Friday, September 30, 2011

Yogavatar Lahiri Mahashay


Vinay Bihari Singh



Today is the birth day of Yogavatar Lahiri Mahashay (Shyama Charan Lahiri) . In the year 1861 he recieved Kriya Yoga from his eternal Guru Mahavatar Baba ji. I bow to these great saints. Lahiri Mahashay has said- I am ever with those who practise Kriya (Yoga). I will guide you to the Cosmic Home through your ever enlarging spiritual perceptions.
When ever I remember this great saint, i always feel blessed. Once a lady deciple of Lahiri Mahashay wanted to meet his god like Guru. But she was in Calcutta and her Guru was in Banaras (Varanasi, Utter Pradesh). She hurried to reach Howrah sataion. time was very short. the moment she reached the railway station, train started to leave plateform. She prayed- Gurudev, I cannot wait for your Darshan. please do something. Immediately, the train stoped. The driver tried his best. But, he was failed. In the mean time, the guard of the train told this lady devotee, please go in to the train and take a seat, i will buy ticket for you. gUARD DID SO. THE MOMENT, THIS LADY DEVOTEE GOT THE TICKET AND SAT ON HER SEAT TRAIN STARTED TO MOVE. this was miracle.
when this holy lady, reached at her Guru's home, her Guru Lahiri Mahashay said- Why so hurry? You could have catch another train. But you liked to trouble me for stopping the train. the lady touched her Guru's holy feet. The Guru blessed her.
I always remember this miracle. Lahiri Mahashya did many miracles. but he always said- BANAT BANAT BAN JAYI. It means keep trying to contact God, you will be blessed by him in due time. keep on keeping on.
I bow to the holy feet of Lahiri Mahashay. Jai Param Guru.

Thursday, September 29, 2011

नवरात्रि की एक बार फिर चर्चा

विनय बिहारी सिंह



नवरात्रि के बारे में इस ब्लाग पर पिछले साल विस्तार से चर्चा हो चुकी है। आइए इस बार इसका एक और पक्ष लें। नवरात्रि के नौ दिन- तीन भागों में विभक्त होते हैं। पहले तीन दिन देवी दुर्गा, फिर तीन दिन देवी लक्ष्मी और आखिरी तीन दिन देवी सरस्वती की पूजा होती है। सभी जानते हैं कि मां दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी हैं। उन्होंने विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राक्षस को खत्म किया था। वे मनुष्य के भीतर बैठे महिषासुर का भी वध करती हैं। अगले तीन दिन मां लक्ष्मी की पूजा होती है। लक्ष्मी यानी धन। मनुष्य धन का बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय में लगे। अपने हित में भी लगे तो कुछ कल्याणकारी काम में भी लगे। पहले लोग धर्मशालाएं, तालाब, अस्पताल और अन्य अनेक लोकहित के काम करते थे। अब एक तबका ऐसी सेवा बेकार मानने लगा है। वह सिर्फ अपना हित साधना ही धर्म मान बैठा है। नतीजा यह है कि वह तमाम तरह के तनावों से गुजर रहा है। लेकिन फिर भी लोकहित में एक रुपया लगाने की उसकी इच्छा नहीं है। सारा धन खा कर बैठ जाओ। यह ईश्वर की कृपा का अनादर है। यदि अपनी कमाई का सिर्फ एक रुपया भी उचित जगह पर दान किया जाए तो अच्छा है। अल्प दान देने से भी धन बढ़ता है। हमारे यहां दान को भी धर्म कहा गया है।
अंतिम तीन दिन मां सरस्वती की पूजा की जाती है। मां सरस्वती, ग्यान की देवी हैं। ग्यान के बिना सबकुछ अधूरा है। ग्यान निरंतर बढ़ता रहता है। हमारे अनुभव और जो कुछ भी हम देखते- सुनते हैं वह हमारे ग्यान में शामिल होता जाता है। इस तरह नौ दिनों की नवरात्रि को मां रूपी ईश्वर या मां दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में मनाते हैं।
लेकिन यह पूजा सिर्फ मूर्ति पूजा नहीं है। मां दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के प्रतीकों को गहरे समझ कर ईश्वरोन्मुखी होना ही इसका उद्देश्य है। दुर्गापूजा का त्यौहार हमें और ज्यादा ईश्वर के करीब लाता है। उत्तर भारत में रावण का पुतला जलाया जाता है। इस दिन को विजयादशमी के रूप में मना कर लोग अपने भीतर के रावण को राम की कृपा से मार डालते हैं। यहां भी अच्छाई की बुराई पर जीत को ही रेखांकित किया जाता है।

Wednesday, September 28, 2011

प्राण यानी लाइफ फोर्स क्या है?


विनय बिहारी सिंह



हम सभी जानते हैं कि प्राण है तो हमारा जीवन है। प्राण नहीं तो शरीर मृत हो जाता है। यह प्राण मनुष्य के शरीर को संचालित करता है। प्राण पांच प्रकार के बताए गए हैं- १. प्राण (श्वांस लेना), २. अपान ( उत्सर्जन) ३. उदान (मेटाबोलिज्म, निगलने की शक्ति), ४. समान (पाचन) ५. व्यान (संचार, रक्त संचार आदि)। ये प्राण शरीर में ठीक से काम नहीं करते तो आदमी बीमार हो जाता है। प्रकृति के विरुद्ध काम करने से मनुष्य का शरीर विद्रोह करने लगता है। इसीलिए ऋषियों ने कहा है- आपका शरीर मंदिर है। इसमें हानिकारक पदार्थ न डालें। सिर्फ पवित्र और स्वास्थ्य वर्द्धक वस्तुओं का ही सेवन करें। जब प्राण चले जाते हैं तो व्यक्ति अपने सूक्ष्म शरीर में चला जाता है। ऋषियों ने कहा है कि प्राण चले जाने के बाद भी मनुष्य सूक्ष्म शरीर से देख सकता है, सुन सकता है, सूंघ सकता है, स्पर्श कर सकता है। उसे अब भोजन और श्वांस की आवश्यकता नहीं होती। यह बहुत ही दिलचस्प विषय है। मनुष्य अपने शरीर को इतना महत्वपूर्ण मानता है, लेकिन एक दिन वह भी उसका साथ छोड़ देता है। जो चीज हमेशा उसके साथ रहती है, वह है ईश्वर से संपर्क। यदि शरीर में रहते रहते मनुष्य ईश्वर से नजदीकी बना लेता है तो मृत्यु के बाद उसे ईश्वर की गोद, ईश्वर का साम्राज्य मिलता है। ऐसे योगी को जीवित रहते हुए ही प्रभु यह बता देते हैं कि उसके शरीर में प्राण रहें या नहीं वह सदा के लिए उनके साम्राज्य में आ गया है। इसी आनंद में सिद्ध पुरुष सदा रहते हैं। उनके मन में और कोई इच्छा नहीं रहती। वे ईश्वर के साम्राज्य में आनंद मग्न रहते हैं। और चाहिए भी क्या? ईश्वर ही मिल गए तो बाकी चीजें क्या होंगी? जब अनंत साम्राज्य मिल गया तो अंश के लिए क्या सोचना और चिंता करना?

Tuesday, September 27, 2011

भगवान बड़े या समस्या



विनय बिहारी सिंह



आमतौर पर जो लोग ध्यान करते हैं उनकी शिकायत रहती है कि ज्योंही वे आंख बंद कर ध्यान करने लगते हैं, दिमाग में तमाम तरह की अपनी समस्याएं आने लगती हैं। यह काम बाकी है तो वह काम बाकी है। बस पूरे समय यही सब चलता रहता है। जब बहुत देर हो जाती है तो आंखें खोलते हैं। तब पता चलता है कि पूरे समय तो उन्होंने समस्या पर ध्यान किया। भगवान तो एक क्षण भी याद नहीं आए। तब वे अफसोस करते हैं कि यह तो बड़ा गड़बड़ हो रहा है। क्या करें? संतों ने इसका बहुत अच्छा उपाय बताया है। उन्होंने कहा है- इस सृष्टि के मालिक भगवान हैं। हर काम का अपना समय होता है। जब आप खाना पका रहे होते हैं तो सिर्फ उसी पर ध्यान केंद्रित कीजिए। जब आप कोई कविता लिख रहे हैं तो पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित कीजिए। तो जब इस सृष्टि के मालिक भगवान हैं तो सबसे बड़े और शक्तिशाली वही हुए। तो जाहिर है उन्हीं के बारे में सोचना चाहिए। तब आप समस्या के बारे में कैसे सोचते हैं? आखिर जिस समस्या के बारे में आप सोच रहे हैं, उसे भगवान ही दूर कर सकते हैं। और आप बैठे हैं भगवान का ध्यान करने। तो उन्हीं के बारे में सोचिए। उन्हीं को श्रद्धा और भक्ति से याद कीजिए। उन्हीं से प्रार्थना कीजिए। समस्या पर बैठ कर जलेबी बनाने से तो कोई लाभ नहीं । हां, जब ध्यान खत्म हो जाए तब समस्या का समाधान करने के लिए कोई कदम उठाइए। लेकिन ध्यान में तो सिर्फ ध्यान ही करना चाहिए। खाना पकाते समय भोजन तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। लेकिन आप खाना पकाते हुए ध्यान विचलित करेंगे तो निश्चय ही भोजन उतना स्वादिष्ट नहीं बनेगा जितना बनना चाहिए। ध्यान का अर्थ है भगवान में पूरी तरह से लय। यह तभी होगा जब आपके दिमाग में भगवान व्याप्त हो जाएंगे। यह गहन भक्ति से ही संभव है।

Monday, September 26, 2011

क्रिया योग के पुनरुद्धार की १५०वीं वर्षगांठ


विनय बिहारी सिंह

the great Gurus

इस वर्ष श्री श्री परमहंस योगानंद द्वारा स्थापित संस्था योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया क्रिया योग के पुनरुद्धार की १५०वीं वर्षगांठ मना रही है। परमहंस जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- योगी कथामृत- में लिखा है- पौराणिक कथा में जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने तृषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल से संतुष्ट किया, उसी प्रकार १८६१ में क्रिया योग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्यों की कोलाहलभरी बस्तियों की ओर बह चली।
सन १८६१ में बनारस के महान योगी, श्यामाचरण लाहिड़ी (लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध) को हिमालय में उनके अमर गुरु महावतार बाबाजी ने क्रिया योग की दीक्षा दी और उन्होंने इसके अभ्यास के द्वारा ईश्वर का पूर्ण बोध प्राप्त किया। इस विग्यान के प्रसार का दिव्य उत्तरदायित्व लाहिड़ी महाशय को प्राप्त हुआ। लाहिड़ी महाशय से स्वामी श्री युक्तेश्वर और आगे परमहंस योगानंद तक क्रिया योग का प्रसार अटूट रूप से चलता रहा है। क्रिया योग सच्चे जिग्यासुओं को दैवीय सांत्वना और एकात्मता देता है। लाहिड़ी महाशय १८६१ में हिमालय की तलहटी में एक सैन्य अड्डे पर एकाउंटेंट के रूप में सेवा दे रहे थे। वहीं पर एक दिन वे घूमते हुए पहाड़ों में रास्ता भूल गए। उसी समय लाहिड़ी महाशय को एक दिव्य गुफा के बाहर उनके गुरु महावतार बाबाजी मिले। दिव्य आभा से युक्त। उन्होंने ही बताया कि उनका हिमालय में स्थानांतरण दैवी कारण से हुआ है। ताकि उन्हें वे क्रिया दीक्षा दे सकें। लाहिड़ी महाशय विवाहित थे। महावतार बाबाजी ने उन्हें इसलिए दीक्षा दी ताकि संसार में यह संदेश जाए कि पारिवारिक व्यक्ति भी योगी हो सकता है। इसके लिए उसे घर परिवार छोड़ कर जंगल में जाने की जरूरत नहीं है। लाहिड़ी महाशय अपने गुरु, महावतार बाबाजी से मिले और ध्यान के सर्वोच्च प्राचीन विग्यान में उनसे दीक्षा ली। अंधेरे युग में शताब्दियों तक लुप्त होने के बाद बाबाजी ने फिर से इसकी खोज की और इसे क्रिया योग का नाम दिया। उन्होंने श्री लाहिड़ी महाशय से कहा था कि यह वही विग्यान था जिसे सदियों पहले कृष्ण ने अर्जुन को दिया था।
एक संक्षिप्त परिचय-
महावतार बाबाजी- क्रिया योग के लुप्त विग्यान के प्रवर्तक।
लाहिड़ी महाशय- क्रिया योग के पुनर्जागरण में प्रमुख (क्रिया योग का पुनर्जागरण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ था और आज तक जारी है।)
स्वामी श्रीयुक्तेश्वर- लाहिड़ी महाशय के अति उन्नत शिष्य तथा परमहंस योगानंदजी के गुरु, इन्होंने एक ग्यानावतार (ग्यान के अवतार) की आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त की।
परमहंस योगानंद- योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाइएसएस) व (विदेशों में) सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) गुरुओं की परंपरा में अंतिम गुरु औऱ इन दोनों संस्थाओं के संस्थापक।
परमहंस योगानंद जी ने १९१७ में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की थी।

Thursday, September 22, 2011

देह बुद्धि, मन बुद्धि


विनय बिहारी सिंह


ऋषियों ने कहा है- मनुष्य इंद्रिय, मन और बुद्धि से ईश्वर को नहीं जान सकता। वे इंद्रियातीत तो हैं ही, मन और बुद्धि से परे हैं। लेकिन ईश्वर प्रेम के चुंबक से खिंच आते हैं। अनन्य और गहरा प्रेम। उनके सिवा और कुछ न दिखे, न सुनाई दे और न महसूस हो। वे सभी भूतों में हैं। ईश्वर सर्वव्यापी, सर्व ग्याता, सर्व शक्तिमान हैं। सदा चैतन्य हैं। इसीलिए तो हमारे मन में क्या है, वे अच्छी तरह जानते हैं। हम तो रात को सो जाते हैं, लेकिन वे सदा जाग्रत हैं। रामचरित मानस में भगवान शिव ने ईश्वर की इस तरह व्याख्या की है-

पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।

भगवान के पैर नहीं हैं लेकिन वे सर्वत्र मौजूद रहते हैं,
उनके कान नहीं हैं, लेकिन वे सबकी सुनते हैं। उनके हाथ नहीं हैं, लेकिन सारे कार्य करते हैं।
यह अद्भुत और मनोहारी व्याख्या है। भगवान ने हमें बनाया और फिर हमें स्वतंत्र इच्छा शक्ति दे दी। विवेक दे दिया।
अब हम अपनी इच्छा से जो कर्म करते हैं, उसका फल भोगते हैं। जब हम अपने विवेक को दबा देते हैं तो बुरे कर्म करते हैं। लेकिन जब हमारा विवेक शक्तिशाली होता है तो हम अच्छे कार्य करते हैं। इन्हीं कार्यों का फल मिलता है। गीता में कहा है- भगवान के लिए काम करो। अपने लिए नहीं। जब कर्ता नहीं बनोगे तो भोक्ता भी नहीं होगे। लेकिन जब यह मानोगे कि मैंने किया तो भोक्ता भी तुम्हीं बनोगे। यानी मैं या ईगो या अहंकार का त्याग।

Monday, September 19, 2011

लिखने की इच्छा नहीं हो रही


मित्रों अचानक ब्लाग लिखने की इच्छा नहीं हो रही है। सोच रहा हूं कि कुछ दिन लिखने को विराम दूं। कम से कम एक हफ्ता या डेढ़ हफ्ता। इससे शायद कुछ फर्क पड़े। यह ईश्वरीय चर्चा से ऊबना नहीं है। ईश्वर तो हृदय में हैं, प्राणों में हैं, हमारी हर सांस में हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि सिर्फ लेखन से विराम लेना पड़ता है। यह विराम सकारात्मक होता है। मेरा न लिखना भी सकारात्मक और ऊर्जा से भरा हुआ कदम है। इसे कृपया निगेटिव अर्थ में न लें। कृपया इसकी इजाजत दें। बहुत बहुत धन्यवाद।

विनय बिहारी सिंह

Saturday, September 17, 2011

दो सूरज वाला ग्रह

courtesy- BBC Hindi service

कैप्लर -16 बी पर जब दिन ख़त्म होता है तो वहाँ पर दो सूर्यास्त होते हैं.
अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि उसने एक ऐसे ग्रह को खोज निकाला है जिसकी कक्षा में एक नही बल्कि दो सूर्य हैं.

नासा की शक्तिशाली दूरबीन कैप्लर से देखे गए अंतरिक्ष के अविश्वसनीय दृश्य और इस ग्रह की तुलना हॉलीवुड की उस काल्पनिक फ़िल्म स्टार वॉर के टैटूइन ग्रह से की जा सकती है, लेकिन इस ग्रह पर जीवन की संभावना नहीं दिखती.
इसका नाम कैप्लर -16 बी रखा गया है. माना जा रहा है कि ये ग्रह भी शनि की तरह ही ठंडी गैसों से बना है.

ये नया ग्रह पृथ्वी से लगभग 200 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है.

हांलाकि इस तरह के संकेत इससे पहले भी मिल चुके हैं कि ग्रहों के दो सू्र्य एक ही कक्षा में हो सकते हैं, पर इस नई खोज से इसकी पुष्टि पहली बार हुई है.

इसका मतलब ये हुआ कि कैप्लर -16 बी पर जब दिन ख़त्म होता है तो वहाँ पर दो सूर्यास्त होते हैं.

कैप्लर -16 बी के दोनों सूर्य पृथ्वी के सूर्य की तुलना में काफ़ी छोटे हैं. पहले का द्रव्यमान पृथ्वी के सूर्य के द्रव्यमान का 69 फ़ीसदी और 20 फ़ीसदी है.

इनका तापमान शून्य से सौ से डेढ़ सौ फारहेनाइट कम यानि माइनस 73 से 101 डिग्री सेल्सियस के आस-पास है.

इस ग्रह की कक्षा में दोनो सूर्य हर 229 दिन के बाद 65 मील की दूरी पर होते हैं.

कैप्लर टेलिस्कोप को 2009 में लगाया गया था ताकि ये पृथ्वी जैसे ग्रहों की आकाश गंगा के दृश्यों को कैद किया जा सके.

Friday, September 16, 2011

कणाद ऋषि

विनय बिहारी सिंह



कणाद ऋषि, विश्व के पहले संत थे जिन्होंने बताया था कि प्रत्येक वस्तु या जीव अणुओं से बना है।

यानी मालीक्यूल की पहली थ्योरी कणाद ऋषि ने बताई थी। वे वैशेषिक दर्शन के जनक थे। भारत में ऋषियों ने छह दर्शन या फिलासफी को जन्म दिया। १- पूर्व मीमांसा (जैमिनी ऋषि)२- उत्तर मीमांसा (वेद व्यास) ३- सांख्य (कपिल मुनि) ४- योग (पातंजलि ऋषि) ५- न्याय (गौतम ऋषि) और ६- वैशेषिक (कणाद ऋषि)।
कणाद ऋषि ने कहा कि अणुओं को औऱ भी छोटे- परमाणुओं में विभाजित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि मन और आत्मा क्या है। मन जब ईश्वर पर एकाग्रचित्त होता है तो वह ईश्वरमय हो जाता है और यहीं से ईश्वरप्राप्ति का मार्ग खुलता है। उन्होंने बताया कि मनुष्य का शरीर कैसे ब्रह्मांड की तरह है। कैसे एकाग्रचित्त हो कर ब्रह्मांड के परे ईश्वर से संपर्क किया जा सकता है। मुख्य वस्तु है कन्सन्ट्रेशन- ईश्वर पर एकाग्रचित्त होना। हमारे एक परमाणु में हमारे मुख्य तत्व समाहित रहते हैं। इन्हीं परमाणुओं को ईश्वरीय स्पंदन में रखने के लिए ध्यान आवश्यक है- ईश्वर की भक्ति । गहरी एकाग्रता से ही ईश्वर मिलते हैं।

Thursday, September 15, 2011

सबके हृदय में भगवान

विनय बिहारी सिंह



भगवान कृष्ण ने भगवत गीता के १८वें अध्याय में कहा है-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।


हे अर्जुन, ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहते हैं। जीव माया के भ्रमजाल में फंसा रहता है और अपने कर्मों के अनुरूप, भिन्न- भिन्न रूपों में जन्म लेता रहता है। वह कर्मों से बंधा यंत्रवत काम करता है। यानी आप नहीं चाहते कि अमुक काम करें, लेकिन अचानक अपनी आदत के वशीभूत हो कर वह काम कर देंगे। यह है संस्कार।
तो भगवान ने खुद ही अपना ठिकाना बता दिया। वे कहते हैं- मैं सबके हृदय में रहता हूं। यही है मेरा पता। यानी उन्हें कहीं दूसरी जगह खोजने की जरूरत नहीं है। बस शांत चित्त बैठ कर ईश्वर का ध्यान करना है। वे हमारे हृदय में ही बैठे हैं। भगवान ने स्वयं बता दिया है। फिर भी मनुष्य का मन शांत नहीं होता। वह ईश्वर को न याद कर न जाने कहां- कहां भटकता रहता है। ईश्वर ने कितनी अच्छी जगह चुनी है अपने रहने के लिए? ठीक हमारे हृदय में। अब अगर फिर भी हम उनसे दूर रहें और उन्हें आत्मीयता से न पुकारें, उनका आलिंगन न करें तो यह हमारी गलती है। उन्होंने तो कह ही दिया है- मेरे भक्त चाहे जैसे भी भजें, वे मेरी नजरों से ओझल नहीं होते।

Wednesday, September 14, 2011

बाबा लोकनाथ

विनय बिहारी सिंह



बाबा लोकनाथ का लोकप्रिय नाम- लोकनाथ ब्रह्मचारी है। वे सिद्ध संत थे। उनका जन्म पश्चिम बंगाल की बसीरहाट तहसील (जिला- उत्तर चौबीस परगना) में २९ अगस्त १७३० को हुआ था। उन्होंने १८९० ईस्वी में समाधि की अवस्था में अपना शरीर छोड़ दिया। वे लगभग १६० वर्षों तक अपने शरीर में रहे। पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और अन्य अनेक स्थानों पर बाबा लोकनाथ के मंदिर हैं। उनके भक्त उनका जन्मदिन भव्य तरीके से मनाते हैं। कोलकाता में तो यह भव्य आयोजन मैंने अपनी आंखों से देखा है। बचपन से लेकर नब्बे वर्ष तक की आयु तक बाबा लोकनाथ ने कठिन तप और ध्यान किया। वे बिना कुछ खाये- पीये कई- कई दिनों तक ध्यान करते रहते थे। जब वे नब्बे वर्ष के हुए तो उन्हें ईश्वर के साक्षात दर्शन हुए। इसके बाद उन्होंने कई देशों की यात्राएं की। उनके पास आशीर्वाद लेने जितने लोग गए, आनंदित हो कर लौटे।
उनका कहना था- मन और इंद्रियों का नियंत्रण बहुत आवश्यक है। इस नियंत्रण के बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है।
अपना शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने भक्तों से कहा था- मैं सूक्ष्म रूप से हमेशा मौजूद रहूंगा। यह मत समझना कि मेरा शरीर नहीं है तो मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। तुम जब भी पुकारोगे, मैं हाजिर हो जाऊंगा।

Tuesday, September 13, 2011

उन्हें पाप पूर्ण विचार छू नहीं सकते


विनय बिहारी सिंह



रामचरितमानस में तुलसीदास ने लिखा है- राम राम कहि जे जमुहांहीं, तिनहिं न पाप पुंज समुहाहीं।।
यानी जो राम राम कहते हैं, उन्हें पाप पूर्ण विचार छू नहीं सकते। तो कैसे राम राम कहने पर ऐसा होता है? जब आपका हृदय राम राम पुकारे। भगवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- मेरी शरण में आओ, सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। तुम्हें पूर्ण शांति मिलेगी। पूर्ण सुख मिलेगा। रामचरितमानस में तुलसीदास का तात्पर्य यह है कि राम की शरण में जाने के बाद पूर्ण आनंद मिलेगा। फिर सदा के लिए सुख। सांसारिक सुखों की एक सीमा है। उसके आगे कोई भी सुख उबाऊ हो जाता है। मनपसंद भोजन एक हद तक ही अच्छा लगेगा। उसके बाद उससे विरक्ति हो जाएगी। मन भर गया। फिर वह स्वादिष्ट व्यंजन उपेक्षित हो गया। कोई मनपसंद ड्रेस एक दिन, दो दिन पहनेंगे, लेकिन फिर उससे मन ऊब जाएगा। लेकिन भगवान का आनंद ऐसा है कि उससे कभी मन नहीं ऊबेगा। नित्य नवीन आनंद। हर क्षण नया आनंद और वह आनंद कभी खत्म नहीं होगा। निरंतर चिर काल तक चलता रहेगा।
बनवास के समय भगवान राम जहां जहां जाते थे, उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। क्यों? उनका सौंदर्य मनुष्य का सीमित सौंदर्य नहीं था। वह सौंदर्य अलौकिक था। आप भगवान की तरफ जितनी देर तक देखेंगे, उनके सौंदर्य में नयापन दिखता रहेगा। आपकी आंखें उनके रूप माधुर्य से हटने का नाम नहीं लेंगी। इसीलिए उनका एक नाम- मनमोहन भी है। जो मन को मोह लेता है। भगवान हैं ही ऐसे। एक बार जिसने उनसे अपना हृदय जोड़ दिया बस, उसे वे छोड़ते नहीं हैं। आनंद से सराबोर करते रहते हैं। दिल जोड़ने के लिए करना क्या होगा? भक्ति का चुंबक प्रयोग में लाना होगा। अपने हृदय को भक्ति के प्रभाव से चुंबक बना दीजिए। भगवान अपने आप खिंचे आएंगे।

Monday, September 12, 2011

यह है अनन्य विश्वास

विनय बिहारी सिंह



योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के सन्यासी स्वामी कृष्णानंद जी का लिखा एक प्रसंग पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। उन्होंने लिखा है- इगतपुरी आश्रम (जिला- नासिक, महाराष्ट्र) में अपनी कुटिया में बैठा था कि देखा पक्षी ने सामने पेड़ पर बच्चों को जन्म दिया है। मां- बाप बच्चों के लिए आहार ले आए तो बच्चों ने मुंह खोल दिया। आहार प्राप्त किया। इसी तरह जब- जब मां- बाप आहार ले आते थे, बच्चे मुंह खोल देते थे- आ..... और भोजन स्वीकार करते थे। बच्चों को इससे कोई मतलब नहीं था कि खाना कैसा है, स्वादिष्ट है या नहीं, पौष्टिक है या नहीं। बस पूरे विश्वास के साथ बच्चे वह भोजन ग्रहण कर रहे थे, जिसे उनके मां- बाप दे रहे थे। यह है पूर्ण विश्वास। इसी तरह मनुष्य को भगवान के प्रति पूर्ण विश्वास होना चाहिए। बिना कुछ सोच विचार किए, भगवान में पूर्ण विश्वास। वही हमारे मां- बाप हैं। वही हमारे सर्वस्व हैं। बस भगवान में शरणागति। इसी में सुख है।

Friday, September 9, 2011

ध्यान यानी ईश्वर से प्रगाढ़ संपर्क

विनय बिहारी सिंह




परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि ध्यान का अर्थ है ईश्वर से गहरा संपर्क। ईश्वर के संपर्क के बिना जीवन व्यर्थ है। परमहंस जी की बातें दिल को छू लेती हैं। हम अपनी सीमित दुनिया में ही परेशान रहते हैं। जबकि ईश्वर असीम प्रेम हैं और उनसे संपर्क न कर अगर हम सिर्फ और सिर्फ सांसारिक प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो परेशान होना या तनाव में होना स्वाभाविक ही है। जहां गहरी शांति है, अगर हम वहां नहीं जाकर उस जगह जाएं जहां भारी शोर- गुल है तो शांति कहां से मिलेगी। यह संसार दिन रात शोर गुल, दौड़- भाग और बेचैनियों से भरा हुआ है। और हमें रहना यहीं है। हम कई सारी परिस्थितियां बदल नहीं सकते। तब क्या करना चाहिए? तनाव से बचने का क्या उपाय है? उत्तर है- भगवान की शरण में जाना। भगवान ही हमें किसी भी परिस्थिति से उबार सकते हैं। चाहे वह परिस्थिति कितनी भी कठिन या अटल क्यों न दिखती हो, भगवान हमें उससे क्षण भर में बचा सकते हैं। लेकिन मुश्किल है कि हम भगवान की शऱण में नहीं जाते। उन पर पूर्ण विश्वास करके अगर हम उनकी शऱण में जाएं तो निश्चय ही हमें परम शांति मिलेगी। लेकिन शर्त यह है कि हमें थोड़ी देर के लिए ठहरना पड़ेगा। यानी? शांत और स्थिर चित्त हो कर ईश्वर की शरण में जाना पड़ेगा। मन औऱ शरीर शांत करना पड़ेगा। गहरी शांति में उतर कर ईश्वर को पुकारना पड़ेगा। ईश्वर तो हमारी प्रतीक्षा कर ही रहे हैं। बस शांत और स्थिर हो कर पुकारने भर की देर है।

Wednesday, September 7, 2011

मीराबाई के भजन

विनय बिहारी सिंह



आज मीरा के भजन बार- बार मुग्ध कर रहे हैं। भगवान के प्रति इतनी विह्वलता और इतना गहरा प्रेम आनंद से सराबोर करने वाला है। मीराबाई सन १५०४ में जोधपुर (राजस्थान) के ग्राम कुड्की में जन्मी थीं। सन १५६० में उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। यानी कुल ६६ साल की उम्र तक उन्होंने शरीर को धारण किया। । विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति का देहांत हो गया। वे तो पहले से ही भगवान कृष्ण की अनन्य भक्त थीं। दिन- रात भगवान में ही डूबी रहती थीं। संसार से विरक्त थीं। अनेक वर्षों तक वे वृंदावन में रहीं। वे भक्ति की पर्याय थीं। नीचे दिए गए उनके भजनों को पढ़ कर यह समझना कठिन नहीं है कि उनका अंतःकरण भगवान कृष्ण के प्रेम में संपूर्ण रूप से ओतप्रोत था। वे अनंत काल तक भक्तों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगी। आइए उनके भजन पढ़ते हैं---

१--
तुम बिन मेरी कौन खबर ले। गोवर्धन गिरिधारी रे॥
मोर मुकुट पीतांबर सोभे। कुंडल की छबी न्यारी रे॥
भरी सभा मों द्रौपदी ठारी। राखो लाज हमारी रे॥
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर। चरन कमल बलहारी रे॥


२--
हरी मेरे जीवन प्रान अधार।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनूं लोक मंझार।।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
मीरा कहै मैं दासि रावरी दीज्यो मती बिसार।।


३--

राम नाम-रस पीजै मनुआं राम-नाम-रस पीजै।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित हरि-चर्चा सुनि लीजै।।
काम क्रोध मद लोभ मोहकूं बहा चित्तसें दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताहिके रंग में भीजे।।

अंत में यह भजन-
४--

नहिं एसो जनम बारंबार।।
का जानूं कछु पुन्य प्रगटे मानुसा-अवतार।
बढत छिन-छिन घटत पल-पल जात न लागे बार।।
बिरछके ज्यूं पात टूटे लगें नहीं पुनि डार।
भौसागर अति जोर कहिये अनंत ऊंडी धार।।
रामनाम का बांध बेडा उतर परले पार।
ज्ञान चोसर मंडा चोहटे सुरत पासा सार।।
साधु संत महंत ग्यानी करत चलत पुकार।
दासि मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन च्यार।।

Tuesday, September 6, 2011

घृणा करना नुकसानदेह

विनय बिहारी सिंह



रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- लज्जा, भय और घृणा के नष्ट हुए बिना भगवान नहीं मिलते। आइए घृणा पर उनकी एक बात का स्मरण करें। एक महिला थी जो ज्यादातर लोगों से घृणा करती थी। उसे कोई भी व्यक्ति पसंद नहीं था। वह किसी में कोई तो किसी में कोई दुर्गुण देखती थी। ऐसा बहुत दिनों तक चला। अचानक ऐसा हुआ कि उस महिला को एक कठिन रोग हो गया। अब स्थिति उल्टी हो गई। सारे लोग उस महिला से घृणा करने लगे। कोई उसके आसपास नहीं रहना चाहता था। उसके कमरे को तो छोड़ दीजिए, उसके घर के आसपास तक लोग जाना नहीं चाहते थे। रामकृष्ण परमहंस ने कहा- इसीलिए किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए। हर व्यक्ति में भगवान मौजूद हैं। वे कहते थे- सिर्फ प्रेम करो। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट- पतंग सबसे प्रेम करने का अभ्यास करना चाहिए। हर जगह ईश्वर हैं। इस प्रसंग को पुस्तक में पढ़ कर एक व्यक्ति ने कहा- मेरे लिए सबसे प्रेम करना संभव नहीं है। वहीं एक साधु खड़े थे। उन्होंने इसका उत्तर दिया- ठीक है। आप प्रेम न करें। लेकिन कृपया घृणा न करें। किसी से भी नहीं। घृणा, घृणा को जन्म देती है। मनुष्य चाहे वह किसी भी जाति और धर्म का क्यों न हो, कभी भी घृणा नहीं करनी

Monday, September 5, 2011

थामस अल्वा एडिसन

विनय बिहारी सिंह




अमेरिकी वैग्यानिक थामस अल्वा एडिसन बिजली के बल्ब के अविष्कारक थे। बल्ब के अविष्कार के दौरान उन्हें अनेक असफलताएं मिलीं। अंत में वे बल्ब बनाने में सफल हो गए। तभी उनके प्रयोगशाला में भयानक आग लगी। एडिसन शांत हो कर अपनी प्रयोगशाला को जलते देख रहे थे। उनके बेटे ने पिता से सहानुभूति जताई क्योंकि प्रयोगशाला में मौजूद अत्यंत महत्वपूर्ण चीजें जल कर राख हो रही थीं। एडिसन बोले- मैं बहुत खुश हूं। बेटे को आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि शायद डैड सदमे में ऐसा कह रहे हैं। लेकिन एडिसन ने कहा- मैं सचमुच खुश हूं। मेरी सारी असफलताएं इस प्रयोगशाला के साथ जल कर राख हो गईं। अब मैं आराम से नए सिरे से बल्ब बनाऊंगा। तब बेटे की समझ में आया- उसके पिता सचमुच महान हैं। वे हर घटना के प्रति अच्छी भावना से सोचते हैं। वे अपने लक्ष्य के प्रति मजबूती से बढ़ते हैं। वे दृढ़ निश्चयी और सकारात्मक सोच वाले हैं। योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के सिद्ध सन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी ने कहा- व्यक्ति को ऐसा ही होना चाहिए। अच्छा काम करें और उसके प्रति दृढ़ रहें। भक्ति करें तो उसके प्रति दृढ़ रहें। ढुलमुल नहीं। जो भी काम हाथ में लें, उसे मनोयोग से पूरा करें। ईश्वर हमसे यही चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि हम सुस्त, लापरवाह या खराब चिंतन करने वाला व्यक्ति बनें। वे चाहते हैं कि हम उन पर भरोसा करें। उनसे प्रेम करें और निश्चिंत हो अच्छा काम करते रहें।

Saturday, September 3, 2011

ऊं काली

विनय बिहारी सिंह




आज बस से यात्रा करते हुए देखा कि सामने मां काली का चेहरा एक फ्रेम में लगाया गया है। सिर पर सुनहरा मुकुट है। पश्चिम बंगाल में मां काली घर- घर में पूजी जाती हैं। लेकिन घरों में मां की मूर्ति नहीं फोटो है। मूर्ति स्थापना और उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर नियमित और विधिवत पूजा में अनेक सावधानियां होती हैं। नियम होते हैं। इसलिए मूर्ति के बजाय गृहस्त मां काली के फोटो की ही पूजा करते हैं। कोलकाता में हर थोड़ी दूर पर मां काली का मंदिर आपको मिल जाएगा। लंबे समय मां की मूर्ति देखते- देखते उससे प्रेम होना स्वाभाविक है। अब ऐसी स्थिति हो गई है कि मां काली की मूर्ति दिखाई पड़ी और मन उनके चरणों में चला गया। ध्यानमग्न लेटे शिव जी की छाती पर मां काली का पैर पड़ा औऱ वे जीभ निकाल कर अपनी गलती का अहसास कर रही हैं। उनके चार हाथ हैं। दो दाएं और दो बाएं। दाएं हाथों में एक हाथ वरदान दे रहा है तो दूसरा अभय दान दे रहा है। (इसीलिए उन्हें मां अभया भी कहा जाता है)। बाएं हाथों में एक हाथ में तलवार है (बुरी शक्तियों के संहार का प्रतीक) तो दूसरे में मुंडमाल (माइंड समर्पित किए बिना मां के दर्शन नहीं होते)। मां काली मुंडमाला पहने हुए हैं (मन और बुद्धि जो दे चुके हैं, वे मां के हृदय में रहते हैं)। यही है मां काली की मूर्ति।
मैं उन्हें अभया मां के रूप में देखता और महसूस करता हूं। इसीलिए मां काली मुझे अच्छी लगती हैं। वे भक्तों को अभय प्रदान करती हैं। मां काली अपने भक्तों का जिम्मा खुद ले लेती हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि मां काली को देख कर डर लगता है। मां को देख कर डर क्यों? वे जगन्माता हैं। सबकी माता। माता तो पुत्र या पुत्री का नुकसान नहीं कर सकती। हां, रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि उग्र काली की मूर्ति गृहस्थों को अपने घर में नहीं रखना चाहिए। क्योंकि मां काली की विधिवत पूजा होनी चाहिए। गृहस्थ ऐसा कर नहीं पाते। लेकिन मंदिर में जाकर पूजा करना तो शुभ है। घर में पूजा न कर अनेक लोग आस- पास के मंदिरों में पूजा करते हैं।

Friday, September 2, 2011

प्रदूषण से देश के लोगों के फेफड़ों पर असर

विनय बिहारी सिंह



आज अंग्रेजी दैनिक- द टेलीग्राफ में लीड समाचार है कि भारतीय लोगों के फेफड़े दुनिया के चार महाद्वीपों में सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इसकी वजह है प्रदूषण। हमारे देश में प्रदूषण नियंत्रण पर सख्ती बरतने का समय अब आ गया है। जिन- जिन वजहों से घातक धुएं से हमारा वायुमंडल जहरीला हो रहा है, उस पर लगाम कसी जानी चाहिए। इस रिपोर्ट की शुरूआती पंक्तियां आप भी पढ़ें-

World’s worst lungs are in India
- Cross-continental survey raises deeper air pollution fears than suspected

G.S. MUDUR

New Delhi, Sept. 1: Indians have the poorest lungs among 17 populations across four continents, according to new research that has stirred speculation that the health effects of air pollution in India may be worse than hitherto suspected.

An international study that investigated the lung functions of healthy, non-smoking adults from 17 countries has found that the efficiency of breathing of South Asians, mainly Indians, is 30 per cent lower than that of Europeans and North Americans.

This difference in lung function is much larger than previous estimates from earlier studies that compared South Asian Indians to Caucasians and cannot be explained by differences in weight, height, and urban or rural living.

कई बीमारियां तो पीने के पानी से भी होती हैं। हम जो पानी पीते हैं वह कितना साफ है, इसकी जांच करने वाली कोई एजंसी नहीं है। अगर है तो आम आदमी इसे जानता नहीं है। कम से कम हर जिले में एक ऐसी प्रयोगशाला या जांच इकाई होनी चाहिए ताकि लोग जान सकें कि जो पानी वे पी रहे हैं वह कैसा है। शहरों में तो हम लोग एक्वागार्ड या रिवर्स आस्मोसिस से शुद्ध हुआ पानी पीते हैं। लेकिन शहरों में भी सबके पास यह सुविधा नहीं है। एक उपाय उबाल कर पानी पीने का है। यह भी सभी लोग नहीं कर पाते। कुल आलस्य में तो कुछ मजबूरी में। बहरहाल प्रदूषण चाहे हवा में हो या पानी में, इस पर सजग होना बहुत जरूरी है।
प्रदूषण का असर हमारे खाद्य पदार्थों पर भी पड़ता ही है।

Thursday, September 1, 2011

गणेश चतुर्थी

विनय बिहारी सिंह


गणेश चतुर्थी पर आप सबके लिए शुभकामनाएं।
आपका जीवन गणेश जी मंगलमय बनाएं।
गणेश जी विघ्न विनाशक कहे जाते हैं। किसी भी पूजा के पहले उनकी पूजा की जाती है ताकि सारा काम निर्विघ्न हो जाए। गणेश जी का सिर हाथी का है। यह प्रतीक है समृद्धि का। जहां गणेश जी हैं, वहां समृद्धि है। क्योंकि आपकी समृद्धि में कोई विघ्न नहीं डाल सकता। आपकी प्रगति में कोई विघ्न नहीं डाल सकता। गणेश जी के कान बहुत बड़े-बड़े हैं। यानी वे सूक्ष्मतम ध्वनियां भी सुन सकते हैं। उनका पेट बड़ा है। यानी उनके भक्त धन- धान्य से पूर्ण होते हैं। उनकी सवारी चूहा है। यह भी प्रतीक है। चूहे की गति बहुत तेज होती है। वह किसी भी तरह के जाल को काट सकता है। हमारे जीवन के जालों को भी गणेश जी का चूहा काट देता है। एक बार भगवान शिव ने अपने दोनों बेटों गणेश जी और कार्तिक से कहा कि तुम दोनों में जो पहले पृथ्वी परिक्रमा कर आएगा, वह श्रेष्ठ माना जाएगा। गणेश जी अपनी सवारी चूहे पर बैठे और अपने माता- पिता की परिक्रमा करने लगे। उधर कार्तिक अपनी सवारी मोर पर बैठे और पृथ्वी परिक्रमा पर निकल गए। गणेश जी ने कहा- मेरे लिए मेरे माता- पिता ही पूरी पृथ्वी हैं। भगवान शिव गणेश जी पर प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया कि हर पूजा के पहले गणेश जी की सबसे पहले पूजा होगी। तभी से यह परंपरा बनी कि गणेश पूजा कर ही विवाह या अन्य अनुष्ठान शुरू होते हैं। जब कार्तिक पृथ्वी परिक्रमा कर लौटे तो उन्हें इसकी जानकारी मिली। उन्होंने अपने भाई गणेश जी की भूरि- भूरि प्रशंसा की। भगवान शिव कार्तिकेय पर भी प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें भी आशीर्वाद दिया कि जब तक पृथ्वी रहेगी, तुम्हारा नाम रहेगा। गणेश भगवान के जन्म के बारे में तो हम सभी जानते हैं। आइए कार्तिक के जन्म के बारे में जानें। शिव जी की तपस्या भंग करने के लिए राक्षसों ने कामदेव का सहारा लिया। राक्षसों ने कामदेव से कहा कि वह फूलों का बाण समाधि में बैठे भगवान शिव को मारे ताकि वे काम विह्वल हो जाएं। ज्योंही कामदेव ने फूलों का बाण भगवान शिव पर चलाना चाहा, उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। इससे कामदेव वहीं जल कर भस्म हो गया। भगवान के तीसरे नेत्र से जो तेज निकला था, उसे और कोई तो संभाल नहीं सकता था। इसलिए भगवान ने उसे अग्नि को सौंप दिया। अग्नि माता भी उसे संभाल नहीं पाईं। इसलिए उन्होंने इस तेज को पास के एक तालाब में डाल दिया। कहते हैं माता पार्वती स्वयं तालाब बन कर वहां उपस्थित थीं। वे जानती थीं, भगवान का तेज और कोई अपने पास रख ही नहीं सकता। इसी तेज से कार्तिक का जन्म हुआ।
विघ्नविनाशक, गणपति, सिद्धिदायक भगवान गणेश हम सबका जीवन शुभ घटनाओं से भर दें। यही कामना है।