Friday, October 31, 2008

निर्मल काया के धनी संत रविदास

अत्यंत सामान्य परिवार में माघी पूर्णिमा के दिन काशी के समीप जन्मे रैदासने अपने असामान्य चिंतन एवं कार्य से संत समाज में प्रतिष्ठा पाई। अपने श्रेष्ठ उदात्त कर्म और सात्विक मन की निर्मलता से रैदाससंत रविदास नाम से विख्यात हुए। एक बार अपने कार्य में व्यस्त रविदास ने गंगा स्नान पर जा रहे मित्रों से कहा था- मन चंगा तो कठौतीमें गंगा। तब से लेकर आज तक मन की शुद्धता के लिए संत रविदास का नाम आदृत है। इनके शिष्यों में अनेक उच्च परिवार के सदस्य आते हैं। उन्होंने मानवता की सेवा की। रविदास रामायण भक्तमाल,रैदासपुराण, रविदास की सत्यकथा,रविदास का सत्य स्वभाव और मठों पर आश्रित जनश्रुतियोंके आलोक में उनके प्रारंभिक जीवन का अध्ययन संभव है। रैदासकी आराधना से अनुप्राणित चित्तौडकी रानी उनकी शिष्या बन गयीं। संत रैदासने सामान्य जनता को ध्यान में रखकर सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र का नवनिर्माण किया। इनकी वाणी अन्य सन्तों की सहगामी बनकर समग्र साहित्य में अपनी पृथक उपादेयता रखती है। रैदासके समूचे चिंतन में एक विकल अनुभूति व्याप्त है। उनकी वाणी में परमसत्ता को पहचानने, सान्निध्य प्राप्त करने, उसको प्राप्त करने के प्रति विकलता की अनुभूति थी। परमसत्ता को विराट रूप मानते हैं।

पूरन ब्रह्म बसैसब ठाहीं,कह रैदासमिलैसुख साई। अपने इष्ट को संबोधित करने में रैदासने राम, गोविंद, विट्ठल, हरि, वासुदेव, प्रभु, विष्णु, केशव, कमलापति, भगवान, माधव, गोपाल, महेश, दामोदर, निरंजन, मुरारी, रघुनाथ, मुकुंद के अतिरिक्त कहीं-कहीं पर अनेक नामों का एक साथ प्रयोग किया है।

रामनाम को उन्होंने सर्वाधिक महत्व दिया। उनके आश्रय राम हैं। स्थूल माया का प्रतीक समूचा कुटुम्ब और सम्पूर्ण ही जगत माना है। सूक्ष्यमाया के अंगों के विषय में प्रभूत रूप में कहते हैं। रैदासकहते हैं, जब एक ही इंद्रिय के बस में रहने से हिरन,मछली, भ्रमर, पतंगा का विनाश होता है तो पांच विकार वाले मनुष्य का कल्याण तो और भी कठिन है। रैदासजीत्रिगुणात्मकताको कई स्थानों पर बाधक बताकर इसे तीन ताप का पर्याय कहते हैं-

झूठी माया जग डहकायातीन ताप दहैरे। वे मानव जीवन को दुर्लभ उपलब्धि बताते हैं। मानव जीवन एक हीरे की तरह है। परंतु उसका यदि उपयोग भौतिक सुखोंके अर्जित करने में किया जाए तो यह जीवन को विनष्ट करना ही होगा।

रैनि गंवाई सोय करि,दिवस गंवायोखाय। हीरा जनम अमोल है, कौडी बदले जाए। आडंबर में भ्रमित समाज के लिए रैदासने चेतावनी दी कि मृत्यु के बाद सारे कर्मो की जानकारी मांगी जाएगी। यमपुरका पथ पर्याप्त कठिन बताते हैं। सत्यकर्मकरने की प्रेरणा बार-बार देते हैं। रैदासजीव को ईश्वर से पृथक नहीं मानते हैं। उनका कथन है कि मेरे और तेरे में कोई अन्तर नहीं है। रैदासके व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता साधना का मूलमंत्र थी। रैदासआंतरिक साधना, भक्ति की आंतरिक भावुकतापर विशेष जोर देने के पक्षधर थे। वे कर्मकांड को निम्न कोटि का साधन मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यदि वे मानसिक भाव से सम्पृक्त नहीं हैं तो निरर्थक हैं। परंपरागत मूर्ति पूजा के वे अनुयायी न थे। संत का मानना था कि धर्म के सम्पूर्ण वाह्य आचरण के बावजूद यदि मनुष्य में सामान्यत:मानवीय गुणों का उत्कर्ष नहीं हुआ है तो उसका वह धर्माचरणव्यर्थ हो जाता है। वे कहते हैं कि साधक को वाह्य धर्म विषयक वाद-विवाद त्यागकर भगवान का स्मरण करना चाहिए। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि जन्म से नहीं व्यक्ति कर्म से महानता पाता है। गंगा की पावन पयस्विनी में सभी मार्गवर्तीजल आकर गंगाजल बनते हैं।

मंगल गुणों को विकसित करने का वे संदेश देते हैं। रैदासने सभी साधनों में भक्ति को श्रेष्ठ मानते हुए रक्षा का सहज उपाय कहा। मानवता के कल्याण के लिए जन्मे रैदासजी जनसामान्य को प्रभावित करते रहे। वे शाश्वत मूल्यों के संवाहक और महान विचारक संत थे।

डा. हरिप्रसाद दुबे