Monday, March 11, 2013

क्यों कम हो चले हैं परहित की सोचने वाले?



मित्रों, आज कोलकाता के धर्मतल्ला इलाके में डेकर्स लेन स्थित एक प्रसिद्ध चाय की दुकान पर गया। वहां चाय पी तो पाया कि कप छोटे साइज के हो गए हैं। चाय का जायका भी थोड़ा मद्धिम हो गया है। यानी महंगाई खाने- पीने की चीजों का स्तर लगातार गिरा रही है। आप कहेंगे,यह कोई नई बात नहीं है। हां। लेकिन इस पर गौर करना जरूरी है। यह कोई निराशावाद नहीं है। स्थिति का मूल्यांकन है। जो स्वादिष्ट और बड़े साइज की मिठाइयां हम अपेक्षाकृत कम कीमत पर खा चुके हैं,वे आज दुर्लभ लग रही हैं। हर जगह स्तर में गिरावट आई है। तो हम विकास कर रहे हैं या पीछे जा रहे हैं? भारत समेत सारी दुनिया में तो अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन साथ ही अपराध और धोखाधड़ी, भरोसे पर चोट भी बढ़ रही है। परहित या परसेवा करने वाले लोग और संस्थाएं तो हैं लेकिन आज कितने लोग आम आदमी के लिए तालाब खुदवाते हैं, स्कूल या कालेज खुलवाते हैं। स्कूल, कालेज और यहां तक कि विश्वविद्यालय भी प्राइवेट खुलने लगे हैं। अस्पताल तो अब प्राइवेट ही खुल रहे हैं। आम आदमी के हित की बात सोचने वाले कहां गए? हां, कुछ साधु- संत और उनकी संस्थाएं आज भी आम आदमी के लिए ईमानदारी से लगातार काम कर रही हैं। ऐसी संस्थाओं में एक है योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया? और भी संस्थाएं हैं। भारत सेवाश्रम संघ और रामकृष्ण मिशन भी है। और भी संस्थाएं हैं। लेकिन योगदा सत्संग (संस्थापक- परमहंस योगानंद) ने क्रिया योग इच्छुक साधकों को दे कर जो जनकल्याण कर रहा है, वह प्रणम्य है। यह संस्था जन सेवा भी लगातार कर रही है। 

मैं निराश नहीं हूं। सेवा करने वाले साधु और संस्थाएं ही युवा पीढ़ी में प्रेरणा भरने के लिए काफी है। काश राजनीतिक पार्टियों में भी देश के आम आदमी को खुशहाल करने की धुन सवार हो पाती।  युवा पीढ़ी में सुगबुगाहट है। आज की युवा पीढ़ी ही तस्वीर बदलेगी। क्या पता कल को कुछ चमत्कार हो और राजनीतिक पार्टियां-    परहित सरिस धर्म नहिं भाई    का मर्म समझने लगें।

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