Saturday, April 2, 2011

दैवी संपत्ति और आसुरी संपत्ति


विनय बिहारी सिंह


गीता में भगवान कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि दो तरह की संपदा होती है। एक दैवी संपदा। दैवी संपदा तब इकट्ठी होती है जब मनुष्य ईश्वरपरायण होता है। ध्यान, पूजा- पाठ, जप इत्यादि करता है। ईश्वरीय चर्चा कर या सुन कर आह्लादित होता है। सात्विक भोजन करता है। किसी के प्रति द्वेष, क्रोध या निंदा नहीं करता। वह जो भी अच्छे काम करता है, मानता है कि ईश्वर के लिए ही कर रहा है। हर काम करने के पहले ईश्वर का स्मरण करना उसके अभ्यास में शामिल होता है। वह न किसी को उद्वेग में लाता है न ही स्वयं ही उद्वेलित होता है। सर्वथा शांत और ईश्वर प्रेम में डूबा हुआ। दूसरी होती है आसुरी संपदा। आसुरी संपदा तब इकट्ठी होती है जब मनुष्य दिन- रात परनिंदा में जुटा रहता है। हमेशा हिंसा, ईर्ष्या, क्रोध और कुढ़न का शिकार होता है। भोजन भी वह अत्यंत गरिष्ठ, मांसाहार और कई बार बासी भी करता है और वह समझता है कि सबकुछ वही कर रहा है। वह जो चाहता है, कर लेगा।
भगवान कृष्ण ने कहा है कि भक्त दैवी संपदा का स्वामी होता जाता है। वह जानता है कि यह ब्रह्मांड ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर का प्रेमी है। ऐसा भक्त आजीन प्रार्थना, जप, ध्यान और पूजा- पाठ के जरिए इस दुख रूपी संसार से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के साथ आनंद मनाता है। मृत्यु के पहले ही। यानी इसी शरीर में रहते हुए वह ईश्वर से जुड़ जाता है। मृत्यु के बाद तो आनंद में रहता ही है।

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