Wednesday, October 28, 2009

प्रेम गली अति सांकरी

विनय बिहारी सिंह

हालांकि यह अद्भुत पंक्ति आपने कई बार पढ़ी होगी। लेकिन जितनी बार पढ़ते हैं, प्रेम का गहरा अर्थ और स्पष्ट होता जाता है। ईश्वर से प्रेम करना हो तो इसी अद्भुत स्थिति में आना पड़ेगा। ईश्वर व्यक्तिगत भी है और सार्वजनिक भी। जैसे जगन्माता मेरी या आपकी व्यक्तिगत माता भी हैं और पूरे जगत की भी माता हैं। क्या यह संभव है? जिन माताओं के छह बच्चे होते हैं। क्या वह उनमें से किसी को कम या ज्यादा प्यार करती है? नहीं। मां तो मां ही होती है। सबको एक जैसा प्यार। और बच्चे भी सिर्फ मां- मां रटते रहते हैं। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो क्या अद्भुत स्थिति है। क्या आनंद है। आइए पहले उन पंक्तियों की बात करें-
हरि है तो मैं नहीं, मैं हूं तो हरि नाहिं।प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय।।
यानी आप शरीर, इंद्रिय, मन या बुद्धि नहीं हैं। आप तो सच्चिदानंद आत्मा हैं। जिस दिन इस बात का भान हो गया, बस काम बन गया। तब हरि औऱ आप एक में मिल जाएंगे। क्योंकि मैं यानी अहंकार। अहंकार के रहते हरि मिलने वाले नहीं हैं। अहंकार तो हमारे और ईश्वर के सामने लोहे की मोटी दीवार खड़ी कर देता है। लेकिन ज्योंही आप अपने अहं को जला कर राख कर देते हैं, वह दीवार अपने आप पिघल जाती है औऱ ईश्वर आपको अपनी गोद में ले लेते हैं। आप सच्चिदानंद में रहने लगते हैं। तब न कोई तनाव है, न कोई चिंता है और न ही कोई कष्ट। दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से दूर आप हर क्षण आनंद में रहते हैं। लेकिन यह अहं दूर कैसे होगा? जब आप समझ जाएंगे कि आप अहं नहीं हैं। सब कुछ तो ईश्वर है। आप तो सिर्फ उसकी कठपुतली हैं। एक बार उससे संपर्क हो जाए तो बस काम बन गया। चाहे ईश्वर को माता के रूप में पा लीजिए चाहे पिता के रूप में, चाहे मित्र के रूप में पा लीजिए चाहे भाई के रूप में। जिस रूप में अराधना करेंगे, उसी रूप में वे आ जाएंगे। लेकिन प्रेम उत्कट होना चाहिए। उत्कट यानी ईश्वर के सिवा कुछ दिखाई ही न दे। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए या जैसे कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के लिए, जैसे कंजूस धन के लिए, जैसे पानी में डूबता आदमी सांस लेने के लिए और जैसे कोई माता अपने पुत्र के लिए तड़पती है, उससे सौ गुना तड़पन ईश्वर के लिए होनी चाहिए। यह कैसे होगा? जब आपको यह महसूस हो जाएगा कि ईश्वर के सिवा औऱ कुछ भी आनंददायक नहीं है। और यही सच है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- हमारा मनुष्य योनि में जन्म इसीलिए हुआ है कि हम ईश्वर को प्राप्त करें। लेकिन क्या अचंभा है कि हम ईश्वर को छोड़ देते हैं और उसके अलावा जितनी चीजें हैं, उन्हीं को पाने के लिए तड़पने लगते हैं। लेकिन अंत में मिलता क्या है? कुछ नहीं। इसलिए क्यों न ईश्वर से अपना संपर्क और गहरा बनाएं। वे तो अनंत हैं। आप उनसे संबंध बनाएंगे तो आप भी अनंत आनंद, अनंत सुख के अधिकारी हो जाएंगे।

2 comments:

SP Dubey said...

साधु, सधुवाद, धन्यवाद अति सुन्दर मनभाती पोस्ट, वैसे तो सभी पोस्ट आपकी पढता हूं, सभी एक से बढ कर एक होती है।

kulu said...

aapki post mujuha bahot aachi lagi. mai Iswere ko manta hao

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