिसे विट्ठल या विठोवा कहा जाता था। जब नामदेव पांच साल के थे तो उनकी मां ने कुछ प्रसाद चढ़ाने के लिए दिया और कहा कि वे इसे विठोवा को चढ़ा दें। नामदेव सीधे मंदिर में गए और विठोवा को प्रसाद चढ़ा कर कहा कि इसे खाओ। लोगों ने कहा- यह मूर्ति है। खाएगी कैसे? लेकिन नामदेव मानने को तैयार नहीं थे कि विठोवा उनका प्रसाद नहीं खाएंगे। बच्चे की जिद मान कर सब अपने- अपने घर चले गए। मंदिर में कोई नहीं था। नामदेव धाराधार रोए जा रहे थे और कह रहे थे- विठोवा या तो यह प्रसाद खाओ नहीं तो मैं यहीं, इसी मंदिर में जान दे दूंगा। दिल को चीर देने वाली बच्चे की कारुणिक पुकार सुन कर विठोवा पिघल गए। वे हाड़- मांस के जीवित व्यक्ति के रूप में प्रकट हुए और विठोवा का प्रसाद खाया। नामदेव को भी खिलाया। नामदेव तो विठोवा के दीवाने हो गए। दिन- रात विठोवा, विठोवा या विट्ठल, विट्ठल की रट लगाए रहते थे। धीरे- धीरे स्थिति यह हो गई कि नामदेव की हर सांस विठोवा के नाम से चलने लगी। नामदेव ने कई चमत्कार भी किए। लेकिन मजा यह था कि नामदेव को यह मालूम नहीं था कि वे चमत्कार कर सकते हैं। एक व्यक्ति का एक पैर बिल्कुल खराब था। उसे विठोवा मंदिर की सीढियां चढ़ने में बहुत कष्ट होता था। नामदेव ने उसके खराब पैर को थोड़ी देर के लिए सहलाया औऱ उस व्यक्ति के पैरों में ताकत आ गई। वह व्यक्ति तो नामदेव के पैरों पर ही गिर पड़ा। नामदेव चकित थे, बोलेम- एसा क्यों कर रहे हो मित्र? वह बोला- भगवन आपने मेरे ऊपर असीम कृपा कर दी। नामदेव भोले ढंग से बोले- मेरी क्या ताकत है मित्र? सब विठोवा करते हैं। बहाना किसी को बना देते हैं। जो तुम हो वही मैं हूं।

Thursday, December 25, 2008

पहले परमात्मा को चाहो, चीजों को नहीं- जीसस क्राइस्ट



विनय बिहारी सिंह


जीसस क्राइस्ट परमात्मा के अवतार थे। उन्होंने कहा- सीक ये द गॉड, आल थिंग्स विल बी एडेड अन टू यू। यानी सबसे पहले परमात्मा को चाहो। उसे पाओ। बाकी सारी चीजें तुम्हारे पास खुद ब खुद दौड़ी चली आएंगी। वह चीजें भी जिनकी हमें जरूरत है और हमें इसका भान तक नहीं है। परमात्मा सर्वग्य हैं। वे सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान भी हैं। आज क्रिसमस के दिन जीसस क्राइस्ट को सभी एक बार याद करते हैं क्योंकि वे करुणा, क्षमा, दया, प्यार और बेसहारों के सहारा हैं। परमहंस योगानंद ने जीसस क्राइस्ट पर बहुत खूबसूरत पंक्तियां लिखी हैं-क्लाउड कलर जीसस कमओ माई क्लाउड कलर जीसस कमओ माई क्राइस्ट, ओ माई क्राइस्टओ माई क्राइस्ट, ओ माई क्राइस्टजीसस क्राइस्ट कम।क्लाउड कलर जीसस कम।। कई चित्र ऐसे भी हैं जिनमें भगवान कृष्ण और जीसस क्राइस्ट हाथ में हाथ मिला कर चल रहे हैं। दरअसल गीता और बाइबिल की कई बातें एक जैसी हैं। कोलकाता में क्या हिंदू और क्या ईसाई सभी क्रिसमस को उत्सव के रूप में मनाते हैं। जीसस क्राइस्ट ने कहा- मैं ईश्वर का पुत्र हूं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा- तुम भी ईश्वर के पुत्र हो। उन्होंने कहा- मनुष्य को भगवान ने अपने रूप में बनाया है। परमहंस योगानंद ने जीसस क्राइस्ट के बारे में बहुत लिखा है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है- सेकेंड कमिंग आफ क्राइस्ट। यह पुस्तक जीसस क्राइस्ट के दर्शन और उनकी महानता को स्पष्ट तरीके से सामने लाती है। भारत सर्व धर्म समभाव वाला देश है। हमारा देश मानता है कि इस पृथ्वी पर जितने भी संत- महात्मा हुए हैं, उन्होंने अपने समय में मनुष्य का बड़ा उपकार किया है। मनुष्य को उनका आभारी होना चाहिए। जीसस क्राइस्ट ने मनुष्य को करुणा, प्रेम, दया और सहानुभूति का जो पाठ पढ़ाया, वह अद्भुत है। आज समूचे विश्व में क्रिसमस धूमधाम से मनाया जाता है। भगवान कृष्ण की तरह जीसस क्राइस्ट की असीम करुणा और दया के सागर हैं। वे मनुष्य ही नहीं सभी जीवों पर कृपा करें, यही हमारी प्रार्थना है।

Wednesday, December 24, 2008

भगवान श्रीकृष्ण का कर्मयोग संदेश




विनय बिहारी सिंह

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्मयोग की श्रेष्ठ व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य का पालन तो करना ही चाहिए। अकर्मण्य नहीं रहना चाहिए। लेकिन कर्तव्य करते हुए कर्ता भाव नहीं रहना चाहिए। यानी यह काम मैं कर रहा हूं, यह सोच नहीं होनी चाहिए। मेरी रोजी- रोटी का काम ईश्वर चला रहे हैं। जो मैं भोजन कर रहा हूं, उसे ईश्वर दे रहे हैं। जो मैं सांस ले रहा हूं, वह भी ईश्वर की कृपा से ही संभव है। इस तरह खाते, सोते, जागते, काम करते हुए और यहां तक कि फूलों को देखते हुए भी ईश्वर का आभार जताना चाहिए। हर सुंदर कार्य में ईश्वर को शामिल करते हुए आपका जीवन भी सुंदर हो जाएगा, यही भगवान का संदेश है। भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है कि फल की आशा न करो। यानी जब हम अच्छा काम करेंगे तो उसका फल तो अच्छा होगा ही। उसकी उम्मीद करने से बेहतर है अगला काम और बेहतर हो। इस तरह हमारा जीवन बेहतर से बेहतरीन होता जाएगा। फल की उम्मीद में ठिठकना नहीं है। काम करते जाना है। कई संत तो यह भी कहते हैं कि भगवान से अहेतुक प्रेम होना चाहिए। यानी आप प्यार करें या न करें, मैं आपके बिना एक पल भी नहीं रह सकता। मैं आपको प्यार करता हूं। बस, भगवान तो ऐसे भक्तों के वश में आ जाते हैं। लेकिन जहां उनसे मांगने लगेंगे- यह दो, वह दो तो वहां निस्वार्थ प्रेम गायब हो गया। अरे भगवान तो अंतर्यामी हैं। क्या वे नहीं जानते कि मेंरे भक्त को क्या चाहिए? वे जानते हैं। उनसे मांगना क्या है। और अगर वे नहीं भी देते हैं तो न दें। हमें तो उनका प्यार चाहिए। मैं उन्हें प्यार करता हूं क्योंकि वे हमारे पिता हैं, माता हैं, सखा हैं, सबकुछ तो वही हैं- त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव। लेकिन भगवान निष्ठुर नहीं हैं। वे गीता के १८वें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं- सर्व धर्मान परित्यज्ये, मा मेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(सभी धर्मों को छोड़, मेरी शरण में आ जाओ अर्जुन। मैं तुम्हें सभी पापों (अन्याय के खिलाफ युद्ध के संदर्भ में) से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो।)वे तो करुणा सागर हैं। उनकी शरण में जाने से परम शांति और स्थिरता आ जाती है।

Tuesday, December 23, 2008

ईश्वर का पुत्र


ईसाई धर्म में जीससका क्या स्थान है, इससे हर कोई भलीभांति परिचित है। लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि जीससको केवल इसलिए सूली पर चढा दिया गया था, क्योंकि वे खुद को ईश्वर का पुत्र मानते थे।
दरअसल, रोमन साम्राज्य के अंतर्गत आता था जीससका देश जूडिया।रोमन गवर्नर पांटियसपायलट की एक पागल व निर्दोष व्यक्ति को सूली पर चढाने में कोई रुचि नहीं थी। एक ऐसा आदमी, जो दावा करता था कि मैं ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूं।
दरअसल, उसे अधिकतर लोग पागल ही मानते थे। लेकिन वह किसी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचा सकता था। पांटियसपायलट ने माना कि जीससनिर्दोष हैं और उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। यदि उन्हें इस विचार से आनंद मिलता है कि वह ईश्वर का एकमात्र पुत्र है, तो उन्हें ऐसा सोचने देना चाहिए।
वास्तव में, यदि आपके मन में ईष्र्या के भाव पैदा हो रहे हैं, तभी दूसरे प्रकार के विचार आ सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति सोचे कि मैं ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूं, तो उस व्यक्ति के प्रति विरोध प्रकट करने का सवाल ही नहीं उठता है! क्योंकि किसी भी व्यक्ति के पास इस बात का कोई ठोस प्रमाण ही नहीं है कि वह ईश्वर का पुत्र है या नहीं! व्यक्ति न केवल ईश्वर का पिता हो सकता है, बल्कि वह ईश्वर का पुत्र और भाई भी हो सकता है। यह व्यक्ति मात्र की कल्पना हो सकती है। यदि आप किसी व्यक्ति से मिलते हैं और वह आपसे कहता है कि वह ईश्वर का पुत्र है, तो क्या आप यह सोचते हैं कि उस व्यक्ति को सूली पर चढा देना चाहिए?
संभव है कि आप यह सोचें कि सामने वाला व्यक्ति अपनी राह से भटक गया है। लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि उसे सूली पर चढा दिया जाए। सच तो यह है कि उस व्यक्ति को आनंद मनाने का पूरा अधिकार है। अब यदि दूसरे शब्दों में कहें, तो आपको उस व्यक्ति का उत्साह और बढाना चाहिए, क्योंकि ईश्वर को पाना बहुत कठिन है और आपने ईश्वर के रूप में पिता को पा लिया है। यह संभव है कि वह आपको ईश्वर के ठिकाने का कोई संकेत बता दे।
जीससने किसी व्यक्ति को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था। एक शहर से दूसरे शहर में जाकर यह कहना कि मैं ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूं, यह कोई अपराध नहीं है। लेकिन यह यहूदियों के स्वाभिमान के लिए खतरनाक था, क्योंकि एक गरीब इनसान उनसे कह रहा था कि वह ईश्वर का पुत्र है! अन्यथा यह एक निर्दोष मामला था, उस बेचारे पर तनिक भी क्रोध प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं थी! आपको स्वच्छ और बोझ-रहित होना होगा, क्योंकि आप शिखर को छूने जा रहे हैं। ये सारे बोझ आपकी प्रगति को बाधित कर देंगे। आप सत्य को जानने जा रहे हैं, इसलिए सत्य के संबंध में किसी धारणा को मत ढोएं, क्योंकि यही धारणा आपके और सत्य के बीच में अवरोध बन जाएगी। -[ओशो]

Monday, December 22, 2008

सारे महत्वपूर्ण विभाग माताओं के पास



विनय बिहारी सिंह
सभी जानते हैं कि मां सरस्वती विद्या की देवी हैं। वे मातृ शक्ति हैं। देखा जाए तो सारे महत्वपूर्ण विभाग मातृ शक्ति के पास हैं। रक्षा, विदेश औऱ गृह मंत्रालय विभाग मां दुर्गा और काली के पास है, शिक्षा विभाग- मां सरस्वती के पास औऱ फाइनेंस या वित्त मां लक्ष्मी के पास हैं। ये माताएं शक्ति स्वरूपा हैं। कहा जाता है शक्ति के बिना कुछ नहीं। सच तो है। बिना शक्ति के हम अपने मुंह में खाना तक नहीं डाल सकते। हमारे पूरे शरीर की देखभाल माताएं ही करती हैं। तब हम क्यों न मां की अराधना करें। कहा भी गया है- या देवी सर्वभूतेसु, शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। मां सरस्वती शिक्षा की देवी हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पढ़े- लिखें नहीं और सिर्फ सरस्वती की पूजा करें। नहीं। सरस्वती की पूजा करने का अर्थ है- गहन अध्ययन, मनन और अपने विषय में पटु होना। पढ़ने, गुनने से ही मां सरस्वती खुश होती हैं। शिक्षा के जितने भी अंग हैं- कला, संगीत, तकनीक और अन्य शिक्षाएं उसकी जनक मां सरस्वती ही हैं। हमारा सौभाग्य है कि शिक्षा विभाग, रक्षा विभाग और वित्त विभाग माता के पास है।

Friday, December 19, 2008

चैतन्य देव क्यों हैं महाप्रभु?

विनय बिहारी सिंह

कुछ लोग सवाल करते हैं कि प्रभु तो ठीक है लेकिन चैतन्य देव को चैतन्य महाप्रभु क्यों कहा जाता है? है न रोचक सवाल? लेकिन इसका जवाब भी उतना ही रोचक है। चैतन्य देव को गौरांग महाप्रभु, चैतन्य महाप्रभु और यहां तक कि संक्षेप में महाप्रभु भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल में आपको अनेक दुकानें दिख जाएंगी, जिनका नाम महाप्रभु स्वीट्स या महाप्रभु स्टोर आदि है। ठीक वैसे ही जैसे- रामकृष्ण स्टोर या रामकृष्ण स्वीट्स आदि। तो चैतन्य देव महाप्रभु क्यों हैं? भगवान कहते हैं कि भक्त हमारे, हम भक्तन के। कहीं- कहीं उन्होंने यह भी कहा है कि भक्त हमसे भी बड़ा है। अगर प्रभु इतने बड़े हैं तो उनका अनन्य भक्त महाप्रभु होगा ही। लेकिन सभी भक्त महाप्रभु नहीं हो सकते। जो अनन्य भक्त होगा। यानी जो प्रभु के अलावा और कुछ सोच ही नहीं सकता। सोते, उठते, बैठते, स्नान करते, काम करते यानी हर क्षण, ईश्वर में ही रमा रहने वाला भक्त महाप्रभु हो सकता है।
एक बार चैतन्य महाप्रभु हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे गाते हुए चले जा रहे थे। रा्स्ते में एक धोबी अपनी पत्नी के साथ तालाब में कपड़े धो रहा था। चैतन्य महाप्रभु ने कहा- मेरे साथ कीर्तन करो। धोबी अनिच्छा से हरे राम हरे राम गाने लगा। देखते देखते वह इतना भाव विभोर हो गया कि उसके हाथ से कपड़ा छूट गया। उसकी पत्नी अवाक हो गई। बोली- यह क्या पागलपन है? चैतन्य महाप्रभु ने धोबी की पत्नी से भी कहा- तुम भी मेरे साथ कीर्तन करो। उसने कीर्तन करने से इंकार कर दिया। चैतन्य महाप्रभु ने कहा- एक बार, सिर्फ एक बार गाओ। अचानक धोबी की पत्नी भी कीर्तन करने लगी- हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे। उसके हाथ से भी कपड़ा छूट गया। धीरे- धीरे सारा गांव चैतन्य महाप्रभु के साथ कीर्तन करने लगा। ऐसा था प्रभाव चैतन्य महाप्रभु का। इसीलिए तो वे महाप्रभु हैं।

Thursday, December 18, 2008

पातंजलि योग सूत्र बार- बार पढ़ने योग्य

विनय बिहारी सिंह

पातंजलि योग सूत्र अद्भुत पुस्तक है। गीता प्रेस ने इसे प्रकाशित किया है। इसमें बताया गया है कि अष्टांग योग क्या है। अष्टांग योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। यम यानी क्या नहीं करना चाहिए। नियम यानी क्या करना चाहिए। आसन यानी कैसे बैठना चाहिए। प्राणायाम यानी श्वांस कैसे नियंत्रित करें। धारणा यानी ईश्वर की छवि मन में कैसे अंकित करें। ध्यान - ईश्वर पर आप लगातार ध्यान केंद्रित करें। समाधि- यह अंतिम स्थिति है। तब मन का ईश्वर में लय हो जाता है। यह तो संक्षेप में है। विस्तार से यह पातंजलि योग सूत्र में मिलेगा।
ध्यान- यानी ईश्वर पर लगातार ध्यान लगाना। सामान्य व्यक्ति का ध्यान लगातार ईश्वर पर नहीं लगता। लेकिन धीरे- धीरे अभ्यास से यह निरंतर भगवान में लीन हो जाता है। तब मन ईश्वर के अलावा और कहीं जाता ही नहीं। खाते, पीते, सोते, काम करते और यहां तक कि चलते- फिरते मन ईश्वर में ही लगा रहेगा। यह है मन का ईश्वर में लय होना। इसके लिए परमहंस योगानंद ने कई वैग्यानिक तकनीक बताए हैं जिसे ऋषि- मुनियों ने प्राचीन काल में विकसित किया है। परमहंस योगानंद की पुस्तक- योगी कथामृत में इसका विस्तार से वर्णन है। योगी कथामृत दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित हो चुकी है।

Wednesday, December 17, 2008

संत रैदास के बारे में कुछ नए तथ्य

विनय बिहारी सिंह

संत रैदास अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे। वे जब ध्यान में बैठते थे तो उन्हें होश नहीं रहता था कि कितने पहर रात बीत गई। कई बार तो वे सुबह तक ध्यानमग्न बैठे रहते थे और अगले दिन फिर अपने रोजमर्रा के कामों में जुट जाते थे। उनके चेहरे पर कोई थकान नहीं रहती थी। उल्टे उनका चेहरा तरोताजा और खूबसूरत दिखता था। संन्यासिनी मीरा बाई ने उन्हें यूं ही अपना गुरु नहीं बनाया था।
संत रैदास का भजन-
प्रभु जी तुम चंदन, हम पानी
बहुत ही प्रसिद्ध है और आज भी भक्त इसे सुन कर भाव विभोर हो जाते हैं। संत रैदास वैसे तो जूता- चप्पल सीने का काम करते थे, और उनकी स्कूली शिक्षा- दीक्षा कम ही हुई थी लेकिन उनका गयान बहुत गहरा था और बड़े बड़े विद्वान उनकी बातें सुनने के लिए लालायित रहते थे। उनका ग्यान किताबी नहीं, अनुभवजन्य था। संत रैदास से मिलने वालों में लगभग सभी समकाली विद्वान शामिल थे।
एक बार वे काफी थके थे। रात को वे खा- पीकर रात को ध्यान करने जा रहे थे तभी उनके यहां एक साधु आए और भोजन की इच्छा जताई। घर में एक दाना अनाज नहीं था। पड़ोस में मांगने गए लेकिन वहां भी अनाज नहीं था। तब वे रात को बनिए के घर गए। उसकी दुकान खुलवाई और उधार अनाज ले आए। दुकानदार रैदास की अहमियत जानता था। वह उनके चमत्कारों को देख चुका था। घर अनाज आया, खाना बना। अतिथि ने खाया और तब तक आधी रात बीत गई थी। लेकिन फिर भी संत रैदास ध्यान में बैठे और पूरी रात ध्यान करते रहे। थकान की उन्होंने परवाह नहीं की। ध्यान में प्रभु मिलन से ज्यादा सुख और ही क्या सकता है?

Tuesday, December 16, 2008

कबीर दास के बारे में कुछ नए तथ्य

विनय बिहारी सिंह

कबीर दास २४ घंटे ईश्वर के साथ रहते थे। जब वे कपड़े बुनते थे तब भी। बाजार जाते थे, तब भी। कैसे? वे हर काम ईश्वर को सौंप देते थे। यह साधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। साधारण व्यक्ति हर क्षण ईश्वर चिंतन नहीं करता। कई बुरे विचार भी उसके दिमाग में आ जाते हैं। बुरे विचार ईश्वर को कोई कैसे सौंप सकता है? कोई सच्चा साधक ही हर काम ईश्वर के अधीन मान कर, खुद को ईश्वर का एक यंत्र मान कर भक्ति में मग्न रह सकता है। कबीर दास ने अपने मन को साध लिया था। वे कपड़े बिकने का हिसाब लगा रहे होते थे तो भी कहते थे- उसकी (ईश्वर की) कृपा से आज इतनी बिक्री हुई। जो आमदनी होती थी उसी संतोष कर लेते थे और जो साधु संत अतिथि के रूप में आते थे उनका सत्कार भी करते थे। लेकिन इसके लिए वे जम कर मेहनत करते थे। ज्यादा से ज्यादा कपड़े तैयार करते थे। हर वक्त भजन गाते रहते थे। वही भजन आज हम साखी, सबद और रमैनी के रूप में पढ़ रहे हैं। उनके शिष्य उसे नोट कर लेते थे और सुरक्षित रख लेते थे।
बाद के दिनों में कबीर दास ने कपड़े बुनना लगभग छोड़ ही दिया था। वे दिन रात भजन कीर्तन में लगे रहते थे। साधु सेवा, सत्संग या एकांत में बैठ कर ध्यान। अंतिम समय में वे मगहर चले गए। लोगों की मान्यता थी कि काशी में प्राण त्यागने पर स्वर्ग मिलता है। वे बहुत दिनों तक काशी में रहे। लेकिन जब उन्हें लगा कि उनका शरीर छोड़ने का समय आ गया है तो वे मगहर चले गए। वहां उनकी समाधि आज भी है।
लेकिन हाल ही में एक और तथ्य सामने आया है। मगहर में जब उनके शिष्यों में झगड़ा हुआ कि उन्हें दफनाया जाए या हिंदू रीति से जलाया जाए तो एक शिष्य ने अचानक उनका कफन उठा कर देखा कि कबीर दास का शव है ही नहीं। उसके बदले फूल ही फूल हैं। उसी का बंटवारा कर दिया गया। आधे को दफनाया गया और आधे को हिंदू रीति से जलाया गया। उसी दिन कबीर दास जी को मध्यप्रदेश में एक जंगल के किनारे नर्मदा स्नान करते हुए कई लोगों ने देखा। यह भी मान्यता है कि कई वर्षों तक वहीं वे अपनी साधना करते रहे। आज भी नर्मदा के किनारे कबीर दास जी की समाधि है।

Monday, December 15, 2008

तैलंग स्वामी के बारे में कुछ नए तथ्य

विनय बिहारी सिंह

तैलंग स्वामी के बारे में कुछ नए तथ्य जानकर बड़ी खुशी हुई। उन्होंने लगभग ४० साल की साधना की। तब जाकर वे अमरनाथ से लौट कर इलाहाबाद होते हुए वाराणसी में आए। वे अंत तक वहीं रहे। उनकी उम्र कितनी थी, यह किसी को नहीं मालूम। कई लोग ३०० साल बताते हैं तो कई ५०० साल तक।
उनके पास कोई थोड़ी देर के लिए भी बैठता था तो उसका मन शांति और आनंद से भर जाता था। ऐसे तपस्वी दुर्लभ होते हैं। वे पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट और कभी कभी मणिकर्णिका घाट पर रहते थे। उन्होंने असाध्य रोगों से पीड़ित अनंत लोगों को स्वस्थ किया। लेकिन कभी भी स्वस्थ कर देने का श्रेय खुद को नहीं देते थे। एक बार एक दुबला पतला व्यक्ति बीमार पड़ा। वह तैलंग स्वामी जी की कृपा से स्वस्थ तो हो गया लेकिन उसका शरीर हड्डियों का ढांचा रह गया। उसने कई टानिक वगैरह पीए। कुछ नहीं हुआ। वह फिर तैलंग स्वामी की शरण में गया। उन्होंने कहा- रोज एक गिलास दूध पीया करो। उसने कहा- मैं तो रोज पीता हूं। वे बोले- नहीं, ऐसे नहीं, यह भभूत लो। इसे दूध में मिला कर पीया करो। उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। महीने भर में उसके चेहरे पर लाली आ गई। उसके शरीर पर मांस आ गया और वह खेल कूद प्रतियोगिता में अव्वल आया। तैलंग स्वामी की कृपा के प्रति उसने आभार जताया तो वे बोले- मेरी नहीं, सब ईश्वर की कृपा है। वही स्वस्थ रखता है, और हम अपनी करतूतों के कारण बीमार होते हैं। बीमारी हम लाते हैं। ईश्वर तो हमें स्वस्थ रखता है।

Friday, December 12, 2008

क्या है ऊं तत् सत्

विनय बिहारी सिंह

ऋषियों और संतों ने कहा है कि ऊं शब्द ब्रह्म है। और वही सत्य है। बाकी सब असत है। ऋषि पातंजलि ने कहा है कि जिसने ऊं से संपर्क कर लिया उसने ईश्वर से संपर्क कर लिया। ईश्वर ही सत्य है। ऊं अनादि, अनंत और नित्य है। हम सो जाते हैं लेकिन ऊं सर्वत्र, हर समय, हर वस्तु में व्याप्त और स्पंदित होता रहता है। तब हम इस स्पंदन को महसूस क्यों नहीं कर पाते? इसलिए कि यह ध्वनि अत्यंत सूक्ष्म है। लेकिन अगर आप शांत, स्थिर मन और ठीक से धारणा करें तो साफ- साफ सुनाई पड़ सकती है। निरंतर। जैसे कभी न रुकने वाली तेल की धार हो। इसकी नकल नहीं की जा सकती। मुंह से निकाला गया ऊं असली ऊं की नकल नहीं है। यह एक आभास मात्र है।
यही ऊं ईश्वर की क्रियाशील शक्ति है। ईश्वर सक्रिय है। इसलिए वह शक्ति है। कुछ संतों का कहना है कि ईश्वर जब निष्क्रिय होते हैं तो वे शिव हैं, लेकिन जब सक्रिय होते हैं तो वे शक्ति हैं- दुर्गा हैं, काली हैं या माता पार्वती हैं। उनसे कैसे संपर्क किया जा सकता है? शांत और ध्यानस्थ हो कर। निरंतर प्रार्थना करते हुए। प्रार्थना में काफी शक्ति है। सच्चे दिल से गहरे और निरंतर प्रार्थना ऊं तत सत तक पहुंचा देती है। हरि ऊं तत् सत्।

Wednesday, December 10, 2008

भगवान निराकार हैं या साकार?

विनय बिहारी सिंह

कई बार लोग तर्क करते हैं कि भगवान निराकार हैं या साकार? ऐसे विवाद का कोई अर्थ नहीं है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं- मैं साकार और निराकार दोनो हूं। चूंकि निराकार भगवान पर ध्यान केंद्रित करना साकार मनुष्य के लिए मुश्किल है, इसलिए साकार भगवान को ही इष्ट मानना उचित है। श्रीमद् भागवत में लिखा है कि भगवान के किस रूप पर ध्यान केंद्रित किया जाए। कहा है- भगवान श्रीकृष्ण के चतुर्भुज रूप का ध्यान करना चाहिए। भगवान के बाईं ओर वाले दोनों हाथों में से एक में शंख और एक में पद्म (कमल) है। दोनों दाईं ओर वाले हाथों में से एक में चक्र और गदा है। गले में वनमाला और कौस्तुभ मणि है। चेहरा अत्यंत मृदु और आंखें ध्यान करने वाले पर कृपा बरसा रही हैं। भगवान ध्यान करने वाले की तरफ देख कर कृपा से मुस्करा रहे हैं और भक्त की तरफ शांति और आनंद की तरंगें प्रेषित कर रहे हैं। उनकी कृपा भक्त के चारो तरफ बरस रही है। यह ध्यान करते करते कल्पना कीजिए कि आप भगवान में ही घुल रहे हैं। आप और भगवान एक ही हैं।
इसका अर्थ हुआ कि पहले भगवान को साकार रूप में ग्रहण कीजिए। धीरे धीरे आप स्वयं निराकार में पहुंच जाएंगे। क्योंकि साकार रूप सीमा के अंदर है। लेकिन निराकार रूप असीम है। अनंत है। इसीलिए भगवान साकार और निराकार दोनों हैं।

Tuesday, December 9, 2008

तैलंग स्वामी

विनय बिहारी सिंह

तैलंग स्वामी ने कितने वर्ष इस पृथ्वी पर बिताने के बाद अपना शरीर छोड़ा, यह रहस्य ही है। कुछ विशेषग्यों का कहना है कि वाराणसी में जब उन्होंने शरीर छोडा़ तो उस समय उनकी आयु करीब ३०० वर्ष थी। लेकिन कुछ उनकी आयु ५०० वर्ष भी बताते हैं। बहरहाल, तैलंग स्वामी की आयु जानना हमारा लक्ष्य नहीं है। तैलंग स्वामी ने इस दुनिया को जो अद्भुत शिक्षा दी, वह है- अनावश्यक चीजों की तरफ ध्यान न देकर, लगातार ईश्वर में ही मन लगाना। वे प्रवचन या भाषण नहीं देते थे। वे जीवन के ज्यादातर वर्षों में चुप ही रहे। बोले भी तो बहुत कम। लेकिन अपनी दिनचर्या, आचार, व्यवहार या साइलेंट वाइब्रेशन (मौन) से ईश्वरीय तरंगें सारी दुनिया में फैलाते रहते थे। ़
वे नंगा रहा करते थे। शरीर पर कोई वस्त्र नहीं। एक बार वाराणसी में एक अंग्रेज पुलिस वाले ने उन्हें नंगा देख कर उन्हें जेल भिजवा दिया। शाम को देखा गया कि तैलंग स्वामी के कमरे का ताला तो बंद है लेकिन वे जेल की छत पर आराम से टहल रहे हैं। बार- बार उन्हें जेल में बंद किया गया लेकिन हर बार वे अपनी दिव्य शक्ति से जेल से बाहर निकल आते। हार कर प्रशासन ने उन्हें मुक्त कर दिया।
तैलंग स्वामी कभी कुछ खाते नहीं थे। लेकिन अगर कोई भक्त प्रेम से उन्हें कुछ देता था तो वे खाते जरूर थे। कभी कभी वे कई किलो मिठाई खा जाते थे। उनके भक्त कहते थे- मिठाई वे नहीं खाते हैं, कोई और खाता है। एक दुष्ट व्यक्ति ने तैलंग स्वामी की परीक्षा लेने के लिए ताजे चूने के घोल को दही बता कर तैलंग स्वामी से खाने का अनुरोध किया। यह चूने का घोल भी बड़े से ड्रम में था। तैलंग स्वामी मुस्कराते हुए सारा घोल खा गए। सामान्य व्यक्ति अगर इतना घोल खाता तो उसकी मृत्यु निश्चित थी, लेकिन तैलंग स्वामी डकार लेते हुए मुस्करा रहे थे। थोड़ी ही देर में जिस व्यक्ति ने उन्हें चूने का घोल दिया था, उसके पेट में भयानक दर्द हुआ। वह दर्द के मारे चीखने, चिल्लाने और जमीन पर लोटने लगा। वह तैलंग स्वामी से अपने जीवन की भीख मांगने लगा। तब जाकर तैलंग स्वामी ने उस पर कृपा की। वह स्वस्थ हो गया। लेकिन फिर कभी किसी साधु पुरुष के साथ उसने कोई घातक मजाक नहीं किया।
तैलंग स्वामी बाबा विश्वनाथ या शंकर भगवान के मनुष्य अवतार कहे जाते थे। वे अत्यंत कृपालु थे। कोई सच्चा भक्त अगर उनसे पवित्र हृदय से कुछ मांगता था तो उसे वे दे भी देते थे। लेकिन उनका आशीर्वाद मूक होता था। उनका शरीर अत्यंत विशाल था। पेट लगभग पीपे की तरह लंबा चौड़ा था। लेकिन भोजन उनके लिए आवश्यक नहीं था।
जगत का कल्याण हो, लोग सात्विक जीवन जीएं, ईश्वर की भक्ति करें, यही तो कोई भी संत चाहता है।

Monday, December 8, 2008

ईश्वर अर्थात शांति और प्रेम

विनय बिहारी सिंह

परमहंस योगानंद ने कहा है कि ध्यान करते समय ईश्वर को शांति, प्रेम या आनंद में से किसी रूप में अनुभव कीजिए। लेकिन इसमें से किसी एक विचार पर ही केंद्रित रहिए। धीरे- धीरे आप उसी रूप में घुल मिल जाएंगे। उन्होंने कहा है- सात्विक मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिरूप है। अगर आप भीतर से निर्मल हैं तो सब कुछ निर्मल ही दिखेगा। यह निर्मलता आए कैसे? ईश्वर के प्रति समर्पण से। ईश्वर के प्रति समर्पण कैसे हो? ईश्वर भक्ति से। भक्ति कैसे आएगी? ईश्वर से प्रेम करने पर। लेकिन आप पूछ सकते हैं- यह प्रेम कैसे पैदा हो? इसका उत्तर यह है कि यह पैदा करना पड़ेगा। कबीर दास ने कहा है- प्रेम न खेतो नीपजे, प्रेम न हाट बिकाय। प्रेम न खेत में पैदा किया जा सकता है और न इसे बाजार में खरीदा जा सकता है। इसे तो खुद के भीतर पैदा करना होगा।
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि अपनी पत्नी, बच्चे या मां- बाप के लिए संसार के लोग कितना रोते हैं। लेकिन ईश्वर के लिए कोई नहीं रोता। जबकि हमारी सांस तक ईश्वर की ही कृपा से चलती है। ईश्वर से डर कर नहीं, अपना प्रियतम जान कर प्रेम करना होगा। भगवान हमारे हैं। वे हमारे मां, पिता, मित्र और भाई सबकुछ हैं। वे हमारे रक्षक हैं, करुणासागर हैं, कृपासिंधु हैं, सर्वग्याता हैं और सर्वशक्तिमान हैं।

Friday, December 5, 2008

ईश्वर से मिला देते हैं हनुमान जी



विनय बिहारी सिंह
महाकवि तुलसी दास ने भक्ति के अद्वितीय देवता हनुमान जी के बारे में हनुमान चालीसा में लिखा है- राम दुआरे, तुम रखवारे होत न आग्या, बिनु पैसारे।। बिना हनुमान जी के आदेश के भगवान से भेंट नहीं होती। इसका अर्थ है- बिना चरम भक्ति के ईश्वर नहीं मिलते। चरम भक्ति कैसी हो? हनुमान जी जैसी। कथा है कि एक बार माता सीता यानी जानकी जी मांग में सिंदूर लगा रही थीं। हनुमान जी ने पूछा- मां, यह सिंदूर किसलिए? माता ने जवाब दिया- अपने पति की रक्षा के लिए। हनुमान जी ने तब पूरे शरीर में ही सिंदूर पोत लिया और कहा- यह भी भगवान राम के लिए है। किसी भी मंदिर मे जाएं हनुमान जी का रंग सिंदूरी ही होता है। एक और चित्र है- हनुमान जी अपना सीना चीर कर खड़े हैं- सीने के भीतर- राम, लक्ष्मण और माता जानकी हैं। यानी हनुमान जी के रोम रोम में, मन, बुद्धि और आत्मा में भगवान राम समाए हुए हैं। राम के बिना हनुमान जी हो ही नहीं सकते, रह ही नहीं सकते। भगवान तो कहते भी हैं- हम भक्तन के भक्त हमारे। हनुमान जी के बारे में तो भगवान राम ने कहा भी है- हनुमान, मुझमें और तुममें कोई अंतर नहीं है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- एक बार हनुमान जी ने भगवान से कहा- जब मैं सामान्य अवस्था में होता हूं तो अपने आपको आपके चरणों में पाता हूं। जब भावावस्था में होता हूं तो लगता है आप और मैं एक ही हैं। कई बार तो हनुमान जी भक्ति में इतने डूबे होते थे कि वे पेड़ पर बैठे होते थे और भगवान नीचे। हनुमान जी को कोई होश नहीं है कि वे अपने अराध्य के ऊपर बैठे हैं। वे तो राम से ओत- प्रोत हैं। उन्हें होश कहां है। उन्हें तो चारो तरफ राम ही राम दिखाई दे रहा है। कहां सेवक और कहां सेव्य। इसीलिए अगर हम भक्ति की बात करते हैं तो हनुमान जी की बात करनी ही पड़ेगी। हनुमान जी इसीलिए भगवान माने जाते हैं। वे भगवान हैं ही। क्योंकि वे भगवान राम उनमें हैं और वे भगवान राम में हैं। माता जानकी ने उन्हें - आठों सिद्धियां और नौ निधियां दी हैं। लेकिन हनुमान जी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सिद्धियां और निधियां उनकी दासी हैं। वे उधर ध्यान ही नहीं देते। और जो हनुमान जी की भक्ति करता है? वह तो परम सौभाग्यशाली है ही।

Thursday, December 4, 2008

दुर्गतिनाशिनी हैं मां दुर्गा


विनय बिहारी सिंह
मां दुर्गा के हाथों में जो विभिन्न शस्त्र हैं, वे उनके भक्तों को भी मिल जाते हैं। बशर्ते कि उनमें अटूट भक्ति हो। मां दुर्गा शेर पर सवार हैं। यह कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक है। कुंडलिनी शक्ति को अगर साधना के जरिए जगाया जाए तो वह नियंत्रित हो कर आग्या चक्र तक जाती है और फिर मनुष्य की चेतना सहस्रार का दर्शन पाती है और उसी में लीन होती है। यह कितने आनंद का विषय है, साधक ही इसकी व्याख्या कर सकता है। यह शक्ति ही मां दुर्गा की सवारी के रूप में देखी जा सकती है। कुछ दूसरे संत इसकी एक और तरह से व्याख्या करते हैं। उनका कहना है कि शेर सर्वाधिक शक्तिशाली जानवर है। मनुष्य के भीतर भी एक शक्तिशाली पशु है। अगर उसे पोषित किया गया तो मनु्ष्य के भीतर पशु वृत्तियों का प्राधान्य होगा। अगर पशु वृत्तियों पर नियंत्रण कर लें तो वे आपकी गुलाम हो जाएंगी। इंद्रिय, मन और बुद्धि अगर आपके नियंत्रण में हैं तो आप ईश्वर को प्रसन्न कर सकते हैं। मां दुर्गा तो स्वयं ईश्वर की अवतार हैं। इसलिए अपने भक्तों को पशु वृत्तियों पर लगाम कसने के लिए प्रेरित करने मकसद से वे शेर पर सवार हैं। वे तो सर्वशक्तिमान हैं, सर्व व्यापी हैं और सर्व ग्याता हैं। उनकी निरंतर स्तुति करने से हमारे कठिन से कठिन दुख दूर हो जाते हैं।

Wednesday, December 3, 2008

कृष्ण और काली कैसे एक हैं?








विनय बिहारी सिंह
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि कृष्ण और काली कैसे एक हैं? इसका प्रमाण क्या है? प्रमाण तो वे संत और सन्यासी हैं जो कृष्ण और काली के दर्शन कर चुके हैं। इनमें रामकृष्ण परमहंस और परमहंस योगानंद जैसे दिव्य संतों का नाम लिया जा सकता है। रामकृष्ण परमहंस तो गोपाल (कृष्ण) के साथ स्नान करते थे, उनके साथ खाते थे और बाल कृष्ण शरारत करते थे तो उन्हें मारते भी थे। बालकृष्ण मार खा कर रोते थे। फिर वे रामकृष्ण परमहंस से रूठ जाते थे। रामकृष्ण परमहंस तब रो कर उन्हें मनाते थे। गोपाल एक संत का सरल हृदय औऱ भक्ति देख कर पिघल जाते थे और फिर उनके साथ खेलने लगते थे। मां काली ने उन्हें कैसे दर्शन दिया, यह इन पंक्तियों के लेखक ने पहले ही एक लेख में विस्तार से बताया है। इसी तरह परमहंस योगानंद ने कृष्ण और जगन्माता के कैसे दर्शन किए यह उनकी पुस्तक योगी कथामृत (आटोबायोग्राफी आफ अ योगी) में है। भगवान कृष्ण के दो बाएं हाथों में शंख और पद्म (कमल का फूल) है तो मां काली के दाहिनी ओर के दोनों हाथ भक्तों को अभय दान और वरदान दे रहे हैं। भगवान कृष्ण के दोनों दाएं हाथों में चक्र और गदा है तो मां काली के दोनों बाएं हाथों में नरमुंड और खड्ग है। यानी दो हाथों में दुष्ट शक्तियों के संहार के साधन और दो हाथों में भक्तों की रक्षा और वरदान- यह मां काली और भगवान कृष्ण दोनों ही के चित्र संकेत करते हैं। मां काली का तीसरा नेत्र भी है। दोनों भौंहों के बीच में।यह दिव्य नेत्र है। भक्तों को भी यह दिव्य नेत्र उपलब्ध हो सकता है। अगर वे अपना हृदय और दिमाग मां काली को अर्पित कर दें। भगवान कृष्ण को तो योगेश्वर या महायोगी कहा ही गया है। जब वे अर्जुन को अपना दिव्य रूप दिखाते हैं तो उनकी असंख्य आंखें, असंख्य मुंह, असंख्य हाथ पैर और सारे अंग हैं। यानी वे अनंत हैं। मां काली भी अनंत हैं। दोनों ही एक हैं। एक प्रकृति हैं तो दूसरे पुरुष। और अगर गहरे जाएं तो प्रकृति और पुरुष भगवान ही हैं। वे ही प्रकृति हैं और वे ही पुरुष। तमाम संतों ने कहा है कि जो कृष्ण हैं, वही काली हैं।

Tuesday, December 2, 2008

क्या है जगन्माता का स्वरूप



विनय बिहारी सिंह
जगन्माता या काली माता या दुर्गा माता का स्वरूप क्या है? यह हमेशा से उत्सुकता का विषय रहा है। क्या उनका सिर्फ वही रूप है जिसे हम चित्रों में या मूर्तियों में देखते हैं? या कि इससे इतर भी कोई रूप है। जो रूप हम देखते हैं आखिर वह किसने बनवाया। काली के अनन्य भक्त रामप्रसाद या रामकृष्ण परमहंस को जगन्माता के दर्शन हुए थे। वे अपनी साधना के प्रारंभिक दिनों में मां, मां, मां कह कर लोटते रहते थे। एक दिन वे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में जगन्माता की मूर्ति के सामने रो कर दर्शन देने की प्रार्थना कर रहे थे। अचानक उन्होंने कहा- अगर दर्शन नहीं दोगी तो मैं तुम्हारे खड्ग से अपनी गरदन काट लूंगा। वे रोते हुए आगे बढ़े तभी उन्हें मां का दिव्य रूप दिखाई पड़ा। वह रूप कैसा था। दिव्य प्रकाश जिसके आलोक में रामकृष्ण परमहंस गहरी समाधि में चले गए। मां काली का रूप कैसा है? रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मां काली, काले रंग की थोड़ी ही हैं। वे काल की अधिकारिणी हैं, इसीलिए उनका नाम काली है। परमहंस योगानंद ने भी लिखा है-कौन कहता तू है कालीमेरी मां जगदंबेलाखों रवि, चंद्र तेरी काया से हैं चमकते।। मां काली के अनन्य भक्तों ने उनकी व्याख्या कैसी की है? मां के बाईं ओर वाले एक हाथ में खड्ग है जो बुरी प्रवृत्तियों के नाश के लिए है। दुष्टों के नाश के लिए है। बाईं ओर वाले ही दूसरे हाथ में कटा हुआ मुंड है। साधक कहते हैं कि यह मानव मस्तिष्क का प्रतीक है। जब तक अहंकार का नाश नहीं होगा, जगन्माता दर्शन नहीं देंगी। मां के दाहिनी ओर वाला ऊपरी हाथ अभय मुद्रा में है। यानी वे कहती हैं- मेरे भक्तों, तुम्हें किसी बात का डर नहीं है। निर्भय रहो। दाहिनी ओर का निचला हाथ आशीर्वाद दे रहा है। फलो- फूलो। लेकिन क्या मां सहज ही दर्शन दे देती हैं? नहीं। हम लोग अपनी पत्नी, बच्चों या करीबी लोगों के हित के लिए व्याकुल होते हैं, इसके कई गुना अगर मां के दर्शन की व्याकुलता हो तो वे तुरंत दर्शन देंगी। पहले जब बच्चा रोता है तो मां उसे खिलौने देकर बहला देती है और अपना काम करने लगती है। लेकिन जब बच्चा खिलौना नहीं, सिर्फ मां को चाहता है तो वह समझ जाती है कि बच्चे को अब फुसलाना मुश्किल है। तब वह दौड़े- दौड़े आती है। यानी उनके दर्शन के लिए चरम भक्ति, चरम व्याकुलता होनी चाहिए। यह नहीं कि मां की पूजा भी हो रही है और संसार का प्रपंच भी चल रहा है। तब तो वे मान लेंगी कि बच्चे को सिर्फ खिलौना ही चाहिए। खिलौने तो उनके पास अनंत हैं। लेकिन एक बार उन्हें प्रेम से पुकारने पर वे दौड़ कर आती हैं। लेकिन इसके लिए मां का सच्चा भक्त होना पड़ेगा। संपूर्ण समर्पण करना पड़ेगा। मेरी सब कुछ मां ही हैं, और कोई नहीं। यह धारणा जब आपके दिलो- दिमाग पर जड़ जमा लेगी और आप जब दिन रात व्याकुलता से मां- मां पुकारने लगेंगे तो वे आपको अपने गोद में बैठा लेंगी। कई साधक भगवान कृष्ण और काली को एक ही मानते हैं। कई लोगों के तो नाम भी कालीकृष्ण रखा जाता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- काली और कृष्ण एक ही हैं। आइए गीता का एक उद्धरण लें। अर्जुन जब भगवान श्रीकृष्ण से अपने दिव्य रूप दिखाने को कहते हैं तो भगवान उन्हें वह रूप दिखाते हैं। गीता के ११ वें अध्याय के ८ वें श्लोक में भगवान कहते हैं- न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम्।।( परंतु मुझको तू इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूं, उसी से तू मेरी ईश्वरी. योगशक्ति को देख।) यह वे उस अर्जुन को कहते हैं जिसे वे अपना ही रूप मानते हैं (देखें गीता का अध्याय १० का ३७ वां श्लोक जिसमें वे कहते हैं कि मैं पांडवों में धनंजय अर्थात तू हूं)। यानी अपनी जैसी विभूति को भी असली रूप दिखाने के लिए भगवान दिव्य आंख देते हैं। तो सामान्य आदमी कैसे असली रूप देख सकता है? लेकिन साधकों का कहना है कि चरम भक्ति ही वह दिव्य आंख है जिससे भक्त भगवान को देख सकता है। चूंकि अर्जुन उस समय शोक और दुविधाग्रस्त था, इसलिए उसे दिव्य की जरूरत पड़ी। वरना यह दिव्य आंख भगवान सहज ही अपने भक्त को दे देते हैं। मनुष्य के शरीर को क्षेत्र कहते हैं। एसा गीता के १३वें अध्याय में है। क्षेत्र के तहत पंच महाभूत- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का सूक्ष्म भाग, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति के अलावा दस इंद्रियां- कान, त्वचा, आंख, जीभ और नाक, वाक, हाथ, पैर, लिंग और गुदा। एक मन, पांच इंद्रियों के विषय- शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध तथा- इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, स्थूल देह, चेतना, धृति (यानी आपके मन ने क्या पकड़ रखा है) - इसी का नाम मनुष्य का शरीर है, जिसे क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र जितना निर्मल होगा, भक्ति उतनी ही दृढ़ होगी। अटल श्रद्धा, भक्ति और विश्वास से ही मां या जगन्माता के दर्शन होते हैं, ऐसा साधकों ने बताया है। दुर्गा माता का रूप भी विभिन्न दिव्य अस्त्र- शस्त्रों से लैस और शेर पर सवार दिखाया जाता है। ये शस्त्र सभी देवताओं ने असुर से लड़ने के लिए दिए थे। लेकिन साधकों का कहना है कि जगन्माता को कोई उधार दे ही क्या सकता है। वे तो स्वयं ब्रह्मांड की स्वामिनी हैं। उनके पास क्या नहीं है। जो अनंत ब्रह्मांडों को एक इशारे पर नचाती हैं, उन्हें किसी से कुछ भी उधार लेने की क्या जरूरत है। इसीलिए तो भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं- सर्व धर्म परित्यज्ये, मा मेकम शरणम ब्रज। अहम त्वा सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(हे अर्जुन, तुम सारे धर्मों को त्याग कर, सिर्फ मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सारे पापों यानी बंधनों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो।)
मां काली भगवान शंकर की छाती पर पैर रख कर अपनी जीभ बाहर किए हुए हैं। यह क्या है? साधक कहते हैं- भगवान शंकर दिव्य पुरुष के प्रतीक हैं और मां काली दिव्य शक्ति की प्रतीक। दिव्य पुरुष बिना दिव्य प्रकृति के उत्पत्ति, पोषण और विनाश का काम नहीं कर सकता। अन्य साधक कहते हैं- मां की जीभ मनुष्य के भीतर के षड्चक्रों को जगाने के लिए निकली है। षड्चक्र यानी- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आग्या चक्र और सहस्रार चक्र। मां अपनी जीभ से इन चक्रों को खोलती हैं।

Monday, December 1, 2008

स्वामी विवेकानंद


विनय बिहारी सिंह
स्वामी विवेकानंद ने सहज ही ईश्वर पर विश्वास नहीं कर लिया। उन्होंने इसके लिए अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से बहुत से सवाल किए। सबसे महत्वपूर्ण सवाल था- क्या आपने ईश्वर को देखा है? रामकृष्ण परमहंस का जवाब था- हां, मैंने ईश्वर को देखा है। ठीक उसी तरह, जैसे तुमको इतने नजदीक से देख रहा हूं। स्वामी विवेकानंद को उस दिन भरोसा हो गया। लेकिन जब वे ध्यान करते थे तो कुछ भी दिखाई नहीं देता था। कुछ भी ईश्वरीय तत्व समझ में नहीं आता था। यह बात स्वामी विवेकानंद (जिनका उस समय नाम था- नरेंद्र) ने अपने गुरु से कही। तब उनके गुरु ने कहा- जानते हो ध्यान कैसा होना चाहिए? जैसे- तेल की धार। लगातार। ध्यान क्या है? ध्यान है लगातार ईश्वर पर मन को केंद्रित करना। और कुछ भी न सोचना। अगर बीच बीच में मन इधर- उधर भटकता है तो उसे खींच कर वापस ईश्वर पर केंद्रित करना। फिर विवेकानंद ने वैसा ही करना शुरू किया। गुरु ने प्रसन्न होकर उन पर दिव्य शक्तिपात किया। स्वामी विवेकानंद को मां काली के दर्शन हुए। वे जो चाहते थे, मिल गया। क्योंकि उन्हें सच्चे गुरु मिल गए थे।