Wednesday, November 12, 2008

चलें सत्य की ओर


असतो मा सदगमय , अर्थात हे प्रभु! हमें सत्य की ओर ले चलो। प्रार्थना की यह पंक्ति वेदों से ली गई है। क्या यह एक प्रार्थना है, याचना है अथवा हमारे अंतर्मन की कोई इच्छा है? आखिर इस पंक्ति द्वारा मनुष्य ईश्वर से क्या कहना चाहता है?
प्रार्थना के गूढार्थ

यदि हम इस पंक्ति की व्याख्या करते हैं, तो पाते हैं कि इसमें कई तरह के गूढार्थ छिपे हुए हैं।
असतो मा सदगमय एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हम असत्य में जी रहे हैं, इसलिए सत्य की ओर उन्मुख होने की जरूरत है। हालांकि वास्तव में, हम अपने जीवन में सांसारिक सफलता पाने के लिए सत्य से कोसों दूर हो जाते हैं।
सत्य का स्वरूप
सांसारिक जीवन में सत्य के दो रूप होते हैं। एक सत्य वह है, जिसे हम भौतिक सत्य कहते हैं। कहने का मतलब यही है कि यदि हम अपने जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं, तो उससे मिलने वाली खुशी को सत्य मान बैठते हैं। वास्तव में, वह खुशी नहीं है, क्योंकि इससे हमारा अंतर्मन खुश नहीं होता है। दरअसल, हमारा अंतर्मन खुश होता है, ईश्वर की सच्ची प्रार्थना से। सच तो यह है कि ईश्वर से प्रीति लगाना ही अंतिम सत्य है, क्योंकि मोक्ष मिलने का एक मार्ग यह भी है।
सत्य की अनुभूति
बीज से पौधा बनने, पौधे से कली विकसित होने तथा कली से फूल बनने के दौरान पेड में कई प्रक्रियाएं होती हैं। मात्र तीन प्रक्रियाओं को देखना अज्ञानता है, असत्य है। सच तो यह है कि हम अपने जीवन में घटने वाली कई घटनाओं के प्रति जड होते हैं और इस जडता का कारण है हमारी अज्ञानता। जैसे ही हमारे अंदर ज्ञान का उदय होता है, जडता कम होती जाती है तथा हम सत्य की तलाश में जुट जाते हैं। ज्ञान की प्राप्ति ही सत्य है तथा अज्ञान असत्य है। ज्ञान से प्राप्त सत्य की तलाश असतो मा सद्गमयमें निहित है।
स्वयं को जानना है सार
सभी धर्मो में स्वयं को जानने की प्रक्रिया पर बल दिया गया है। तुम कौन हो और तुम कहां से आए हो? तुम्हारे आगमन का क्या प्रयोजन है? इस प्रकार की जिज्ञासाएं सभी धर्मो, मतों तथा संप्रदायों में व्याप्त हैं। प्रत्येक इनसान अपने-अपने तरीके से इसके समाधान का प्रयास भी करता है। इस प्रयास में कई महापुरुषों की वाणी हमारी मदद करती हैं। सुकरातकहते हैं, मैंने अपनी सारी जिंदगी अपने आपको ही जानने का प्रयत्न किया है। अपनी आत्मा की पूर्णता के लिए सर्वाधिक प्रयत्न किया और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि प्रभो!तुम मेरी अंतरात्मा को सौंदर्य से भर दो, मेरे बाह्य और अंतर को एक कर दो। मन और वाणी का भेद मिटा दो। उन्होंने लोगों को कोई नया ज्ञान नहीं दिया, बल्कि प्रत्येक इनसान में पहले से मौजूद ज्ञान को अनुभव करने में उनकी मदद की। उन्होंने कहा कि सबसे बडी बुराई है ईश्वर की तलाश करना, उस ईश्वर की, जो हम सभी के अंदर विद्यमान है। दरअसल, स्वयं को जानने से ईश्वर की तलाश पूरी होती है। स्वयं को जानना अथवा सेल्फ रिअलाइजेशनही वास्तविक ज्ञान है, सत्य है। इस प्रकार स्वयं को जानने की इच्छा ही असतो मा सद्गमयके मूल में निहित है, जो हमारी प्रार्थना का मूल तत्व है। हम चाहे अमृत की इच्छा करें अथवा प्रकाश की (मृत्योर्माऽअमृतंगमय/तमसो मा ज्योतिर्गमय),यह सभी एकमात्र सत्य को जानने की इच्छा ही है। स्वयं को जानने के प्रयास के बिना यह संभव ही नहीं है। असत्य के रूप में मृत्यु, अंधकार अथवा अज्ञान से मुक्ति के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से जानना अनिवार्य है। सच तो यह है कि पंक्तियों के मात्र उच्चारण से ही हम ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। इसको मन के स्तर पर स्वीकार करना और परिवर्तन के लिए इच्छा भी अनिवार्य है। मन में बिना पवित्र भावना के उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं है। अत:हमारी भावना भी शब्दों के अनुरूप होनी चाहिए। जो बोलें, वही चाहें। यदि न बोलें तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि भावना मात्र से उद्देश्य की पूर्ति संभव है। इसलिए किसी महात्मा ने सच ही कहा है कि हम अपने मन के भावों को प्रार्थना के अनुरूप रखें। यदि ईश्वर के प्रति हमारे मन के भाव सच्चे होंगे, तो प्रार्थना के शब्दों की आवश्यकता नहीं पडेगी। दरअसल, यही प्रार्थना की सफलता का मूल है।
[सीताराम गुप्ता]

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