Tuesday, March 31, 2009

शनि ग्रह



विनय बिहारी सिंह


शनि ग्रह का नाम सुनते ही कई लोग भयभीत हो जाते हैं। लेकिन यह डर बेकार ही है। सूर्य से १४०००००००० किलोमीटर दूर यह ग्रह सौर मंडल का दूसरा सबसे बड़ा ग्रह है। इस ग्रह हाइड्रोजन और हीलियम से भरा हुआ है। इसमें भी हाइड्रोजन ज्यादा है। सूर्य की एक बार परिक्रमा करने में शनि को करीब २९ साल ६ महीने लगते हैं। यह एक मात्र ऐसा ग्रह है जो सूर्य से सबसे दूर है और पानी से कम घनत्व वाला भी है। सन १९८० में वोएगर- १ उपग्रह ने इसकी जो तस्वीरें भेजीं उससे इसके बारें में जानकारी मिलनी शुरू हुई। उसके अगले साल यानी १९८१ में वोएगर-२ उपग्रह भेजा गया था जिसने शनि के सतह की व्यापक जानकारी दी थी। उसके बाद कैसीनी उपग्रह ने इस ग्रह की सतह और वलयों की जानकारी और फोटो भेजे। तब काफी कुछ इस ग्रह के बारे में पता चला। मजे की बात तो यह है कि शनि ग्रह पर हाइड्रोजन और हीलियम का राज है तो उसके चारो तरफ वाले वलय यानी रिंग में आक्सीजन है। यानी शनि ग्रह और उसके वलय का वातावरण अलग- अलग है। वृहस्पति, यूरेनस और नेप्चून के साथ इसे भी अंग्रेजी में गैस जियांट कहते हैं। शनि ग्रह के नाम से कई लोग डर जाते हैं। जहां सुना कि शनि की साढ़े साती या ढैया है तो बस डर गए। अभी शनि वक्री है (यह लेख ३१ मार्च २००९ को लिखा जा रहा है) और मई २००९ के आखिर तक वक्री रहेगा। लेकिन आपको बता दें, शनि की साढ़े साती में ही मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे। इसलिए साढ़े साती में आदमी का जीवन नष्ट नहीं हो जाता। जब साढ़े साती या ढैया नहीं भी रहती है तो भी तो आदमी को परेशानी होती ही है। लेकिन हां कुछ सावधानियां बरतनी होती हैं जिससे राहत मिलती है। इसमें शनिवार को नमक न खाना जैसे उपाय काम करते हैं। जिनके ऊपर शनि का प्रभाव है वे हैं- सिंह औऱ कन्या। चूंकि शनि वक्री है और अभी सिंह राशि में है तो कुछ ज्योतिषियों का मत है कि इसका प्रभाव कर्क राशि पर भी पड़ रहा है। लेकिन मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि कर्क क्या, सिंह राशि पर भी इसका प्रभाव न के बराबर है और ऐसी स्थिति मई के अंत तक रहेगी।

Monday, March 30, 2009

शुक्र ग्रह



विनय बिहारी सिंह


आइए आज शुक्र की बात करें। जब टेलीस्कोप का अविष्कार नहीं हुआ था तभी पाइथागोरस ने इसका पता लगा लिया था। यह छठवीं शताब्दी की बात है। फिर १७वीं शताब्दी में गैलीलियो ने इसकी सतह पर क्या है, इस पर विस्तार से शोध किया। शुक्र या वीनस रोमन गाडेस यानी देवी है। यह आकाश में चमकने वाले ग्रहों में चंद्रमा के बाद दूसरा सबसे चमकीला ग्रह है। यह बुध के बाद दूसरा ग्रह है जो सूर्य के सबसे करीब है। १९८० में पायनियर वीनस आर्बिटर ने जाकर यह जानकारी भेजी कि शुक्र का मैग्नेटिक फील्ड या चुंबकीय ताकत पृथ्वी की तुलना में कमजोर है। सूर्य से १०८ किलोमीटर दूर यह ग्रह मनुष्य के सौंदर्य और प्यार को प्रभावित करने वाला माना जाता है। लेकिन यह तो ज्योतिषीय व्याख्या हुई। वैग्यानिक दृष्टि से तो शुक्र ग्रह पर सल्फ्यूरिक एसिड और सल्फर डाई आक्साइड के बादल छाए रहते हैं। जापान के संगठन जाक्सा ने अगले साल शुक्र पर एक उपग्रह भेजने की योजना बनाई है। शुक्र ग्रह पर किस गैस का प्राधान्य है? आप सुन कर चौंकेंगे। यहां कार्बन डाई आक्साइड का बोलबाला है। यानी आक्सीजन का प्रचुर भंडार लेकर शुक्र ग्रह पर जाना होता है। आइए अब ज्योतिषीय व्याख्या पर एक नजर डालें। पहले ही कहा जा चुका है कि शुक्र सौंदर्य और प्रेम का प्रतीक है। अलग अलग कुंडलियों में शुक्र का अलग अलग प्रभाव होता है। अगर शुक्र और मंगल का समीकरण गड़बड़ होगा तो मनुष्य के चरित्र पर इसका गहरा असर होगा। पुरुष हो या नारी शुक्र का उस पर प्रभाव पड़ता ही है। शुक्र ग्रह अगर बलवान और लाभकारी हो तो मनुष्य के जीवन में सुख समृद्धि भी लाता है, लेकिन साथ ही विलासी भी बना देता है।

Saturday, March 28, 2009

एक और अंतर



विनय बिहारी सिंह


अब आइए उस प्रसंग को देखें जब हनुमान जी अशोक वाटिका में सीता जी को देखते हैं। इसे वाल्मीकि और तुलसी रामायण में अलग- अलग ढंगों से किस तरह लिखा गया है। वाल्मीकि का जीवन काल १०० ईस्वी पूर्व से ४०० ईस्वी पूर्व के बीच माना जाता है। जबकि तुलसी दास का जन्म सन १५३२ और देहांत १६२३ ईस्वी में हुआ था। यानी दोनों रामायणों के लेखन काल में १६०० वर्षों का अंतर है। स्वाभाविक है- काल खंड के कारण भी कुछ अंतर आ ही जाएगा।

पहले वाल्मीकि रामायण का अंश-

सीता के निराशा भरे वचनों को सुन कर पवनपुत्र हनुमान अपने मन में विचार करने लगे कि अब इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि यह ही जनकनन्दिनी जानकी हैं जो अपने पति के वियोग में व्यकुल हो रही हैं। यही वह समय है, जब इन्हें धैर्य की सबसे अधिक आवश्यकता है। इस प्रकार निश्चय करके हनुमान मन्द-मन्द मृदु स्वर में आर्य भाषा में, जो राक्षस समुदाय के लिये एक अपरिचित भ瓥ाषा थी, बोलने लगे - "इक्ष्वाकुओं के कुल में परमप्रतापी, तेजस्वी, यशस्वी एवं धन-धान्य समृद्ध विशाल पृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती महाराज दशरथ हुये हैं। उनके ज्येष्ठ पुत्र उनसे भी अधिक तेजस्वी, परमपराक्रमी, धर्मपरायण, सर्वगुणसम्पन्न, अतीव दयानिधि श्री रामचन्द्र जी अपने पिता द्वारा की गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिये अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ जो उतने ही वीर, पराक्रमी और भ्रातृभक्त हैं, चौदह वर्ष की वनवास की अवधि समाप्त करने के लिये अनेक वनों में भ्रमण करते हुये चित्रकूट में आकर निवास करने लगे। उनके साथ उनकी परमप्रिय पत्नी महाराज जनक की लाड़ली सीता जी भी थीं। वनों में ऋषि-मुनì瓥;यों को सताने वाले राक्षसों का उन्होंने सँहार किया। लक्ष्मण ने जब दुराचारिणी शूर्पणखा के नाक-कान काट लिये तो उसका प्रतिशोध लेने के लिये उसके भाई खर-दूषण उनसे युद्ध करने के लिये आये जिनको रामचन्द्र जी ने मार गिराया और उस जनस्थान को राक्षसविहीन कर दिया। जब लंकापति रावण को खर-दूषण की मृत्यु का समाचार मिला तो वह अपने मित्र मारीच को ले कर छल से जानकी का हरण करने के लिये पहुँचा। मायावी मारीच ने एक स्वर्ण मृग का रूप धारण किया, जिसे देख कर जानकी जी मुग्ध हो गईं। उन्होंने राघवेन्द्र को प्रेरित कर के उस माया मृग को पकड़ कर या मार कर लाने के लिये भेजा। दुष्ट मारीच ने मरते-मरते राम के स्वर में 'हा सीते! हा लक्ष्मण!' कहा था। जानकी जी भ्रम में पड़ गईं और लक्ष्मण को राम की सुधि लेने के लिये भेजा। लक्ष्मण के जाते ही रावण ने छल &#瓥3े सीता का अपहरण कर लिया। लौट कर राम ने जब सीता को न पाया तो वे वन-वन घूम कर सीता की खोज करने लगे। मार्ग में वानरराज सुग्रीव से उनकी मित्रता हुई। मुग्रीव ने अपने लाखों वानरों को दसों दिशाओं में जानकी जी को खोजने के लिये भेजा. मुझे भी आपको खोजने का काम सौंपा गया। मैं चार सौ कोस चौड़े सागर को पार कर के यहाँ पहुँचा हूँ। श्री रामचन्द्र जी ने जानकी जी के रूप-रंग, आकृति, गुणों आदि का जैसे वर्णन किया था, उस शुभ गुणों वाली देवी को आज मैंने देख लिया है।" यह कर कर हनुमान चुप हो गये। राम के वियोग में तड़पती हुई सीता के कानों में जब हनुमान द्वारा सुनाई गई यह अमृत कथा पहुँची तो वे विस्मय से चौंक उठीं। इस राक्षस पुरी में राम की पावन कथा सुनाने वाला कौन आ गया? उन्होंने अप&#瓥344;े मुखमण्डाल पर छाई हुई केश-राशि को हटा कर चारों ओर देखा, परन्तु उस कथा को सुनाने वाले व्यक्ति को वे नहीं देख सकीं। उन्हें यह तो आभास हो रहा था कि यह स्वर उन्होंने उसी वृक्ष पर से सुना है जिसके नीचे वे खड़ी थीं। उन्होंने फिर ध्यान से ऊपर की ओर देखा। बड़े ध्यान से देखने पर उन्हें वृक्ष की घनी पत्तियों में छिपी हनुमान की तेजस्वी आकृति दिखाई दी। उन्होंने कहा, "भाई! तुम कौन हो? नीचे उतर कर मेरे सम्मुख क्यों नहीं आते?"सीता का निर्देश पाकर हनुमान वृक्ष से धीरे-धीरे नीचे उतरे और उनके सामने आ हाथ जोड़ कर बोले, "हे देवि! आप कौन हैं जो मुझसे वार्तालाप करना चाहती हैं? आपका कोमल शरीर सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होने योग्य होते हुये भी आप इस प्रकार का नीरस जीवन व्यतीत कर रही हैं। आपके अश्रु भरे नेत्रों से ज्ञात होता है -आप अत्यन्त दुःखी हैं। आपको देख कर ऐसा प्रतीत होता है किस आप आकाशमण्डल से गिरी हुई रोहिणी हैं। आपके शोक का क्या कारण है?

अब यही प्रसंग तुलसी रामायण (ramcharitmanas) में देखें-

विभीषणजी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान्‌जी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥3॥

* देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि

तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥

भावार्थ:-सीताजी को देखकर हनुमान्‌जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥ दोहा :

* निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल दुखी भा पवनसुत देखि जानकी

:-श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥

सोरठा :* कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि

असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥

भावार्थ:-तब हनुमान्‌जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥

चौपाई :* तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति

चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

भावार्थ:-तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥

* जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं

मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

भावार्थ:-(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-॥2॥

* रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख

सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥३

भावार्थ:-वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

* श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन

हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥

भावार्थ:-(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ॥4॥

* राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान

मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥५

भावार्थ:-(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥5॥

* नर बानरहि संग कहु कैसें। कही कथा भइ संगति जैसें॥6॥

भावार्थ:-(सीताजी ने पूछा-) नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही॥6॥

दोहा :* कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वासजाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥१३

भावार्थ:-हनुमान्‌जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥13॥

Friday, March 27, 2009

वाल्मीकि और तुलसी रामायण में क्या अंतर है?


विनय बिहारी सिंह

वाल्मीकि और तुलसी रामायण क्या कोई अंतर है? आप कहेंगे नहीं। दोनों में ही भगवान के दिव्य गुणों और पराक्रम का वर्णन है। लेकिन दोनों ऋषियों के वर्णन का अंतर भी देखना सुखद है। आइए इस सुख में हम भी शामिल हों। सुंदरकांड को ही लें। वाल्मीकि रामायण में लिखा है-
समुद्र के तटवर्ती शैल पर चढ़ कर हनुमान अपने साथी वानरों से बोले, "मित्रों! अब तुम मेरी ओर से निश्चिन्त हो कर श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करो। मैं अब अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव कर रहा हूँ जिसके बल पर मैं आकाश मार्ग से उड़ता हुआ सामने फैले हुये सागर से भी दस गुना बड़े सागर को पार कर सकता हूँ" इतना कह कर हनुमान जी पूर्वाभ्यास के रूप में उस विशाल पर्वत की चोटियों पर इधर-उधर कूदने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने अपने शरीर को झटका दे कर एक विशाल वृक्ष को अपनी भुजाओं में भर कर इस प्रकार झकझोरा कि उसके सभी फूल पत्ते झड़ कर पृथ्वी पर फैल गये। फिर वर्षाकालीन घनघोर बादल की भाँति गरजते हुये उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं और पैरों को सिकोड़ कर, प्राण वायु को रोक उछलने की तैयारी करते हुये पुनः वानरों को सम्बोधित किया, "हे भाइयों! जिस तीव्र गति से रामचन्द्र जी का बाण चलता है, उसी तीव्र गति से उनके आशीर्वाद से मैं लंका में जाउँगा और वहाँ पहुँच कर सीता जी की खोज करूँगा। यदि वहाँ भी उनका पता न चला तो रावण को पकड़ कर रामचन्द्र जी के चरणों लाकर पटक दूँगा। आप विश्वास रखें कि मैं निष्फल हो कर कदापि नहीं लौटूँगा।"
तुलसी रामायण (रामचरितमानस) में लिखा है-हनुमान्‌जी का लंका को प्रस्थान, सुरसा से भेंट, छाया पकड़ने वाली राक्षसी का वध
चौपाई :* जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥

भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

* जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

भावार्थ:-जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

* सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

भावार्थ:-समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यंत बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बड़े वेग से उछले॥3॥

* जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

भावार्थ:-जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी

चले॥4॥

* जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

भावार्थ:-समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥

दोहा :* हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

भावार्थ:-हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचंद्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥

चौपाई :* जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

भावार्थ:-देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा.

Thursday, March 26, 2009

नारद भक्ति सूत्र



विनय बिहारी सिंह


आइए आज नारद भक्ति सूत्र की बात करें। नारद मुनि योग, ग्यान और भक्ति के मिश्रण थे। उन्हें विष्णु का अवतार कहा जाता है। दो ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक माने जाते हैं- नारद जी का लिखा नारद सूत्र और शांडिल्य ऋषि का लिखा- भक्ति मीमांसा। नारद भक्ति सूत्र इसलिए भी प्रामाणिक है क्योंकि वह पूरी तरह अनुभव पर आधारित है। यह बात विख्यात है कि नारद जी किसी भी लोक या देवता से मिल सकते हैं। उन्हें कहीं भी जाने में क्षण भर लगता है। आइए नारद भक्ति सूत्र के कुछ अंश देखें-

वह तो (भक्त) ईश्वर में परम प्रेम रूपा है और अमृत स्वरूप है। उसे पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है। न शोक करता है, द्वेष करता है, न विषयों में रमण करता है। जिसको जान कर (भक्त) उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है और आत्म संतुष्ट रहता है। भक्तिमान मनुष्य के मन में कामनाएं नहीं रहतीं। ईश्वर में ही अनन्यता और ईश्वर के विरुद्ध विषयों में उदासीनता रहती है। आवश्यक सांसारिकता आदि को निभाते रहना चाहिए, जैसे- स्नान, भोजन आदि कर्म शरीर के निर्वाह के लिए जरूरी है। पूजा आदि के प्रति अनुराग भी भक्ति है। गर्ग मुनि के मुताबिक भागवत आदि कथाओं में रुचि होना भी भक्त के लक्षण हैं। भगवान पर अपना सब कुछ छोड़ कर, उन्हें भूल जाने पर व्याकुल हो जाना अनन्य भक्त के लक्षण हैं। भगवान के महात्म्य को जाने बिना उनसे प्रेम, साधारण प्रेम कहा जाता है। भक्ति योग, ग्यान योग और कर्म योग से भी बड़ा है। क्योंकि ग्यान औऱ कर्म योग से भक्ति मिलती है। जैसे राजा भोजन और वस्त्र सिर्फ देख कर ही संतुष्ट नहीं होता, उसका भोग भी आवश्यक है, उसी तरह भक्त के लिए भक्ति की बात पढ़ना या सुनना संतुष्टिदायक नहीं होता। भक्त तो खुद भगवान को महसूस करना चाहता है। बिना रुके भगवान को याद करना, लोगों से घिरे हो कर भी, भगवान में मन लगे रहना और निरंतर उनका स्मरण, सिद्ध महात्माओं का संग मिलना व्यर्थ नहीं जाता। लेकिन ऐसे महात्माओं का मिलना ईश्वर की कृपा से ही संभव है। भगवान में और सत में कोई अंतर नहीं है। भगवत प्राप्ति के लिए गहरी साधना जरूरी है। बुरी संगत सदा के लिए त्याग देनी चाहिए। काम और क्रोध बुद्धि को नष्ट कर देते हैं और ये साधना में बाधा हैं। सच्चा भक्त लाभ और रक्षा के लिए चिंता नहीं करता। वह तो भगवान में हमेशा ही डूबा रहता है। यह था नारद भक्ति सूत्र का एक छोटा सा अंश। इसे पढ़ कर सचमुच मन पवित्र होता है।

Wednesday, March 25, 2009

स्टेम सेल से बन सकता है सिंथेटिक खून


विनय बिहारी सिंह

आखिर इंग्लैंड के वैग्यानिकों ने भ्रूण के स्टेम सेल से सिंथेटिक खून बनाने का कमाल कर ही दिया। हमारे ऋषि- मुनियों ने न जाने कितने लोगों को नया जीवन दिया है। किसी बीमार व्यक्ति को वे तत्काल स्वस्थ कर देते थे। किसी कष्ट से मर रहे व्यक्ति को राहत देते थे और उसका जीवन बचा लेते थे। आज वही काम वैग्यानिक कर रहे हैं। इससे हमारे ऋषियों के चमत्कार प्रमाणित ही होते हैं। स्टेम सेल बना खून एकदम स्वस्थ होगा। उसमें कोई त्रुटि नहीं होगी और किसी को भी वह खून दिया जा सकता है। इस तरह अब खून की कमी की समस्या हल हो गई। ये वैग्यानिक ओ- निगेटिव खून बनाने में सफल हो गए हैं। ओ- निगेटिव खून यूनिवर्सल डोनर है यानी यह खून किसी भी ग्रुप के खून वाले को दिया जा सकता है। उसका शरीर ओ- निगेटिव खून स्वीकार कर लेगा। मान लीजिए कि आपका ब्लड ग्रुप ए- पाजिटिव है। और आपके शरीर में बी- पाजिटिव खून डाल दिया गया तो आपका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। लेकिन अगर आपको ओ- निगेटिव ब्लड दिया गया तो आपका शरीर मजे से इसे स्वीकार कर लेगा। ओ- निगेटिव बहुत कम लोगों का खून होता है। पूरी आबादी का सिर्फ ७ प्रतिशत खून ही ओ- निगेटिव होता है। लेकिन अच्छी बात यह है कि यह खून हर ग्रुप के व्यक्ति को दिया जा सकता है। इंग्लैंड के वैग्यानिकों को जितना धन्यवाद दिया जाए, कम है।

Tuesday, March 24, 2009

क्या हमें ईश्वर सर्वाधिक प्रिय हैं?



विनय बिहारी सिंह


हममें से कितने लोग हैं जो ईश्वर से जी भर कर प्यार करते हैं? हमारे जीवन में मां का स्थान सबसे ऊंचा है। मां के प्यार का कोई विकल्प नहीं है (हालांकि मेरी मां मेरे बचपन में ही गुजर गई थीं, तबसे जगन्माता ही मुझे प्यार दे रही हैं) । क्या हम ईश्वर से मां से भी बढ़ कर प्यार कर पाते हैं। ईश्वर से प्यार करने की बात इसलिए क्योंकि उसी ने हमें जीवन दिया है। हम जो सांसें लेते हैं, उसी की कृपा के कारण। हम सबकी सांसें गिनी हुई हैं। जब सांस पूरी हो जाएगी तो हमें अंतिम सांस ले कर इस संसार से विदा लेनी पड़ेगी? क्या आपने कभी सोचा है कि जन्म लेने के पहले आप कहां थे? या मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? आपका जीवन जीवन और मृत्यु के बीच वाला हिस्सा भर है। क्या आप जानते हैं कि दूसरों को नुकसान पहुंचाने का विचार आपको भी कभी न कभी नुकसान पहुंचा कर दम लेता है? जी हां, यह सच है। तो सवाल था कि हममें से कितने लोग ईश्वर को दिलो जान से चाहते हैं? क्या हम ईश्वर के लिए कभी भी रोते हैं? नहीं। हम पत्नी के लिए, प्रेमी या प्रेमिका के लिए, मां- पिता के लिए तो रोते हैं। व्यवसाय में नुकसान होने पर तो रोते हैं। लेकिन ईश्वर को दर्शन देने के लिए नहीं रोते। कोई चीज हम नहीं पा सके तो उसका दुख हमें खूब होता है। कोई मौका खो देते हैं तो उसका दुख भी खूब होता है। किसी ने गहरा दुख पहुंचा दिया तो कई अकेले में रोते हैं। लेकिन ईश्वर के लिए बहुत कम लोग रोते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें दिन रात ईश्वर के लिए रोना ही चाहिए। उससे प्रार्थना करनी चाहिए, ध्यान करना चाहिए। उसे हमेशा दिल में रखना चाहिए। लेकिन जब लगे कि उसने आपकी बात का मूक जवाब नहीं दिया, कोई संकेत भी नहीं दिया तो हम शिकायत क्यों न करें। आखिर बचपन में मां से अपनी बात मनवाने के लिए रोते थे या नहीं?

कैसा है वृहस्पति ग्रह



विनय बिहारी सिंह


वैसे तो सभी ग्रहों का अपना महत्व है, लेकिन ज्योतिष में वृहस्पति ग्रह अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैग्यानिक भी इसे इसलिए महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि पृथ्वी से वृहस्पति का मैग्नेटिक फील्ड या चुंबकीय ताकत १४ गुना ज्यादा है। सूर्य से यह ग्रह ७७८ मीलियन किलोमीटर दूर है। चंद्रमा और शुक्र के बाद सर्वाधिक चमकने वाला ग्रह यही है। वृहस्पति पर हाइड्रोजन (९०- ९२ प्रतिशत) और हीलियम (१२ प्रतिशत) का प्राधान्य है। वैसे हीलियम के एटम हाइड्रोजन से चार गुना बड़े होते हैं। नासा ने वृहस्पति ग्रह के बारे में जानने के लिए २००७ में न्यू होराइजंस उपग्रह भेजा है। सन २०११ तक नासा जूनो नाम का उपग्रह भेजने वाला है जो वृहस्पति के बारे में विस्तार से जानकारी देगा। इसके पहले इस ग्रह पर वोएगर, गैलीलियो आर्बिटर नामक उपग्रह जा चुके हैं। वृहस्पति अमोनिया क्रिस्टल के बादलों से ढंका हुआ है। अंदाजा लगाया गया है कि ये बादल अमोनिया हाइड्रो सल्फाइड हैं। ज्योतिष में जब लड़कियों की शादी के बारे में विचार करना होता है तो वृहस्पति पर नजर डाली जाती है। यह ग्रह कहां है, किस राशि में बैठा है और इसका प्रभाव क्या है। ज्योतिष में यह ग्रह अत्यंत शुभ और जीवन की दिशा बदल देने वाला है। कई लोगों के जीवन में तो यह आमूल परिवर्तन कर डालता है। लेकिन अगर विपरीत हुआ तो कष्ट भी देता है। इस ग्रह को लेकर मेरे मन में हमेशा से उत्सुकता रही है। इसके प्रभावों पर अभी भी मैं अध्ययन कर रहा हूं। यह ग्रह इतना रोचक है कि उत्सुकता बढ़ती ही जाती है। महिलाएं मंगलदायी माहौल के लिए वृहस्पति व्रत करती हैं और वृहस्पति कथा पढ़ती हैं। उस दिन कुछ महिलाएं पीले वस्त्र औऱ पीली वस्तुओं का सेवन भी करती हैं।

Monday, March 23, 2009

कैसा है बुध ग्रह



विनय बिहारी सिंह


बुध ग्रह के बारे में जानना भी कम रोचक नहीं है। सौर मंडल में यह सबसे छोटा ग्रह है और ८८ दिन में यह सूर्य की परिक्रमा करता है। लेकिन छोटा ग्रह होने के बावजूद इसकी चुंबकीय ताकत या मैग्नेटिक फील्ड काफी ताकतवर है। कई वैग्यानिकों का तो यह भी कहना है कि बुध की चुंबकीय ताकत पृथ्वी की ही चुंबकीय ताकत की तरह है। बुध ग्रह पर भी करीब- करीब वही रासायनिक तत्व हैं जो चंद्रमा पर पाए जाते हैं। ज्योतिषियों का कहना है कि बुध का एक हिस्सा तो काफी गर्म होता है लेकिन दूसरा काफी ठंडा। बुध ग्रह की स्थिति से बुद्धि और जीवन के कई पक्षों की भविष्यवाणी की जा सकती है। लेकिन बुध ग्रह अगर कोप करता है और कुछ अन्य ग्रह भी विपरीत होते हैं तो त्वचा रोग भी होते हैं। बुध ग्रह पर नासा ने ६० के दशक में मेरिनर उपग्रह भेजा था। उसके बाद ३ अगस्त २००४ को नासा ने मैसेंजर उपग्रह भेजा। ये उपग्रह बुध ग्रह की तस्वीरें भेजते हैं। बुध ग्रह पर उपग्रह भेजना बहुत बड़ी चुनौती इसलिए भी थी क्योंकि यह ग्रह सूर्य के करीब है। लेकिन नासा ने सभी विकल्पों की तैयारी कर अपने उपग्रह भेजे।

Saturday, March 21, 2009

मंगल ग्रह और हनुमान जी



विनय बिहारी सिंह


मंगल ग्रह को लेकर सबके भीतर भारी उत्सुकता रहती है। इसे रेड प्लैनेट यानी लाल ग्रह कहा जाता है। दरअसल यह आयरन आक्साइड के कारण लाल दिखता है। नासा ने १९६४ में पहली बार मंगल ग्रह पर मेरिनर- ४ भेज कर नया कीर्तिमान स्थापित किया था। हाल ही में फिनिक्स लैंडर ने जो तस्वीर भेजी उससे वैग्यानिकों को पक्का विश्वास हो गया कि मंगल ग्रह पर जल था। इससे ये अनुमान लगाए गए कि वहां भी जीवन रहा होगा। रोचक बात यह भी है कि मंगल ग्रह को हम पृथ्वी से नंगी आंखों से देख सकते हैं.। मंगलवार को भगवान हनुमान के मंदिर में भारी भीड़ रहती है। इसी तरह काली मंदिर में भी मंगल और शनि को भीड़ होती है। हनुमान जी के बारे में कहा जाता है कि वे मंगलवार को ही जन्मे थे। यह तो तय है कि मंगलवार के दिन हनुमान जी की पूजा और हनुमान चालीसा के पाठ से कल्याण होता है। यह बात सिद्ध है। मंगल ग्रह पर अल्कलाइन, मैग्नीसियम, सोडियम, पोटेसियम, क्लोराइड वगैरह रसायन पाए गए हैं। गैसों में कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रोजन और आक्सीजन पाया गया है। कुछ वैग्यानिकों का कहना है कि वहां मीथेन गैस भी पाई गई है। मंगल ग्रह सूर्य से २३० मीलियन किलोमीटर दूर है। जब सूर्य मंगल के करीब आता है तो वहां आंधी आती है। अगर किसी का मंगल ग्रह कमजोर है तो उसे मंगलवार के दिन हनुमान जी की पूजा और हनुमान चालीसा का पाठ करने को कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा तो फायदा यही है कि इससे भगवान राम प्रसन्न होते हैं औऱ जब सृष्टि के रचयिता ही प्रसन्न हों तो फिर उस आदमी को सबकुछ मिल जाता है। हनुमान जी उच्च कोटि के संत हैं। उन्हें खुद के लिए कुछ नहीं चाहिए। वे तो बस अपने औऱ राम जी के भक्तों के लिए कल्याण करते रहते हैं। वे दरिया दिल हैं। सिर्फ जल चढ़ा दीजिए तो भी वे प्रसन्न हैं। अगर जल नहीं चढ़ा पाए, थोड़ी देर उनके सामने खड़े होकर दिल से उन्हें पुकार दिया तो भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। और सिर्फ वही नहीं प्रसन्न होते, भगवान राम भी प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी परम कल्याणकारी हैं। एक बार उनकी सच्ची अराधना करके तो देखिए।

Friday, March 20, 2009

चंद्रमा को अर्घ्य


विनय बिहारी सिंह

आइए आज चंद्रमा के बारे में जानें। आखिर गणेश चतुर्थी और करवा चौथ को महिलाएं व्रत करने के बाद अर्घ्य देती ही हैं। हमारे मुसलिम भाई भी ईद चांद देखने के बाद ही मनाते हैं। कोई अगर अपनी प्रेयसी का वर्णन करता है तो उसे चांद का टुकड़ा कहता है। न जाने कितने कवियों ने चांद पर कविताएं लिखी होंगी। तो चांद हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। हो भी क्यों न। आखिर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष क्या बिना चंद्रमा के संभव है? पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी ३८४, ४०३ किलोमीटर है। यानी यह सूर्य की तुलना में पृथ्वी के बहुत करीब है। चंद्रमा २७ दिन में पृथ्वी की एक बार परिक्रमा करता है। यही एक मात्र ग्रह है जिस पर मनुष्य ने अपना कदम रखा है। बिना मनुष्य के सोवियत संघ का लूना -१ गया था। उसके बाद लूना-२, लूना-३, .......लूना-९, लूना- १० तक गए। अमेरिका ने अपोलो मनुष्य सहित भेज कर एक और कीर्तिमान बना दिया। सन २०२० तक कई देशों ने अपने एस्ट्रोनाट्स को चद्रमा पर भेजने की योजना बनाई है। आखिर चंद्रमा पर कौन सी गैसें हैं? गैसें तो कई हैं- आक्सीजन, हीलियम, मीथेन, नाइट्रोजन,, कार्बन मोनोआक्साइड, कार्बन डाई आक्साइड वगैरह वगैरह। धातुओं में आयरन तो है ही सिलिकान, मैग्नीसियम, कैल्शियम, अल्यूमिनियम भी है। चंद्रमा हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है? चंद्रग्रहण के दिन हम भारी उत्सुकता से क्यों पूछते रहते हैं कि ग्रहण खत्म हुआ कि नहीं? पृथ्वी अपनी धुरी पर चंद्रमा से २७ गुना तेज घूमती है, वह भी उसी दिशा में जिस दिशा में चंद्रमा घूमता है। चूंकि अन्य प्रभावशाली ग्रहों की तुलना में चंद्रमा पृथ्वी के करीब है। इसलिए पृथ्वी के अपेक्षाकृत तेजी से घूमने से एक जबर्दस्त चुंबकीय प्रभाव क्षेत्र बनता है, जिससे समुद्र में ज्वार भाटा आते हैं। चंद्रमा में तो इतना जबर्दस्त आकर्षण पैदा होता है कि कई बार ज्वार भाटे भयंकर हो जाते हैं। जिन लोगों का मस्तिष्क बीमार है या जो पागल हैं उनका भी मिजाज चंद्रमा से प्रभावित होता है। कई बार चतुर्थी के आसपास कुछ पागल जबर्दस्त हिंसक हो उठते हैं। कुछ तो पूर्णिमा के आसपास हिंसक हो जाते हैं। तो चंद्रमा को अर्घ्य क्यों दिया जाता है? ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा हमारे मन का प्रतिनिधित्व करता है। उसे माता का दर्जा दिया गया है। सूर्य पिता है तो चंद्रमा माता। चंद्रमा को लेकर धार्मिक और लोक कथाएं भी बहुत हैं। लेकिन यहां हम आध्यात्मिक पक्ष पर ही बात करेंगे। व्रत के बाद चंद्रमा को अर्घ्य देने से परिवार में सुख- शांति आती है। जो लोग चंद्रमा को वैसे भी अर्घ्य देते हैं, उनका कल्याण होता है। चूंकि चंद्रमा सीधे हमारे मन को प्रभावित करता है, इसलिए उसे अर्घ्य देने से अर्घ्य जल से छन कर आने वाली रश्मियां स्वास्थ्य और मन के लिए परम कल्याणकारी होती हैं। चंद्रमा हमारे शरीर को सीधे- सीधे प्रभावित करता है। इसलिए उसे दिया गया अर्घ्य वैग्यानिक तौर पर हमें फायदा पहुंचाता है।

Thursday, March 19, 2009

सूर्य को क्यों जल चढ़ाते हैं



विनय बिहारी सिंह


सूर्य को जल चढ़ाने से क्या कोई फायदा होता है? यह सवाल अक्सर पूछा जाता है। लेकिन हमारे ऋषि- मुनियों ने कहा है कि सूर्य को जल अर्पण करने से हमारे जीवन में सुख और शांति की वृद्धि होती है। कैसे? आइए जानें। पहले कुछ वैग्यानिक तथ्य। सूर्य पृथ्वी से १,४९,६००,००० किलोमीटर दूर है। इसका प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने में ८ मिनट १९ सेकेंड का समय लेता है। सभी जानते हैं कि सूर्य पृथ्वी के जीवों के लिए महत्वपूर्ण ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के कारण जीवों को तो ऊर्जा मिलती ही है, पेड़- पौधों को भोजन भी सूर्य के कारण ही मिल पाता है। अगर सूर्य की किरणें न हों तो फोटोसिंथेसिस न हो और फोटोसिंथेसिस न हो तो पेड़- पौधे भोजन कैसे बनाएंगे? आखिर उनकी पत्तियों में मौजूद क्लोरोफिल बिना सूर्य के प्रकाश के कर ही क्या पाएगा? ऋषियों ने कहा है कि सूर्य को जल देने से उसकी अदृश्य प्रेम किरणें हमारे हृदय में प्रवेश करती हैं और हमारे शरीर के सारे हानिकारक तत्व नष्ट होते जाते हैं। हम रोज न जाने कितनी नकारात्मक परिस्थितियों से गुजरते हैं। सूर्य को जल चढ़ाते ही हमारे शरीर पर पड़े बुरे प्रभाव तुरंत नष्ट हो जाते हैं और हमें एक नई ऊर्जा मिलती है। पूरे सौरमंडल का ९९.८ प्रतिशत भार सूर्य का है। हालांकि सूर्य के भीतर की मुख्य गैस हाइड्रोजन (७० प्रतिशत) और हीलियम (२८ प्रतिशत) है। लेकिन इसमें आइरन, निकल, आक्सीजन, सल्फर, मैग्नीशियम, सिलिकान, कार्बन, नियान, कैल्शियम और क्रोमियम वगैरह भी है। सूर्य को जल चढ़ाना इसलिए भी लाभकारी है क्योंकि महात्माओं ने कहा है कि जिस जल से हम सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं, उससे छन कर सूर्य का प्रेम तत्व हमारे शरीर में आता रहता है। इस प्रेम तत्व को आप महसूस ही कर सकते हैं। क्योंकि- प्रेम न खेतो नीपजे, प्रेम न हाट बिकाय।।

Tuesday, March 17, 2009

शिव महापुराण की महिमा


विनय बिहारी सिंह

वैसे तो शिव महापुराण की महिमा शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। लेकिन यह एक कोशिश भर है। शिव इस जगत के स्वामी हैं इसलिए उन्हें महेश्वर या देवाधिदेव कहा गया है। शिव महापुराण ७ संहिताओं में विभक्त है। इन संहिताओं के नाम हैं- १. वागेश्वरी संहिता २. रुद्र संहिता ३. शतरुद्र संहिता ४. कोटिरुद्र संहिता ५. उमा संहिता ६. कैलाश संहिता ७. वायवीय संहिता। पहले सात अध्यायों में शिव महापुराण पढ़ने की महिमा का विस्तार से वर्णन है। यानी जो यह पुराण पूरी श्रद्धा से पढ़ता है, उसे क्या क्या लाभ मिलते हैं। यह पवित्र ग्रंथ कैसे पढ़ते हैं। कैसा माहौल होना चाहिए। किस जगह बैठ कर पढ़ना चाहिए। वगैरह- वगैरह। अनेक महात्मा हैं जो हमेशा अपने पास यह महापुराण रखते हैं। आमतौर पर वे रात के सन्नाटे में अत्यंत एकांत व पवित्र स्थान पर इसका पाठ करते हैं। मेरी भेंट एक ऐसे ही महात्मा से हो चुकी है। उन्होंने कहा था- मैं जब भी इस महापुराण को पढ़ता हूं, एक दिव्य आनंद का अनुभव होता है। आश्चर्य यह है कि इसे मैं हजारों बार पढ़ चुका हूं, लेकिन हर बार यह पहले से ज्यादा रुचिकर और आनंददायी लगता है। इसीलिए इसका जितनी बार पाठ किया जाए, कम है। खास बात यह है कि शिव महापुराण के श्लोकों को व्याख्या सहित पढ़ने पर आपका पूरा शरीर एक दिव्य तरंग से ओतप्रोत हो जाता है। अगर इसे लगातार हर रोज पढ़ा जाए तो उसका कितना लाभ मिलेगा, कहने की जरूरत नहीं है। एक संत ने कहा था- वैसे तो शिव जी साकार मृगछाला पहने जटा- जूट बढ़ाए, सिर पर गंगा और चंद्रमा को धारण किए हुए, गले में सांप की माला और त्रिशूल व डमरू के साथ नंदी बैल को लिए रहते हैं। लेकिन जब उनकी भक्ति में हम डूब जाते हैं तो वे एक दिव्य प्रकाश में परिवर्तित हो जाते हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- वैसे तो शिव जी विचित्र परिधान पहने रहते हैं लेकिन वे हैं- परम कल्याणकारी। यानी भगवान शिव की अराधना करने वाले का परम कल्याण होता है। जो उनकी श्रद्धा से पूजा करते हैं, उन्हें किसी बात का भय नहीं रहता।

Monday, March 16, 2009

दिल से निकली प्रार्थना को भगवान जरूर सुनते हैं

विनय बिहारी सिंह

पिछले रविवार को योगदा मठ में पूरे दिन रहा। वहां के एक सन्यासी ने कहा- अगर दिल से प्रार्थना की जाए तो भगवान जरूर सुनते हैं। लेकिन जरूरी यह है कि प्रार्थना करने वाले के मन में ईश्वर के प्रति गहरी आस्था होनी चाहिए। यह आस्था कैसी होनी चाहिए? जब आप प्रार्थना कर रहे हों तो आपके मन में पूरा भरोसा हो कि आपकी बात ईश्वर सुन रहे हैं। और यह कल्पना की बात नहीं है। जिसने यह समूची सृष्टि बनाई है, वह आप क्या कह रहे हैं, नहीं सुनेगा? वह तो हमारे एक एक पल की जानकारी रखता है। हमारी हर बात सुनता है। मन में यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर मुझे गौर से सुन रहा है। आप दिल खोल कर उससे अपनी बात कहिए। जैसे आप कोई बात अपने किसी अत्यंत प्रिय व्यक्ति से करते हैं। भगवान उसका जवाब देते हैं। लेकिन अगर आपके मन में जरा भी शक है कि क्या पता भगवान सुन भी रहे हैं कि नहीं, तो फिर आपको ईश्वर की तरफ से जवाब नहीं मिलेगा। दुनिया के सभी धर्मों के जितने भी धर्मग्रंथ हैं, सभी स्पष्ट रूप से कह रहे हैं- हम ईश्वर की संतान हैं। ईश्वर ही हमारा माता- पिता है। हमें उसकी शरण में जाना चाहिए। लेकिन यह बात पढ़ कर, सुन कर हम मन में पक्की तरह नहीं बैठा पाते। फिर भी शंका रह ही जाती है। क्या पता भगवान की संतान हम हैं कि नहीं? जैसे ही यह शंका हुई कि बस आप भगवान से दूर हो गए। आप खुद को शरीर मत मानिए। आप एक विराट चेतना हैं। आप अपनी चेतना को ईश्वर से जोड़ दीजिए, बस आप सुखी हो जाएंगे। सन्यासी की बात बिल्कुल ठीक है। सच ही तो है- हमारे मन में हमेशा शंका उठती रहती है, अगर- मगर उठता रहता है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि जीव कोटि के लोगों को ईश्वर पर भरोसा ही नहीं होता। कुछ दिन भरोसा रहता है तो फिर मन में शंका उठ जाती है। मन स्थिर नहीं रहता। ऐसे में प्रार्थना ईश्वर तक नहीं जाएगी। आपकी शंका ही आपकी प्रार्थना को रोक लेगी। इसी को धर्म शास्त्रों में माया कहा जाता है। अंग्रेजी में डिल्यूजन। इसी से हमको मुक्त होना है और सच्चे मन से ईश्वर को पुकारना है। वे तैयार खड़े हैं हमारी मदद के लिए।

Saturday, March 14, 2009

क्यों पवित्र है तुलसी का पेड़


विनय बिहारी सिंह

हिंदू धर्म में तुलसी का पेड़ लगाना और उसकी पूजा करना शुभ माना जाता है। इसकी खास वजह है। अगर आपके आंगन में तुलसी का पौधा है तो आपका घर कई रोगाणुओं और विषाणुओं ( बैक्टीरिया व वाइरसों) से मुक्त हो जाता है। इसके अलावा अगर आप अक्सर तनाव में आ जाते हैं तो हर रोज छोटे कप का चौथाई भाग तक तुलसी के पत्तों का रस पीएं। बहुत फायदा होता है। आप अगर रोज विचित्र विचित्र सपने देखते हैं तो आपको रोज एक मुट्ठी तुलसी का पत्ता खाएं। खासतौर से रात के भोजन के बाद। आपका पेट तो साफ होगा ही, बुरे सपने आने बंद हो जाएंगे। पुराने समय में ऋषियों के आश्रमों में इसीलिए तुलसी और नीम के पेड़ अवश्य होते थे। इसके अलावा अश्वत्थ का पेड़ भी अवश्य रहता था। अगर आपको जुकाम के कारण हल्का बुखार है तो अदरक और तुलसी के पत्तों की चाय जबर्दस्त फायदा करती है। यही नहीं, सूखे तुलसी के पौधों की धूनी जलाना भी बहुत फायदेमंद होता है। इससे एक तो आपके कमरे का नकारात्मक माहौल खत्म हो जाता है और कमरे के भीतर मानो एक नई ऊर्जा आ जाती है, जिसे उसमें रहने वाले महसूस कर सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे- यह धूनी एक सीमा के भीतर हो। बहुत धुंआ आपको परेशान कर सकता है। इसलिए तुलसी के सूखे तने की एक दो डंडी जला कर ही धूनी कीजिए। अगर आप तुलसी के चार- छह पत्तों को रोज ब्रश करने के बाद चबाएं तो आपके मुंह से दुर्गंध ही नहीं आएगी। जो लोग पान खाना छोड़ना चाहते हैं, उनके लिए तुलसी के पत्ते चबाना रामबाण का काम करेगा। पान की लत छूट जाएगी और आपके स्वास्थ्य के लिए तुलसी के पत्ते अमृत का काम करेंगे। जहां तुलसी वन हैं, वहां के संत वन के आसपास ही अपना आश्रम बनाते हैं ताकि तुलसी से स्पर्श करती हवा उन्हें मिले और वे आध्यात्मिक साधनाएं निश्चिंत हो कर कर सकें।

Friday, March 13, 2009

संत रामानंद जी



विनय बिहारी सिंह


संत रामानंद जी १३वीं शताब्दी के विख्यात संत थे। वे रविदास, पीपा और कबीर जैसे उच्च कोटि के संतों के गुरु थे। उन्होंने अपने सिद्धांत की काव्यात्मक व्याख्या की-
जाति पांति पूछे नहीं कोई।हरि के भजे सो हरि के होई।।
उनके समय में जाति और धर्म में समाज बंटा हुआ था। उस समय यह भी था कि अमुक जाति का व्यक्ति मंदिर में नहीं जाएगा। अमुक आदमी अछूत है। वगैरह वगैरह। संत रामानंद के इस धार्मिक नारे से सभी धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग उनके पास आए और आध्यात्मिक रस पीया। संत रामानंद की मुख्यतया इलाहाबाद और वाराणसी में रहे। हालांकि उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्रा की और अपना संदेश जन जन तक पहुंचाया, लेकिन ज्यादातर वे वाराणसी और इलाहाबाद में ही रहे। उनका कहना था कि मनुष्य इंद्रिय, मन और बुद्धि के परे जाए और जिस राम ने हम सबको पैदा किया है, उससे प्रेम करे। जो हमारा जन्मदाता है, उसका नाम है राम यानी ईश्वर। वह हमें प्रेम से पुकार रहा है। लेकिन हम सांसारिक आकर्षणों में इस कदर बंधे हुए हैं कि उसकी मौन पुकार सुन नहीं पा रहे हैं। वह हमें बहुत प्यार करता है। वह कहता है- एक बार तो हमारी पुकार सुनो मेरे बच्चो। आओ, मेरे पास आओ। इस संसार में जो कुछ भी तुम्हें अपना और प्यारा दिख रहा है, वह भ्रम है। कोई तुम्हें प्यार नहीं करता, सिर्फ मैं तुम्हें प्यार करता हूं। मैंने तुझे जन्म दिया है, तुम मेरे बच्चे हो। आओ, आ जाओ। लेकिन अगर फिर भी हम नहीं सुनेंगे तो ईश्वर कहता है कि ठीक है, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा। संत रामानंद के अराध्य राम थे। वे ईश्वर को राम कह कर पुकारते थे। उनके शिष्यों ने इसी मंत्र को लिया और ईश्वर से संबंध जोड़ने के लिए प्रेरित किया। संत कबीर के दोहों, और शबद व रमैनी में राम शब्द का प्रयोग बहुत आया है। जैसे- कबीर कूता राम का (संत कबीर विनम्रता से राम के प्रति समर्पित हैं और कहते हैं- कबीर राम का कुत्ता है)। यह भक्ति की पराकाष्ठा है। इसी को संपूर्ण समर्पण कहते हैं। संत रामानंद ने उन पर करारा चोट किया जो जाति- पांति, धर्म, भाषा और संप्रदाय के नाम पर लोगों को बांटते हैं। उन्होंने हरि के भजे सो हरि के होई, कह कर सबको जोड़ दिया। इसीलिए उन्हें समाज सुधारक भी कहा जाता है।

Thursday, March 12, 2009

देखना चाहता हूं तुम्हें साकार



विनय बिहारी सिंह



प्रभु
मैं जानता हूं
तुम हो साकार
और
निराकार भी
पर, चूंकि
तुमने मुझे बनाया है साकार
इसलिए मुझे दर्शन दो
साकार रूप मे ही
चाहे कृष्ण, शिव या जगन्माता
कुछ भी बन कर आओ
भगवन, कब दोगे दर्शन।
बिना दर्शन मैं
नहीं छोड़ूंगा प्रार्थना, जाप और
रिरियाना।।

Tuesday, March 10, 2009

होलिका दहन की कथा




विनय बिहारी सिंह


वैसे तो आप सभी यह पुराण कथा जानते ही हैं। लेकिन होली के मौके पर इसे फिर से याद करना, बुराई पर अच्छाई की जीत को व्याख्यातित करता है। कथा है-दानव राजा हिरण्यकश्यप को अहंकार था कि वही ईश्वर है। उसकी इच्छा के मुताबिक उसके राज्य में सभी उसी के नाम का जाप करते थे। लेकिन उसका बेटा प्रह्लाद भगवान विष्णु का अटल भक्त था। पहले तो हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को बहुत समझाया। तरह- तरह के प्रलोभन दिए। कहा कि मैं ही तुम्हारा ईश्वर हूं। ईश्वर- फिश्वर कुछ नहीं होता। जो दिखाई नहीं देता, उसकी परवाह क्या करना। जब भगवान को किसी ने देखा ही नहीं है तो तुम क्यों उसके भक्त बने हो। हिरण्यकश्यप ने भगवान विष्णु के अस्तित्व को ही नकार दिया। लेकिन प्रह्लाद तो अटल भक्त था। उसे इस बात की चिंता नहीं थी उसके पिता क्रोध से उबल रहे हैं। वह तो नारायण, नारायण जपता रहता था और अकेले में ध्यान में मग्न रहता था। जब हिरण्यकश्यप ने देखा कि उसका बेटा उसकी बात नहीं सुनने वाला तो उसने उसकी हत्या की ठान ली। उसने तरह- तरह से उसे मारने की कोशिश की। लेकिन हर बार प्रह्लाद बच जाता था। तब उसने एक अनोखा उपाय सोचा। उसकी बहन को वरदान मिला हुआ था कि वह आग मे नहीं जल सकती। हिरण्यकश्यप ने चिता की तरह बड़ी सी आग जलवाई और होलिका को कहा कि वह प्रह्लाद को लेकर इस आग में बैठ जाए। होलिका खुश हो कर यह काम करने को तैयार हो गई। लेकिन आश्चर्य। होलिका जल कर राख हो गई और प्रह्लाद नारायण नारायण कहते हुए तब तक आग में बैठा रहा जब तक वह जलती रही। तब हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को एक खंभे में बांधा और तलवार उठा कर बोला- आज तुम्हारी हत्या हो कर रहेगी। बोलो क्या तुम्हारा विष्णु भगवान इस खंभे में है? प्रह्लाद बोला-
हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में।घट, घट व्यापत राम।।
हिरण्यकश्यप अट्ठाहास कर हंसने लगा और उसने तलवार उठा कर अपने बेटे प्रह्लाद की गर्दन काटनी चाही। तभी भगवान विष्णु ने खंभे को फाड़ कर नृसिंहावतार लिया। हिरण्यकश्यप को वरदान था कि वह वह न दिन में मर सकता है न रात में। न जमीन पर मर सकता है और न आकाश या पाताल में। न मनुष्य उसे मार सकता है और न जानवर या पशु- पक्षी। इसीलिए भगवान उसे मारने का समय संध्या चुना और आधा शरीर सिंह का और आधा मनुष्य का- नृसिंह अवतार। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप की हत्या न जमीन पर की न आसमान पर, बल्कि अपनी गोद में लेकर की। इस तरह बुराई की हार हुई और अच्छाई की विजय। यह कथा होली पर बार बार याद करने लायक है।

Monday, March 9, 2009

आओ प्रभु

विनय बिहारी सिंह

(परमहंस योगानंद जी की कविता से प्रेरित होकर)
मेरी रगों में दौड़ता खून
मेरे दिल की धड़कन
मेरा मन
मेरी बुद्धि
मेरी आत्मा
तुम्हीं तो हो भगवन
हां, तुम्हीं तो हो।
मेरी हर सांस
मेरी हर याद
मेरा सब कुछ
प्रभु तुम्हीं तो हो।
कब आओगे भगवन
कब दोगे दर्शन

अब नहीं सहा जाता ।।
जल्दी आओ न
प्रभु, मेरे प्रिय
आओ,
खुला है मेरे हृदय का द्वार
और खुला रहेगा हमेशा
बहुत करा लिया इंतजार
आओ प्रभु, करो न देर

मेरे प्रियतम, आओ।।


Saturday, March 7, 2009

हनुमान जी ने जब लंकिनी पर मुक्के से प्रहार किया


विनय बिहारी सिंह

रामचरितमानस के सुंदरकांड में है कि जब माता सीता की खोज में हनुमान जी लंका रवाना हुए तो देवताओं ने उनकी परीक्षा के लिए सुरसा को उनके सामने भेजा। उसने हनुमान जी को खाने की इच्छा व्यक्त की। हनुमान जी ने कहा कि मैं माता सीता की खबर जब तक भगवान राम के पास नहीं पहुंचाता हूं, तुम्हारा भोजन नहीं बन सकता। पहले मुझे अपना काम कर लेने दो, इसके बाद स्वयं मैं तुम्हारे पास आ जाऊंगा। फिर तुम मुझे खा लेना। लेकिन सुरसा इसके लिए तैयार ही नहीं थी। तब हनुमान जी ने कहा- तो ठीक है मुझे खा। सुरसा ने अपना मुंह चार कोस जितना चौड़ा किया तो हनुमान जी ने उसका दूना अपना शरीर कर दिया। उसने आठ कोस का मुंह किया तो हनुमान जी ने १६ कोस का अपना शरीर कर लिया। जस- जस सुरसा बदन बढ़ावा।तासु दून कपि रूप दिखावा।।
बढ़ते बढ़ते सुरसा ने सौ योजना जितना मुंह चौड़ा किया तो हनुमान जी एक दम छोटे रूप में आ गए और उसके शरीर के भीतर घुस कर बाहर निकल गए। सुरसा ने उनके इस कौशल पर उन्हें आशीर्वाद दिया। उसने हनुमान जी का लोहा मान लिया। फिर छाया से आकाश में उड़ने वाले जीवों को पकड़ खाने वाली राक्षसी को मारा। आगे बढ़ने पर लंका की राक्षसी लंकिन से सामना हुआ। लंकिनी ने कहा कि चोर ही तो उसके भोजन है। वह हनुमान जी को चोर की तरह लंका में घुसने वाला कह रही थी। हनुमान जी ने उसे एक मुक्का मारा। वह तुरंत खून उगलते हुए धराशायी हो गई। थोड़ी देर बाद किसी तरह कराहते हुए उठी और बोली- ब्रह्मा जी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा था- जब किसी वानर की मार से तुम बेचैन हो जाओ तो समझना राक्षसों का अंत आ गया है। अब लगता है- राक्षस नहीं बचेंगे। उसी ने कहा-प्रविसि नगर कीजै सब काजा।हृदय राखि कौसलपुर राजा।। हे हनुमान जी भगवान राम को हृदय में रख कर जाइए। आपका काम अवश्य होगा। हालांकि हनुमान जी भगवान राम के विशेष दूत थे और हमेशा ही रहेंगे। भगवान राम ने उन्हें भरत की तरह प्रिय भाई कहा है। लेकिन लंकिनी अपनी श्रद्धा भगवान राम के प्रति व्यक्त कर रही थी। यानी लंकिनी जैसी राक्षसी भी भगवान राम की परम भक्त थी। ल

Friday, March 6, 2009

शाकाहार के समर्थन में मेरा एक विनम्र निवेदन


विनय बिहारी सिंह

रोज मेरे घर के सामने से कुछ कसाई बकरियों का झुंड ले जाते हैं। मैं कोलकाता में रहता हूं। सुबह- सुबह ये बकरियां जिस तरह चिल्लाती हुई जाती हैं, वह विलाप से भी बदतर लगता है। साफ है कि बकरियां जानती हैं कि उनकी हत्या की जाएगी। यह वही समझ सकता है जिसने बकरियों का यह चित्कार सुना हो। मैं रोज यह चित्कार सुन कर हिल जाता हूं। इन बकरियों का मांस खा कर हम कौन सी नियामत पाते होंगे, मेरी समझ से बाहर है। मुझे यह चित्कार कभी नहीं भूलती। सचमुच जो लोग कहते हैं कि मांस खाना अपने पेट को कब्र में तब्दील करना है, वे गलत नहीं कहते। शाकाहार के तो अनगिनत फायदे हैं। आप पहले वे चित्कार सुनें, फिर मांसाहार पर गौर करें। यह चित्कार कोलकाता में ही नहीं, हर कहीं सुनाई दे सकता है। पौधों और पेड़ों के फल व सब्जियां तोड़ना उनकी हत्या नहीं है। अगर आम आप नहीं तोड़ेंगे तो वह स्वतः ही पक कर गिर जाएगा। संतों ने तो कहा ही है-वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचै नीरपरमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर। शाकाहार ही मनुष्य के लिए श्रेष्ठ है। ऐसा श्रेष्ठ पोषक तत्व विग्यानियों ने कहा है। (मैं तकनीकी कारणों से ग्य ही लिख पा रहा हूं।)प

ईश्वर चंद्र विद्यासागर


विनय बिहारी सिंह

ईश्वर चंद्र विद्यासागर १९ वीं शताब्दी में पश्चिम बंगाल में पैदा हुए। जन्म वर्ष है- १८२०। उनका असली नाम ईश्वर चंद्र बंद्योपाध्याय था। संस्कृत कालेज ने उन्हें विद्यासागर की उपाधि दी थी। वे इसी कालेज के विद्यार्थी थे। विद्यासागर पश्चिम बंगाल के पुनर्जागरण के पुरोधाओं में से एक माने जाते हैं। उन्होंने बाग्लाभाषा में जो सहज बदलाव किए उससे बच्चों को बांग्ला भाषा सीखने में बहुत ज्यादा मदद मिली। आज भी नर्सरी के बच्चों को पढ़ने के लिए वर्ण परिचय नाम की जो पुस्तक पश्चिम बंगाल में दी जाती है, उस पर विद्यासागर का चित्र छपा होता है। इसके अलावा विधवा विवाह की पहल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि इस आध्यात्मिक ब्लाग पर ईश्वर चंद्र विद्यासागर का उल्लेख क्यों? इसकी वजह यह है कि विश्वविख्यात संत और स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस उनसे मिलने उनके आवास पर गए थे। रामकृष्ण परमहंस उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे कहते थे कि विद्यासागर को इस जगत के कल्याण के लिए ईश्वर ने भेजा है। विद्यासागर के पिता ने उन्हें कोलकाता के एक संस्कृत कालेज में दाखिल करा दिया। पिता के एक मित्र ने उन्हें सलाह दी कि विद्यासागर को अंग्रेजी की भी शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि यह भाषा नौकरी दिलाने में मदद करती है। इस तरह विद्यासागर संस्कृत के साथ अंग्रेजी भी पढ़ने लगे। उन्होंने कानून की पढ़ाई भी की। १८४१ में फोर्ट विलियम कालेज में वे संस्कृत के प्रोफेसर नियुक्त हुए। वे जाति- पांति को नहीं मानते थे। इसके अलावा वे कालेज के पाठ्यक्रम में बदलाव भी चाहते थे। रूढ़िवादी मानसिकता के अध्यापकों ने विद्यासागर का विरोध किया। पांच साल बाद उन्होंने फोर्ट बिलियम कालेज छोड़ दिया और संस्कृत कालेज में असिस्टेंट सेक्रेटरी के तौर पर नियुक्त हुए। वहां भी सेक्रेटरी के साथ उनका मतभेद हुआ क्योंकि विद्यासागर चाहते थे कि सभी जातियों के लड़के संस्कृत कालेज में पढ़ें। सिर्फ एक जाति विशेष के लोग वहां न पढ़ें। इसी विरोध के कारण तीन साल बाद विद्यासागर ने संस्कृत कालेज छोड़ दिया। लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने इस कालेज में फिर नौकरी इस शर्त पर की कि उनकी बात सुनी जाएगी। इसके बाद सभी जातियों के लोगों को संस्कृत कालेज में प्रवेश मिलने लगा। इसी संस्कृत कालेज के वे विद्यार्थी रह चुके थे जिसने उन्हें विद्यासागर की उपाधि दी। ईश्वर चंद्र विद्यासागर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एलान किया कि बच्चों को विग्यान पढ़ाए बिना उनका ग्यान पूरा नहीं होगा। उन्होंने इसके लिए कापरनिकस, न्यूटन और हर्षल जैसे वैग्यानिकों की जीवनियों का अंग्रेजी से बांग्ला में अनुवाद किया ताकि जो अंग्रेजी नहीं जानते वे भी वैग्यानिकों और उनकी उपलब्धियों के बारे में जान सकें। पाश्चात्य दार्शनिक फ्रांसिस बेकन को अपने देश में लोगों ने उन्हीं के माध्यम से जाना। ईश्वर चंद्र विद्यासागर लेखक, चिंतक, समाजशास्त्री, दार्शनिक और समाज सुधारक थे। उन्हें याद करने से लगातार काम करने की प्रेरणा मिलती है।

Wednesday, March 4, 2009

कभी आपने जो चीज पसंद कर खरीदी थी, वह अब आकर्षक नहीं लगती?



विनय बिहारी सिंह


कई बार ऐसा होता है कि कोई चीज आपको बहुत पसंद आ गई। कोई दीवार घड़ी, पर्स या कोई फोटो। उसे आप घर ले आए। फोटो है तो उसे दीवार पर टांग दिया। लेकिन कुछ दिनों या महीनों के बाद लगता है कि वही चीज अब आकर्षक नहीं रही। उससे भी अच्छी कोई और चीज आपको भा गई। उससे भी अच्छा कोई और फोटो आपको खींच रहा है। क्या आपने सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? अगर ऐसा हो रहा है तो इसका अर्थ है कि हमें किसी बहुत सुंदर औऱ सुख देने वाली चीज की तलाश है और वह मिल नहीं रही। फोटो कुछ दिन अच्छा लगा लेकिन दिल को छू लेने वाला फोटो कहां है? तलाश जारी है। आखिर यह तलाश कब खत्म होगी? संतों ने कहा है वह तलाश भगवान के पास जाकर खत्म होगी। दरअसल हम खोज रहे हैं भगवान का ही सुख। लेकिन हमारे कंपास की सुई भौतिक वस्तुओं पर जा कर टिक जाती है। जैसे ही वह सुई भगवान के दिव्य आनंद को छूती है, अपूर्व आनंद महसूस होने लगता है। संत- महात्माओं ने कहा है कि एक बार आप भगवान की शरण में जाकर देखिए, आपके सारे तनाव और दुख वे खत्म कर देंगे। लेकिन पूर्ण शरणागति चाहिए। संत प्रश्न पूछते हैं- क्या आप ट्रेन में बैठते हैं तो अपना सामान सिर पर लिए रहते हैं? नहीं न? तो फिर जब भगवान रूपी ट्रेन पर चढ़ गए तो चिंता रूपी गठरी अपने सिर पर क्यों ढो रहे हैं भाई? सब कुछ भगवान पर छोड़िए और कुछ नहीं तो कम से कम आधा घंटा अपने मन को ईश्वर में लय कर दीजिए। फिर देखिए आप कितना तरोताजा महसूस करते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-सर्व धर्मान परित्यज्ये, मामेकम शरणम व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।सभी धर्मों को छोड़ कर सिर्फ मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हारे सारे दोषों से मुक्त कर मोक्ष दे दूंगा, और कुछ मत सोचो। (अठारहवां अध्याय)। क्यों न हम इसे आजमा कर देंखें।

Tuesday, March 3, 2009

पूजा करने में मन न लगने की शिकायत


विनय बिहारी सिंह

अक्सर आपको यह सुनने को मिलेगा कि क्या करें पूजा का जो नियम है उसका पालन करता हूं, लेकिन मन का क्या करूं। कैसे उसे वश में करूं। दो मिनट तो ठीक रहता है, लेकिन उसके बाद मन हजार जगह भटकने लगता है। कई बार कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिलती। अब तो सोचता हूं, यह मेरे वश में नहीं है। यही सवाल एक सन्यासी से पिछले दिनों एक व्यक्ति ने पूछा। सन्यासी ने कहा- इसका मतलब है कि भगवान से भी ज्यादा आपको कोई चीज प्यारी है। उस व्यक्ति ने कहा- नहीं। ऐसा हो ही नहीं सकता। भगवान से बढ़ कर कोई हो ही कैसे सकता है। तब सन्यासी ने कहा- अगर भगवान से बढ़ कर कोई औऱ नहीं है तो फिर आपका मन भगवान से कौन हटाता है? उस व्यक्ति ने कहा- पता नहीं। लेकिन अचानक मन भटकने लगता है। सन्यासी ने पूछा- मन किसका है? उस व्यक्ति ने कहा- मेरा है। तब तो आपका मन आपके वश में होना चाहिए। उस व्यक्ति ने कहा- लेकिन यही तो समस्या है सन्यासी जी। मेरा मन है और मेरे कहने में नहीं है। सन्यासी ने कहा- यह तो बुरी बात है। तब आपका पहला काम है- अपने मन को वश में करना। जब आप चाहते हैं तो हाथ उठा देते हैं। या हाथ से काम करने लगते हैं। लेकिन जब आपका हाथ आपका कहना मानता है तो मन को आपका कहना मानना चाहिए। अगर नहीं मानता तो उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश कीजिए। गीता में भगवान कृष्ण से अर्जुन ने पूछा कि मन को कैसे वश में करें। वह तो प्रचंड मथ देने वाला है। मन वायु के समान चंचल है। तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- हां, यह सच है कि मन बहुत चंचल है। लेकिन उसे वश में करने के लिए अभ्यास और वैराग्य की जरूरत है। अभ्यास यानी जब भी मन भागे तो उसे खींच कर भगवान की तरफ लाइए। यह काम बार- बार करना पड़ेगा। ऊबने से या चिंतित होने से काम नहीं चलेगा। यह तो लगातार अभ्यास से होगा। और वैराग्य? वैराग्य यह कि यह संसार हमारा नहीं है। मेरे न रहने के पहले भी यह संसार था और मरने के बाद भी रहेगा। इसके अलावा यह संसार किसी का नहीं। सब माया का खेल है। संसार जितना लुभावना लगता है, उतना ही हमारे लिए पराया है। इसका मतलब यह नहीं कि संसार छोड़ देना चाहिए। संसार में रहना चाहिए लेकिन भगवान का हाथ पकड़ कर। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- संसार में एक हाथ से काम कीजिए और दूसरे हाथ से भगवान को पकड़े रहिए। यानी यह मान कर सारा काम कीजिए कि मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूं, असली करने वाला तो भगवान है। सारा काम भगवान को सौंप कर जीवन यापन करना ही वैराग्य है। घर- परिवार छोड़ कर जंगल में रहना वैराग्य नहीं है।

Monday, March 2, 2009

कथा भृगु संहिता की


विनय बिहारी सिंह

भृगु संहिता कैसे लिखी गई, इसकी एक रोचक कथा है। ऋषि भृगु हर लोक में कभी भी जा सकते थे। एक बार वे भगवान विष्णु से मिलने बैकुंठ लोक गए। द्वार पर जय- विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें रोका। यह ऋषि भृगु के लिए चकित करने वाली बात थी। उन्हें आज तक कहीं किसी ने रोका नहीं था। वे क्रोधित हो गए। उन्होंने जय- विजय को श्राप दे दिया। द्वारपालों ने सिर झुका लिया और उन्हें विष्णु भगवान के पास जाने दिया। उन्होंने जा कर देखा कि विष्णु भगवान सो रहे हैं और माता लक्ष्मी उनका पैर दबा रही हैं। भृगु ऋषि को लगा कि भगवान सोने का बहाना कर रहे हैं। उन्होंने गुस्से में विष्णु भगवान की छाती पर जोर से लात मारी। विष्णु भगवान ने आंखें खोलीं और हाथ जोड़ कर बोले- ऋषिवर, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। भगवान की यह विनम्रता देख कर भृगु जी चकित हुए। लेकिन माता लक्ष्मी को क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु ऋषि को शाप दिया- आपने मेरे पति का अपमान किया है, इसलिए मैं शाप देती हूं कि अब तक तपस्या के लिए आप सबको बिना प्रयत्न के ही फल- फूल और धन मिल जाया करता था। लेकिन अब आपको इसके लिए श्रम करना पड़ेगा। । भृगु ऋषि ने कहा कि माता मैंने तो विष्णु भगवान से माफी मांग ली है। लेकिन जब आपने शाप दे ही दिया तो मैं एक ऐसा ज्योतिष ग्रंथ लिखूंगा, जिसके आधार पर हमारे जैसे ऋषि और अन्य ब्राह्मण अद्भुत भविष्यवाणी करेंगे और उससे उनकी जीविका चलेगी। इसके बाद वे अपने आश्रम में गए और भृगु संहिता की रचना की। लेकिन आज मूल भृगुसंहिता कहीं नहीं है। हालांकि जहां जहां भृगु संहिता होने की बात कही जाती है, वहां के लोग उसे ही मूल भृगु संहिता कहते हैं और बाकी को जाली। होशियारपुर (पंजाब) में एक भृगुसंहिता का पता चला था। लेकिन वहां जाने पर पता चला कि वहां पहुंचने वाले प्रश्नकर्ता या जातक की प्रश्न कुंडली बना कर भविष्यवाणी की जाती है। प्रश्न कुंडली तो दक्षिण भारत की कृष्णमूर्ति पद्धति में भी है और बहुत ज्यादा सटीक है। इसलिए वहां मूल भृगु संहिता है, इस पर शंका हो गई। वैसे भृगु संहिता में जो बातें हैं, उन्हें संक्षेप में यहां दिया जा रहा है-गणितीय ज्योतिष औऱ फलित ज्योतिष और अंक ज्योतिष। इसमें जन्म कुंडली, विंशोत्तरी दशा, भविष्यवाणी, पूर्व जन्म का ब्यौरा, जीवन की घटनाएं और ज्योतिषीय उपाय।मुझे इस संबंध में यही कहना है कि दक्षिण भारत की कृष्णमूर्ति पद्धति ज्यादा सटीक होती है। मैं स्वयं, उसी का विद्यार्थी रहा हूं। उससे भविष्यवाणी करने में सुविधा होती है।