Friday, April 12, 2013

हम विकास कर रहे हैं या हमारे दिल छोटे हो रहे हैं?


 विनय बिहारी सिंह

 क्या रेलवे स्टेशन पर मर रहे किसी आदमी को बचाने वाला कोई नहीं है। हम किस समाज में रहते हैं? किस व्यवस्था के अंग हैं? यह कैसा लोकतंत्र है? कैसी संवेदनहीनता है? क्या इक्कीसवीं शताब्दी का यही प्राप्य है? ये कई सवाल मेरे जेहन में तब उभरे जब मैं एक आदमी को मरते हुए देख कर आया। हम विकास कर रहे हैं या हमारा विनाश हो रहा है? वहां रेलवे सुरक्षा बल के दो जवान खड़े थे। वे चुपचाप उस आदमी को मरते देख रहे थे। निर्विकार भाव से। रेल का भाड़ा बढ़ गया है। लेकिन सुविधाओं में क्या फर्क पड़ा? कहां हैं टेलीविजन पर बहस करने वाले देश की चिंता में कथित रूप से मरे जा रहे राजनीतिक नेता?

मैं १२ अप्रैल को दिन के एक बजे एक रिश्तेदार को कोलकाता स्थित सियालदह स्टेशन तक पहुंचाने गया था। जब उनकी ट्रेन १.२५ बजे रवाना हो गई तो मैं घर लौटने लगा। तभी देखा कि एक आदमी वही ट्रेन (सियालदह- बलिया एक्सप्रेस) पकड़ने आया था और अचानक उसकी तबियत खराब हो गई थी। वह बेहोश हो कर गिर पड़ा था। उसका कंबल, अन्य सामान वहीं पड़ा हुआ था। मुंह खुला था। किसी को ट्रेन पर चढ़ाने आए एक व्यक्ति ने अपने बोतल से मर रहे व्यक्ति के मुंह में पानी डाला। पानी अंदर चला गया लेकिन वह बेहोश ही रहा। उसकी आंखें अधखुली थीं। किसी ने एक व्यक्ति को भेजा- जाओ, स्टेशन मास्टर को यह खबर दे दो। वह आदमी स्टेशन मास्टर के पास गया। वहां से कोई नहीं आया। पास ही खड़े रेलवे सुरक्षा बल के दो जवान सिर्फ लोगों से कह रहे थे- गर्मी के कारण इस आदमी का यह हाल हुआ है। मर रहा आदमी मुंह को और ज्यादा खोल कर सांस लेना चाहता था लेकिन सांस नहीं ले पा रहा था। पता नहीं उसे क्या तकलीफ थी। पास ही नीलरतन मेडिकल कालेज व अस्पताल है, जो सरकारी है। स्टेशन से वहां ले जाने में मुश्किल से दस मिनट लगता। लेकिन किसी ने कोई पहल नहीं की। रेलवे स्टेशन पर मर रहे किसी व्यक्ति को बचाने के लिए रेलवे के पास कोई इंतजाम नहीं है। कोई रुचि नहीं है। कोई मर रहा है तो मरे। यह है हमारी व्यवस्था। हमारा तंत्र। इसे विकासशील देश कहते हैं। हमारे देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विकास का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है। लेकिन आम आदमी जानवर की तरह सबके सामने मर जाता है। उसे कोई नहीं पूछता।


1 comment:

Rajesh Tripathi said...

प्रिय विनय भाई आपने उस संवेदनहीन समाज पर एक करारा तमाचा जड़ा है जो बेहद आत्मकेंद्रित और स्वर्थी हो गया है। अपनी दुनिया, अपने लोगों के अलावा उसकी दृष्टि और किसी पर नहीं जाती। उसकी आंख दूसरे के गम में नहीं रोती और न ही वह किसी की खुशी में हंसता है। ऐसा समाज अगर किसी मरते व्यक्ति को मरता छोड़ आगे बढ़ जाता है तो ताज्जुब नहीं इस पर घृणा होती है। अगर हमें ऐसा ही सभ्य समाज बनना था तो बेहतर होता हम असभ्य और आदिम ही बने रहते। जिस व्यक्ति ने उस दम तोड़ते व्यक्ति के मुंह में पानी डाला निश्चित ही उसकी मानविकता अभी पूरी तरह मरी नहीं होगी, या कि वह इतना सभ्य नहीं हुआ होगा कि अपना विवेक भी खो बैठे। आपने यह देखा और इस पर लिखा यह भी आपकी गहरी संवेदनशीलता और मानवीय दृष्टिकोण का परिचायक है वरना कुछ लोगों के लिए तो इस तरह की घटनाएं लिखने का विषय भी नहीं होतीं जो अक्सर घटती ही रहती हैं। इसी तरह समाज को झकझोरते, जगाते रहिए। वैसे भोगलिप्सा और पाश्चात्य रंग-ढंग में डूबे इस समाज को जगाना अब बहुत कठिन है लेकिन प्रयास तो होते ही रहने चाहिए।-राजेश त्रिपाठी