Thursday, September 30, 2010

मन चंचल हो तो क्या करें

विनय बिहारी सिंह


आज एक संन्यासी ने कहा- मन चंचल हो तो उसे रोकने का अभ्यास धीरे- धीरे होना चाहिए। वह तो जन्म- जन्मांतर से भटकने का अभ्यासी है। मन एक जगह ठहरना जानता कहां है। उसकी आदत में ही नहीं है कि वह ठहरे। इसलिए उसे समझाना पड़ेगा कि ठहरो, ठहरने से आराम मिलता है। ठीक जैसे सोने के लिए हमें ठहरना पड़ता है, लेटना पड़ता है और मन को विराम देना पड़ता है। तब हम कुछ सोचने की स्थिति में नहीं रहते। सोच ही नहीं सकते। हम पूर्ण विश्राम में होते हैं। इसीलिए सन्यासी कहते हैं कि ध्यान के समय हम ठीक उसी तरह पूर्ण विश्राम में रह कर भगवान के दिव्य प्रेम का अनुभव करें। ज्योंही मन ठहरने लगेगा, हमें गहरे आनंद की अनुभूति होने लगेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। कई लोगों को दो- दो वर्ष लग जाते हैं तब जाकर वे मन को ठहरा पाते हैं। कई लोगों का मन छह महीने में ही ठहरने लगता है। यह अलग- अलग व्यक्तियों पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात निश्चित है। अगर आप ईमानदारी से कोशिश करेंगे और मन इसके लिए दृढ़ होगा तो मन आपके वश में होगा

Wednesday, September 29, 2010

हम भगवान की कृपा से लेते हैं सांस

विनय बिहारी सिंह


एक संत ने कल कहा- हम भगवान की कृपा से ही सांस लेते हैं। चूंकि भगवान इसके बदले में हमसे कुछ नहीं चाहते, इसलिए हम समझते हैं कि यह सांस सदा चलती रहेगी। हम अपनी सांसों को लेकर ज्यादा कुछ सोचते नहीं हैं। आप कह सकते हैं कि सांस पर क्या विचार करना। वह तो चलती रहती है। लेकिन प्राणायाम तो हम सांसों से ही करते हैं। क्यों? क्योंकि सांस हमारी मानसिक स्थिति का द्योतक है। अगर आपकी सांस तेज चलती है तो आपका मन चंचल है। अगर धीरे है तो आप शांत हैं। हम इस दुनिया में अपने मन से नहीं आए हैं, हमें भगवान ने भेजा है। क्यों? क्योंकि हमारी अधूरी इच्छाएं संसार में आने के लिए बाध्य करती हैं। जबकि गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अर्जुन तुम दुखों के इस संसार से बाहर निकलो। भगवान इस संसार को दुख का सागर कहते हैं तो फिर यह संसार सुखकर कैसे हो सकता है? लेकिन फिर भी हममें से कितने लोग इस संसार में ही सुख तलाशते हैं। उनका मन भगवान में नहीं, संसार में रमा रहता है। क्या विडंबना है। जो दुखों का समुद्र है, उसमें कई लोग सुख तलाशते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे छद्म सुख या धोखा देने वाले नकली सुख में ही मस्त रहते हैं। क्योंकि असली सुख तो भगवान में है। एक बार भगवान की शरण में हम गए तो फिर असली सुख क्या होता है, पता चलेगा। इसके पहले नहीं। भगवान का सुख कैसा है, यह तो इसे प्राप्त करने वाला ही जानता है। इसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।

Tuesday, September 21, 2010

चार तरह के लोग भजते हैं भगवान को

विनय बिहारी सिंह


गीता के सातवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि चार तरह के लोग उन्हें भजते हैं- अर्थार्थी, आर्त, जिग्यासु और ग्यानी। आइए क्रम से देखते हैं कि इसका अर्थ क्या है। अर्थार्थी यानी वह व्यक्ति जिसे धन चाहिए, संपत्ति चाहिए, ऐश्वर्य चाहिए नाम चाहिए यानी भोग- विलास चाहिए। वह भगवान से कहता रहता है- भगवान मुझे यह सामान दो, वह सामान दो। उसका कभी मन भर ही नहीं पाता। दूसरा है- आर्त। किसी दुख में पड़ा हुआ है, कोई रोग- व्याधि है और वह बेचैन है, छटपटा रहा है। वह भगवान को पुकारता रहता है कि प्रभु, मेरा अमुक रोग या अमुक बिगड़ी बना दीजिए। अब और बर्दाश्त नहीं होता। या कोई किसी विषम परिस्थित में पड़ गया है। चारो तरफ से दुष्ट लोगों से घिर गया है। उस कष्ट से निकलना चाहता है। वह भगवान को पुकारता है कि भगवान, मेरा कष्ट दूर कीजिए। तीसरा है जिग्यासु। जिग्यासु व्यक्ति जानना चाहता है कि भगवान कैसे हैं। उनका ऐश्वर्य क्या है। उन्हें कैसे जाना या देखा जा सकता है। वह इसके लिए तरह- तरह की पुस्तकें पढ़ता है, तरह- तरह के साधु- संतों से मिलता है। उसके भगवान को जानने की भूख होती है। और चौथा है- ग्यानी। ग्यानी भगवान को जानता है। वह नित नवीन आनंद में डूबा रहता है और भगवान, भगवान पुकारता रहता है। वह जानता है कि सब कुछ ईश्वर ही हैं। सर्वं ब्रह्ममयं जगत। तो इसके कारण वह दिन- रात प्रभु का स्मरण करता रहता है। प्रभु के बिना उसका काम चल ही नहीं सकता। भगवान कृष्ण ने कहा है कि ऐसे ग्यानी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय हैं। जब इस बात का ग्यान हो जाए कि भगवान ही सबकुछ हैं, मनुष्य कुछ भी नहीं तो फिर भगवान उस व्यक्ति पर क्यों नहीं कृपा करेंगे। लेकिन बार- बार पढ़ने के बाद, सुनने के बाद भी अनेक लोग यह मानते रहते हैं कि जो कुछ किया, उन्होंने किया। वे अपनी अंतरात्मा से यह मान ही नहीं पाते कि ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं, सर्वव्यापी हैं और सर्वग्याता है। वेदांत ने यूं ही नहीं कहा है- जगत मिथ्या, ईश्वर सत्य

Thursday, September 16, 2010

आत्मा और परमात्मा

विनय बिहारी सिंह


परमहंस योगानंद ने कहा है कि भगवान ने मनुष्य की आत्मा को अपने प्रतिरूप में बनाया। रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनासी। गीता में भगवान कृष्ण ने आत्मा को अपना ही प्रतिरूप कहा है। यानी आत्मा परमात्मा का ही अंश है। आप पूछेंगे कि अगर ऐसा है तो हम ईश्वर को अपने भीतर महसूस क्यों नहीं करते? तो इसका उत्तर है- क्योंकि हमारा मन चंचल रहता है। मन स्थिर हो, मन कंपास की सुई भगवान की तरफ घूमे और लगातार उसी दिशा में बनी रहे तो अवश्य हम भगवान को महसूस करेंगे। लेकिन ऐसा होता कहां है? भगवान हमारी प्राथमिकता में रहते नहीं हैं। ऋषि पातंजलि ने कहा है- चित्त की वृत्तियों का बंद हो जाना ही योग है। चित्त की वृत्तियां तो तरह- तरह की कामनाएं करती रहती हैं। कभी यह चाहिए, कभी वह चाहिए। लेकिन जो चाहिए, अगर वह मिल जाता है तो भी चैन नहीं मिलता। फिर नई कामना और उसके पाने की इच्छा, फिर छटपटाहट, तनाव और न मिलने पर निराशा या क्रोध। जब हम इन वृत्तियों में फंसे रहेंगे तो शांति कहां है? परमहंस योगानंद ने कहा है- प्रत्याहार सबसे अच्छा साधन है। प्रत्याहार- यानी इंद्रियों से मन को खींच कर ईश्वर में लगाना। यह अभ्यास से होता है। ठीक- जैसे कछुआ अपने सारे अंगों को समेट लेता है। कछुए की इस क्रिया को उदाहरण के लिए प्रत्याहार का नाम दे सकते हैं। प्रत्याहार के बाद अनन्य भक्ति और समर्पण की बारी आती है। भगवान कृपालु और करुणासागर हैं। हमने उनके सामने समर्पण किया नहीं कि वे अपना प्यार उड़ेल देंगे। अगर हम शांत हैं, मन चंचल नहीं है तो उनका प्यार हमें स्पष्ट रूप से अनुभव होगा।

Tuesday, September 14, 2010

बहुत फायदे हैं अच्छा सोचने और करने के

विनय बिहारी सिंह


सभी संतों ने कहा है कि मन को अच्छी सोच और अच्चे कार्य में लगाए रखने से आपका कल्याण होता है। आपके शरीर में अच्छी तरंगों के वाइब्रेशन होंगे, आपको अच्छी नींद आएगी और तनाव कम हो जाएगा। अब तो वैग्यानिकों ने भी प्रयोगों के आधार पर यह बात मान ली है कि अगर आप कोई अच्छा कार्य करते हैं, अच्छा सोचते हैं तो आप अपने लिए सुख का रास्ता खोल देते हैं। संतों को इसमें कनफ्यूजन नहीं था। उन्होंने कहा- भगवान से शुभ और क्या हो सकता है? आप सदा भगवान का चिंतन कीजिए। भगवान के बारे में बातें कीजिए या भगवान के बारे में पढ़िए। आप पाएंगे कि आपका जीवन सकारात्मक ढंग से बदल गया। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- हे अर्जुन, तू मेरा भक्त बन, मुझे प्रणाम कर, सारे काम मुझे अर्पित कर दे, तेरा कल्याण होगा। लेकिन हम तो अपने काम और अपनी समस्याएं अपने तक सीमित रख कर अंदर ही अंदर परेशान होते रहते हैं। भगवान कहते हैं कि सबकुछ मुझे सौंप कर निश्चिंत हो जाओ। तुम्हारा योग-क्षेम मैं वहन करूंगा। चिंता मत करो। सिर्फ मेरे लिए सब काम करो। आप भोजन करिए तो भगवान को चढ़ा कर, स्नान कीजिए तो भगवान का स्मरण कर। इस तरह आप पाएंगे कि भगवान आपकी दिनचर्या के हिस्सा बन गए। आपके भीतर का आनंद धीरे- धीरे बढ़ने लगेगा। निश्चय ही यह ईश्वर की कृपा का फल है। लेकिन भगवान की शरणागति जरूरी है

Thursday, September 9, 2010

या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता

विनय बिहारी सिंह


मां के रूप में भगवान की पूजा बहुत ही मधुर है। मां दुर्गा या काली या सरस्वती के रूप में उनकी पूजा करने वाले भक्तों का कहना है कि मां अपनी संतान को दिल से प्यार करती है। वह उनकी कमियों को सुधारती है, उन्हें अच्छा से अच्छा और पौष्टिक भोजन देती है और उनके बहुमुखी विकास का रास्ता साफ कर देती है। कहा भी गया है- या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता। इसके बाद या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता........ नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। वे ही माता हैं और वे ही शक्ति हैं। वे ही सब कुछ हैं। उनके अलावा और कोई है ही नहीं। माता की पूजा में भी विशेष आयोजन की जरूरत नहीं पड़ती। जो भी फल- फूल, अक्षत- रोली आप चढ़ाते हैं, वह उसे प्रसन्नता से ग्रहण करती हैं और आपको अनंतगुना आशीर्वाद देती हैं। कुछ नहीं तो उन्हें धूप- दीप दिखाइए और उनका ध्यान ही कर लीजिए। बस, वे इसी से प्रसन्न हो जाती हैं। उन्हें यह अच्छा लगता है कि उनकी संतान उन्हें याद करती है, उन्हें चाहती है। कहा जाता है कि माता के रूप में ईश्वर की पूजा करने से मनुष्य में धन, जन और वैभव की शक्ति आती है और सफलता का रास्ता खुलता जाता है। लेकिन जो लोग उन्हें पिता के रूप में देखते हैं या पूजा करते हैं, वे भी सौभाग्यशाली हैं।

Wednesday, September 8, 2010

जगन्माता का एक और रूप

विनय बिहारी सिंह


आपको यह कथा याद ही होगी कि जब मथुरा की जेल में भगवान कृष्ण का जन्म हुआ तो उनके पिता वासुदेव जी मथुरा के उस पार गोकुल में नंद जी के घर पर यशोदा जी की गोद में रख आए और यशोदा जी की गोद में रखी नवजात बच्ची को मथुरा ले आए और देवकी की गोद में रख दिया। देवकी की गोद में बच्ची ज्योंही रखी गई वह जोर से रोने लगी। भगवत कृपा से सोए हुए सारे प्रहरी अचानक जग पड़े और दौड़ कर राजा कंस को सूचना दी कि उनकी बहन देवकी को संतान हुई है। कंस आधी रात को ही जेल में आया और देवकी की गोद से बच्ची को छीन कर जमीन पर दे मारने वाला ही था कि बच्ची हाथ से छूट कर आसमान में चली गई और एक दिव्य दैवी प्रकाश के रूप में प्रकट हो कर भविष्यवाणी की- तुम्हारा वध करने वाला तो जन्म ले चुका है कंस। अब तुम बच नहीं सकते। इसके बाद दैवी प्रकाश लुप्त हो गया। इस भविष्यवाणी के बाद से कंस भयभीत रहने लगा। आखिर यह देवी कौन थी। संतों का कहना है कि यह देवी जगन्माता थीं- भगवान का ही एक रूप। दुर्गापूजा करीब आ गया है। पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा की बड़ी धूम रहती है। इसके बाद दीपावली के समय होती है काली पूजा। वे भी जगन्माता का ही एक रूप हैं। परमहंस योगानंद जी ने कहा है कि मां के रूप में भगवान से प्रार्थना काफी प्रभावशाली होती है। मां बच्चे की गलतियों को क्षमा कर उसे अभयदान देती हैं।

Thursday, September 2, 2010

सबके मालिक हो कर भी
छुपे रहते हैं भगवान

विनय बिहारी सिंह


परमहंस योगानंद जी ने कहा है- सबके मालिक हो कर भी भगवान छुपे रहते हैं। लेकिन मनुष्य कुछ भी करके - मैंने किया, मैंने किया कहने लगता है। यानी अहंकार हावी हो जाता है। परमहंस जी ने कितनी सटीक बात कही है। हम तो अपने बेटे- बेटियों की शादी भी करते हैं तो बताते नहीं थकते कि कितनी धूमधाम से यह शादी हुई। आश्चर्य है। कितना अहंकार छुपा हुआ है हमारे भीतर? जब तक यह दूर नहीं होगा, भगवान क्यों हमें महसूस कराएंगे कि वे दिन रात हमारे साथ हैं। वे अंतर्यामी हैं और हमारी सूक्ष्मतम सोच को भी जानते हैं क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं। कब हम झूठ बोलते हैं, कब अपने भीतर सड़े हुए विचार लाते हैं, वे सब जानते हैं। दूसरों के बारे में जब हम हिंसात्मक विचार लाते हैं, ईश्वर हमसे दूर भाग जाते हैं। तब शैतान हमारे साथ रहता है। इसीलिए धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मन में अच्छे विचार रखें। अच्छे विचार साबुन की तरह होते हैं। वे सारी मैल धो कर हमारा अंतरमन निर्मल कर देते हैं। अच्छे विचार ही हमारे लिए भगवान को लेकर आते हैं। वे लोग कितने भाग्यशाली हैं जो ईश्वर को दिन रात याद करते रहते हैं। चाहे वे काम कर रहे हों या कुछ भी। ईश्वर उनकी सोच के केंद्र में होते हैं