Friday, October 31, 2008

काशी के सचल विश्वनाथ श्रीतैलंग स्वामी

श्रीतैलंगस्वामी अध्यात्म जगत की ऐसी अतिविशिष्ट विभूति हैं, जिनकी तुलना किसी अन्य से कर पाना संभव नहीं लगता। ये एक परमसिद्धयोगी और जीवन्मुक्त पुरुष थे। इन महापुरुष का जन्म दक्षिण भारत के एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में सन् 1607ई. के जनवरी माह में पौष-शुक्ल-एकादशीके पावन दिन हुआ था। इनके पिता नृसिंहधरऔर माता विद्यावती देवी नि:संतान होने के कारण बहुत दु:खी व चिंतित रहते थे। पुत्र-प्राप्ति की कामना से उन दोनों ने गौरीशंकर की आराधना एवं ब्राह्मणों की सेवा बडी श्रद्धा से की। स्वामीजीका आविर्भाव इसी के फलस्वरूप हुआ। पिता ने नामकरण किया तैलंगधर। माता विद्यावती ने एक दिन शिवार्चन करते समय देखा कि शिवलिंगसे एक दिव्य ज्योति निकल कर उनके पुत्र में समाविष्ट हो गई। इससे प्रभावित होकर मां ने इनका नाम शिवराम रख दिया।

बचपन से ही इनमें सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य तथा अध्यात्म की ओर प्रवृत्ति थी। युवावस्था आते-आते भौतिकता से इनकी उदासीनता स्पष्ट दिखलाई पडने लगी। माता-पिता ने तैलंगधरको विवाह के बंधन में बांधना चाहा, लेकिन इन्होंने वैराग्य की अति तीव्र भावना के कारण इसकी सम्मति नहीं दी। तैलंगधरजब 40वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहावसान हो गया। वे अपनी माता की सेवा करते हुए ईश्वर के चिंतन में निमग्न हो गए। 52वर्ष की अवस्था में माताश्री का स्वर्गवास हो जाने पर ये सांसारिक दायित्वों से पूरी तरह मुक्त हो गए। जिस श्मशान में माता का दाह-संस्कार हुआ था, उसी निर्जन स्थान पर वे रहने लगे। उनके अनुज श्रीधर ने उन्हें घर वापस लाने का बहुत प्रयास किया किन्तु तैलंगधरन माने। तब श्रीधर ने अपने बडे भाई के लिए वहां एक कुटी बनवा दी। तैलंगधरने वहाँ 20वर्ष तक अत्यन्त कठोर साधना की। सन् 1679में इनकी भेंट स्वामी भगीरथानन्दसरस्वती नामक महायोगीसे हुई, जिनके साथ वे राजस्थान के सुप्रसिद्ध तीर्थ पुष्कर आ गए। वहीं पर भगीरथानन्दने सन् 1685ई.में इन्हें दीक्षा दी और इनका नाम गणपति स्वामी हो गया। 10वर्षो तक गुरु-शिष्य दोनों ने पुष्कर में एक साथ तप किया। सन् 1695ई. में गुरु के देह त्याग देने के दो वर्ष बाद वे तीर्थाटन के लिए निकल पडे। सन् 1697ई. में रामेश्वर की दर्शन-यात्रा में जब इन्होंने एक मृत ब्राह्मण को पुन:जीवित कर दिया तब लोगों ने पहली बार इनकी अलौकिक शक्ति का साक्षात्कार किया। वहाँ से कांजीवरम,कांचीपुरम,शिवकाशी,नासिक होकर सन् 1699ई. में वे सुदामापुरीपहुंचे। वहां इनकी सेवा में रत निर्धन-निपुत्र ब्राह्मण के धनवान-पुत्रवान हो जाने पर इनकी ख्याति चारों ओर फैल गई। दर्शनार्थियोंकी भीड के कारण साधना में विघ्न उपस्थित होता देखकर वे यहां से चल पडे। सन् 1701ई. में प्रभास क्षेत्र से द्वारकापुरीहोकर वे नेपाल पहुंच गए और वहां एक वन में योग-साधना करने लगे। नेपाल-नरेश इनका दर्शन करने आए और इनके भक्त बन गए। लोगों की भारी संख्या में एकत्रित होता देख वे यहां से भी प्रस्थान करके सन् 1707ई. में भीमरथीतीर्थ पहुंचे। वहां श्रृंगेरीमठ के स्वामी विद्यानन्दसरस्वती से इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली। भीमरथीसे उत्तराखंड जाते समय वे केदारनाथ, बदरिकाश्रम,गुप्तकाशी,त्रियोगीनारायणआदि स्थानों पर भी इन्होंने तपस्या की।

उनके जैसे सिद्ध पुरुष के लिए कहीं पहुंच जाना असंभव न था। उनकी गति पृथ्वी के अतिरिक्त जल और वायु में भी थी। वे इच्छामात्रसे किसी भी स्थान पर पहुंच सकने में समर्थ थे। सन् 1710ई. में स्वामीजीमानसरोवर चले गए और वहां वे दीर्घकाल तक साधनारतरहे। यहां एक विधवा की प्रार्थना पर उसके मृत पुत्र के शरीर को स्पर्श करके स्वामी जी ने उसे पुनर्जीवित कर दिया। सन् 1726ई. में स्वामी जी नर्मदा के तट पर स्थित मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में आकर रहने लगे। वहां के सुप्रसिद्ध संत खाकी बाबा और अन्य लोगों ने देखा कि स्वामी जी के द्वारा पूजन करते समय नर्मदा में दूध प्रवाहित होने लगता था। सन् 1733ई. में स्वामी जी तीर्थराज प्रयाग आ गए और वहां एकांत में साधनालीनहो गए। यहां उन्होंने यात्रियों से खचाखच भरी एक नाव को अपनी यौगिक शक्ति से गंगाजीमें डूबने से बचाया।

प्रयागराज में 4वर्ष रहने के उपरांत सन् 1737ई. में तैलंगस्वामीकाशी पधारे और यहीं 150वर्ष तक रहे। वाराणसी में स्वामीजीअस्सी घाट, हनुमान घाट और दशाश्वमेधघाट आदि स्थानों पर रहने के बाद सन् 1800ई. में पंचगंगाघाट पर आकर बिंदुमाधवजी के मंदिर में रहने लगे। वहीं पास में एक महाराष्ट्रीयनब्राह्मण मंगलदासभट्ट एक कोठी में रहते थे। वे नित्य गंगा-स्नान करके बाबा विश्वनाथ जी की पूजा करने के बाद ही घर लौटते थे। मंगलदासप्रतिदिन यह देखकर बडे आश्चर्यचकित होते थे, कि जो माला उन्होंने श्रीकाशीविश्वनाथको चढाई थी, वही स्वामीजीके गले में पडी हुई है। कई बार परीक्षा करने पर भट्टजीयह जान गए कि स्वामी जी साक्षात् शिव-स्वरूप हैं। वे अनुनय-विनय करके स्वामी जी को अपनी कोठी में ले आए। स्वामीजीसदा खुले आसमान के नीचे रहते थे अत:कोठी के आंगन में बेदीबनाकर उसपरउनके रहने की व्यवस्था की गई। कालांतर में यह स्थान तैलंगस्वामीके मठ के नाम से विख्यात हो गया। तैलंगस्वामीदिगम्बरावस्थामें रहते थे। एक स्त्री अपने पति के स्वस्थ होने की कामना से प्रतिदिन जब बाबा विश्वनाथ के दर्शन-पूजन हेतु जाती थी, तब वह रास्ते में स्वामी जी को देखकर अपशब्द कह देती थी। एक रात श्रीकाशीविश्वनाथने उससे स्वप्न में कहा- तुम उस स्वामी की अवहेलना और अपमान मत करो। वे ही तुम्हारे पति को ठीक करेंगे। स्वामी जी का वास्तविक परिचय प्राप्त होते ही उस स्त्री के मन में उनके प्रति श्रद्धा की भावना जाग उठी। तैलंगस्वामीके द्वारा प्रदत्त भस्म लगाने से उसका पति रोग-मुक्त हो गया। इस प्रकार स्वामीजीने न जाने कितने लोगों को रोग-शोक, कष्ट-संताप और संकटों से मुक्त करके नवजीवन प्रदान किया। वे अत्यन्त उदार और परोपकारी थे। एक बार उज्जैनके महाराजा जब काशी की गंगा में नौका-विहार कर रहे थे, तब उन्होंने स्वामीजीको गंगाजीपर आसन जमाए देखा। श्रीरामकृष्णपरमहंस ने जब उन्हें भीषण गर्मी में तपती रेत पर लेटे देखा, तो वे स्वयं खीर बनाकर लाए और स्वामीजीको उसका भोग लगाया। परमहंसदेवउनकी दिव्यता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तैलंगस्वामीको सचल विश्वनाथ का नाम दे दिया। एक अंग्रेज अफसर ने वस्त्रहीनरहने के कारण इन्हें हवालात में बंद कर दिया किन्तु दूसरे दिन सबेरे यह देखा गया कि हवालात का ताला तो बंद है लेकिन स्वामी जी हँसते हुए बाहर टहल रहे हैं। श्रीतैलंगस्वामीके चमत्कारों को देखकर लोग दंग रह जाते थे। भारतीय योग और अध्यात्म की पताका चारों तरफ लहरा कर सन् 1887ई. में 280वर्ष पृथ्वी पर लीला करने के उपरांत अपनी जन्मतिथि पौष-शुक्ल-एकादशीके दिन ही काशी के ये सचल विश्वनाथ ब्रह्मलीन हो गए और पीछे छोड गए अपने सद्गुणों और योग-शक्ति का प्रकाश, जो हमें आज भी ईश्वर और धर्म से जुडने की प्रेरणा दे रहा है।

डा. अतुल टण्डन