Monday, April 22, 2013

योगी कथामृत

परमहंस योगानंद जी की पुस्तक - आटोबायोग्राफी आफ अ योगी (हिंदी में अनूदित पुस्तक का नाम- योगी कथामृत ) सचमुच एक अद्भुत पुस्तक है। अपनी आत्मकथा के बहाने परमहंस जी ने विश्व के विशिष्ट साधु संतों के बारे में विस्तार से लिखा है। यह पुस्तक पढ़ते हुए आप उसमें इस तरह खो जाएंगे कि खाने- पीने और सोने की सुधि भी नहीं रहेगी। इसी पुस्तक में क्रिया योग के बारे में बताया गया है। जो लोग क्रिया योग के बारे में जानना चाहते हैं, उन्हें योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया का लेसन मेंबर बनना होता है। योगी कथामृत में परमहंस योगानंद ने इसके बारे में जितना बताया जा सकता है, बताया है। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना स्वयं परमहंस योगानंद जी ने सन १९१७ में की थी। तब से इस आध्यात्मिक संगठन ने लाखों लोगों को क्रिया दीक्षा दी है। क्रिया योग के बारे में विस्तार से नहीं लिखा जा सकता न ही बताया जा सकता है। इसे दीक्षा के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और गोपनीयता की शपथ दिलाई जाती है क्योंकि  प्राचीन काल से ही यह धार्मिक  निषेध चला आ रहा है जिसका पालन आवश्यक है। क्यों? इसका जवाब आपको तभी मिल जाएगा, जब आप दीक्षा लेंगे।

Friday, April 12, 2013

हम विकास कर रहे हैं या हमारे दिल छोटे हो रहे हैं?


 विनय बिहारी सिंह

 क्या रेलवे स्टेशन पर मर रहे किसी आदमी को बचाने वाला कोई नहीं है। हम किस समाज में रहते हैं? किस व्यवस्था के अंग हैं? यह कैसा लोकतंत्र है? कैसी संवेदनहीनता है? क्या इक्कीसवीं शताब्दी का यही प्राप्य है? ये कई सवाल मेरे जेहन में तब उभरे जब मैं एक आदमी को मरते हुए देख कर आया। हम विकास कर रहे हैं या हमारा विनाश हो रहा है? वहां रेलवे सुरक्षा बल के दो जवान खड़े थे। वे चुपचाप उस आदमी को मरते देख रहे थे। निर्विकार भाव से। रेल का भाड़ा बढ़ गया है। लेकिन सुविधाओं में क्या फर्क पड़ा? कहां हैं टेलीविजन पर बहस करने वाले देश की चिंता में कथित रूप से मरे जा रहे राजनीतिक नेता?

मैं १२ अप्रैल को दिन के एक बजे एक रिश्तेदार को कोलकाता स्थित सियालदह स्टेशन तक पहुंचाने गया था। जब उनकी ट्रेन १.२५ बजे रवाना हो गई तो मैं घर लौटने लगा। तभी देखा कि एक आदमी वही ट्रेन (सियालदह- बलिया एक्सप्रेस) पकड़ने आया था और अचानक उसकी तबियत खराब हो गई थी। वह बेहोश हो कर गिर पड़ा था। उसका कंबल, अन्य सामान वहीं पड़ा हुआ था। मुंह खुला था। किसी को ट्रेन पर चढ़ाने आए एक व्यक्ति ने अपने बोतल से मर रहे व्यक्ति के मुंह में पानी डाला। पानी अंदर चला गया लेकिन वह बेहोश ही रहा। उसकी आंखें अधखुली थीं। किसी ने एक व्यक्ति को भेजा- जाओ, स्टेशन मास्टर को यह खबर दे दो। वह आदमी स्टेशन मास्टर के पास गया। वहां से कोई नहीं आया। पास ही खड़े रेलवे सुरक्षा बल के दो जवान सिर्फ लोगों से कह रहे थे- गर्मी के कारण इस आदमी का यह हाल हुआ है। मर रहा आदमी मुंह को और ज्यादा खोल कर सांस लेना चाहता था लेकिन सांस नहीं ले पा रहा था। पता नहीं उसे क्या तकलीफ थी। पास ही नीलरतन मेडिकल कालेज व अस्पताल है, जो सरकारी है। स्टेशन से वहां ले जाने में मुश्किल से दस मिनट लगता। लेकिन किसी ने कोई पहल नहीं की। रेलवे स्टेशन पर मर रहे किसी व्यक्ति को बचाने के लिए रेलवे के पास कोई इंतजाम नहीं है। कोई रुचि नहीं है। कोई मर रहा है तो मरे। यह है हमारी व्यवस्था। हमारा तंत्र। इसे विकासशील देश कहते हैं। हमारे देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विकास का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है। लेकिन आम आदमी जानवर की तरह सबके सामने मर जाता है। उसे कोई नहीं पूछता।