Wednesday, December 24, 2008

भगवान श्रीकृष्ण का कर्मयोग संदेश




विनय बिहारी सिंह

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्मयोग की श्रेष्ठ व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य का पालन तो करना ही चाहिए। अकर्मण्य नहीं रहना चाहिए। लेकिन कर्तव्य करते हुए कर्ता भाव नहीं रहना चाहिए। यानी यह काम मैं कर रहा हूं, यह सोच नहीं होनी चाहिए। मेरी रोजी- रोटी का काम ईश्वर चला रहे हैं। जो मैं भोजन कर रहा हूं, उसे ईश्वर दे रहे हैं। जो मैं सांस ले रहा हूं, वह भी ईश्वर की कृपा से ही संभव है। इस तरह खाते, सोते, जागते, काम करते हुए और यहां तक कि फूलों को देखते हुए भी ईश्वर का आभार जताना चाहिए। हर सुंदर कार्य में ईश्वर को शामिल करते हुए आपका जीवन भी सुंदर हो जाएगा, यही भगवान का संदेश है। भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है कि फल की आशा न करो। यानी जब हम अच्छा काम करेंगे तो उसका फल तो अच्छा होगा ही। उसकी उम्मीद करने से बेहतर है अगला काम और बेहतर हो। इस तरह हमारा जीवन बेहतर से बेहतरीन होता जाएगा। फल की उम्मीद में ठिठकना नहीं है। काम करते जाना है। कई संत तो यह भी कहते हैं कि भगवान से अहेतुक प्रेम होना चाहिए। यानी आप प्यार करें या न करें, मैं आपके बिना एक पल भी नहीं रह सकता। मैं आपको प्यार करता हूं। बस, भगवान तो ऐसे भक्तों के वश में आ जाते हैं। लेकिन जहां उनसे मांगने लगेंगे- यह दो, वह दो तो वहां निस्वार्थ प्रेम गायब हो गया। अरे भगवान तो अंतर्यामी हैं। क्या वे नहीं जानते कि मेंरे भक्त को क्या चाहिए? वे जानते हैं। उनसे मांगना क्या है। और अगर वे नहीं भी देते हैं तो न दें। हमें तो उनका प्यार चाहिए। मैं उन्हें प्यार करता हूं क्योंकि वे हमारे पिता हैं, माता हैं, सखा हैं, सबकुछ तो वही हैं- त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव। लेकिन भगवान निष्ठुर नहीं हैं। वे गीता के १८वें अध्याय में अर्जुन से कहते हैं- सर्व धर्मान परित्यज्ये, मा मेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(सभी धर्मों को छोड़, मेरी शरण में आ जाओ अर्जुन। मैं तुम्हें सभी पापों (अन्याय के खिलाफ युद्ध के संदर्भ में) से मुक्त कर दूंगा। शोक मत करो।)वे तो करुणा सागर हैं। उनकी शरण में जाने से परम शांति और स्थिरता आ जाती है।